किसानों के इधर के लगातार तीव्र आंदोलन, उनकी मांगों और इन सबसे हासिल के बारे में लिखते हुए मुझे बरबस एक काल्पनिक नज़ारे का गुमान होने लगता है। मैं पाठकों के साथ उसे शेयर करना चाहूंगा।
आपके सामने मछलियों से गुलज़ार एक भरपूर नदी लहरा रही है। मछलियां और नदी एक दूसरे से खुश और कमोबेश इत्मिनान की ज़िन्दगी जी रही हैं। मौसम की मार की वजह से बीच-बीच में थोड़ी बहुत तबाही का मंज़र भी देखने को मिल जाता है मगर हालात सुधर जाते हैं।
लेकिन तभी नदी में अचानक कुछेक शार्क मछलियों का प्रवेश हो जाता है। आप समझ सकते हैं, आगे क्या सीन होगा? ज़ाहिर है, नदी में मछलियों के लिए जो भी संसाधन हैं, उन्हें शार्क मछलियां हड़पना शुरू कर देंगी। मछलियां उनका शिकार होने लगेंगी या सफोकेशन के मारे खुद ही अपनी मौत मरने लगेंगी।
मछलियों को बचाने के लिए ऊपरी तौर पर चाहे इफरात इमदाद क्यों न दी जाएं, उससे हर हाल में शार्कों को ही मुटाने का इकतरफा मौका मिल जायेगा। इस मुकाम पर यदि कोई पूछे कि मछलियों और बहुत हद तक नदी को भी बचाने की क्या सूरत हो सकती है तो मैं समझता हूं कि यह कोई उलटी खोपड़ी वाला ही तजवीज़ देगा कि मछलियों को बचाने के उपायों को अब शार्कों के ज़रिये ही लागू किये जायें।
इस काल्पनिक नज़ारे पर आप हंसे या फिर माथा ही क्यों ना धुनें मगर तथ्यों के आधार पर यदि आज की भयावह किसानी संकट पर नज़र डालें तो शर्तिया तौर पर आप 100% इसी मंज़र को अपनी आंखों के सामने लहराते पायेंगे।
वैसे तो किसानों के संकट के बारे में कहा जाये तो इसे मान लेने में कोई हर्ज़ नहीं है कि उनके साथ यह संकट तभी से गर्भनाल-सा जुड़ गया है जबसे बजाप्ता जीविका के साधन के तौर उन्होंने खेती को अपने हाथों में लिया। किसानी पेशा पूरी तरह से मौसम के मिजाज़ पर आधारित रहा है और मौसम का क्या, आप हज़ार साल के उसके मिजाज़ के इतिहास को देखें तो पायेंगे कि उसमें कभी भी लंबे समय तक एकसार होने का सबूत नहीं मिलता।
आज मौसम यदि खेती के लिए माकूल है तो गारंटी के साथ यह कहने का साहस कोई नहीं कर सकता कि अगली फसल के तैयार होने तक उसके मिजाज़ में एकदम से U-Turn ना हो जाये? इसलिए, यह अजूबा नहीं है कि प्रकृति और धरती को लेकर किसानों के मन में जितनी आस्था, अंधविश्वास, लोकोक्तियां और समर्पण कूट-कूट कर भरे होते हैं उतने और किसी मानव-समुदाय में शायद ही देखने को मिले।
मगर, इस निहायत उबड़-खाबड़ रिश्ते के बावजूद किसानों के बीच खेती छोड़ने, अपनी जान दे देने या शासन/प्रशासन के आगे कर्ज़ माफी की भीख मांगने जैसी अतिवादी प्रवृत्तियों का चलन शायद ही देखने को मिला हो। वे हर आपदा से निबटने का माद्दा कमोबेश खुद में पैदा कर लेने का रास्ता निकाल लेना जान गये थे। औपनिवेशिक काल के महा अकाल की बात को छोड़िये, उसे तो बोया ही था ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने समझ बूझ कर।
यह तो साल 1991 में भारत की तत्कालीन केंद्रीय सत्ता द्वारा अपनायी और उसके बाद से अबाध गति से चलायी गयी बाज़ार आधारित नयी आर्थिक नीति रही है जिसने पूरी भारतीय अर्थव्यवस्था को अपनी दुर्दांत चपेट में लेकर बिल्कुल एक अलग तरह की परिस्थिति तैयार कर दी।
मगर, इसने पहले से संकटग्रस्त कृषि को सबसे अधिक चोट पहुंचायी। क्रूर मुनाफा और मनुष्य की पीड़ा पर पलने वाली बाज़ार व्यवस्था को जल, ज़मीन, जंगल और प्राकृतिक संसाधनों को अपनी अकूत लूट का शिकार बनाते देर ना लगी। और, जैसा कि मैंने कहा, नदी में शार्कों के प्रवेश की तर्ज़ पर कृषि में उससे भी अधिक तेज़ी से संसाधनों को निगलने वाली बर्बर देशी-विदेशी कंपनियों को प्रवेश दिला दिया गया।
यदि मैं सत्ता पोषित इस कृषि-संकट की प्रमाणिकता के लिए प्रख्यात पत्रकार तथा कृषि विशेषज्ञ पी साईनाथ के शब्दों का सहारा लूं तो उसका सार होगा, “यह कृषि संकट 1991 में लागू हुई नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की वजह से आया है। इन नीतियों ने खेती से किसान का नियंत्रण छीन कर कॉरपोरेट के हाथ में दे दिया है। आज खाद, बीज और कीटनाशक, सभी कॉरपरेट जगत के हाथ में हैं। अभी पानी पर भी उन्हीं का कब्ज़ा हो रहा है। महाराष्ट्र में कई जगह निजी वितरक पानी बेच रहे हैं। अभी किसानों के पास सिर्फ थोड़ी ज़मीन बची हुई है और उनकी मेहनत। यह सब अचानक से नहीं हुआ बल्कि हमारी आर्थिक नीतियों की वजह से हुआ है।
देखिए, 1990 से पहले किसानों की कर्ज़ माफी जैसी कोई डिमांड नहीं होती थी। हमारी क्रेडिट पॉलिसी ऐसी है कि जो कर्ज़ बैंक किसान को दे रहा था अब वह कर्ज़ कॉरपोरेट्स को दे रहा है। हमारी नई आर्थिक नीतियों की वजह से किसानों की उपज लागत चार से पांच गुना बढ़ गई है और उनकी आय मैं दोगुनी बढ़ोतरी भी नहीं हुई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि कॉरपोरेट जगत खेती-किसानी को अगवा कर रहा है।”
पी साईनाथ ने जब प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को राफेल घोटाले से भी बड़ा घोटाला बता कर मोदी सरकार की किसान विरोधी नग्नता को उजागर किया तो यह नदी में शार्कों के प्रवेश के उसी भयवाह दृश्य की ओर इशारा है। फसल बीमा योजना के पीछे इरादा तो मौसम की मार से किसानों को डूबने से बचाने का था।
मगर, मोदी सरकार ने इस योजना के कार्यान्वयन में मुनाफाखोर बड़ी कंपनियों को उतार कर किसानों को उल्टे एक और नयी गुलामी में जोत दिया। जल, जंगल, ज़मीन की अंधाधुंध लूट में पहले से ही शामिल कंपनियों ने इस योजना के तहत किसानों के हिस्से की नगदी की कैसी भयावह लूट मचा रखी है, इसे जानकर किसी की भी आंखें फटी की फटी रह जा सकती हैं।
रिलायंस कंपनी का मामला लीजिए। इसने पूरे महाराष्ट्र के मात्र एक तालुका से किसानों से प्रीमियम के 173 करोड़ ₹ वसूले। मुआवज़ा बांटा बमुश्किल 30 करोड़ ₹। मुनाफा कमाया 143 करोड़। अब आप इस योजना के तहत पूरे देश में कंपनियों की लूट की मात्रा का हिसाब लगा सकते हैं।
आंखें खोल देने वाला एक और उदाहरण लें। इस देश में किसानों के बैंक कर्ज़ माफी के सवाल पर बड़ा शोर शराबा मचाया जाता है कि इससे तो बैंकों का दिवाला ही निकल जायेगा। मगर, हकीकत क्या है? बैंकों से कर्ज़ लेकर नहीं लौटाने वालों में जहां देश के 70 फीसदी कॉरपोरेट घराने हैं तो किसान महज़ 1% हैं। मगर, आत्महत्या किसान ही करते हैं। इतना ही नहीं, किसानों को जहां 20 से 36% ब्याज़ दर पर कर्ज़ मिलता है वहीं टाटा को नैनो के लिए महज 1% ब्याज़ दर पर ऋण मिल गया।
यह प्रवृत्ति क्या ठीक इस बात का द्योतक नहीं है कि भारत का शासक वर्ग कृषि और किसानों के हित के बीच लुटेरे कॉरपोरेट घरानों को उतार कर नदी में खूनी शार्कों की मौजूदगी वाला एक बेहद वीभत्स रूपक रच चुका है? और, जब शासक वर्ग की सहमति से यह सब हो रहा है तो किसानों की राहत के नाम पर स्वभाविक तौर पर शार्कों को खुराक देने की नैतिक ज़िम्मेदारी शासकों के कंधे पर आ ही जाती है।
किसानों के नाम पर आज ढेरों योजनाएं चलायी जा रही हैं, तब भी किसानों की आत्महत्या बदस्तूर जारी है तो यह निश्चित रूप से इस बात का खुला ऐलान है कि सारी की सारी सरकारी इमदाद शार्कों के जबरें में घुसी चली जा रही हैं।
ऐसे में किसानों की कर्ज़ माफी की मांग को शत प्रतिशत मान भी ली जाये तो होगा क्या? बहुत होगा तो किसान थोड़ी देर के लिए चैन की सांस ले लें। मगर, ये शार्क चुप थोड़े ही बैठे रहेंगे। वे कल से फिर से किसानों का और तेज़ी से शिकार करने का कोई ना कोई रास्ता ढूंढ लेंगे और इसमें उन्हें प्राप्त होगा उनकी प्रबल पक्षपोषक सरकार का प्रच्छन्न/प्रत्यक्ष सहयोग। स्थायी राहत या समाधान का एकमात्र रास्ता नदी से शार्कों को बेरहमी से निकाल बाहर कर देना है, इस बात को एक कमअक्ल आदमी भी आसानी से समझ सकता है।
इसलिए, इस बार लाखों किसानों ने जब संसद घेरने के मंसूबे से दिल्ली मार्च किया और संसद के 21 दिनों के विशेष सत्र बुलाने की अपनी सबसे प्रमुख मांग रखी तो इसे कृषि क्षेत्र में जबरिया घुसे शार्कों को बाहर निकाल फेंकने के उनके संकल्प के रूप में ही देखना चाहिये। उन्हें लगता है कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में अंतिम राहत के रूप में वे अभी भी संसद का सहारा ले सकते हैं। यह भारत के शासक वर्ग के लिए भी भारी राहत की बात है और साथ ही गंभीर चेतावनी भी कि अपने लाखों भाई बंधुओं की हृदयविदारक मृत्यु के बावजूद देश के पीड़ित किसान माओवादियों की तरह जंगल का रास्ता पकड़ने की नहीं सोच रहे हैं।
मगर, यह कब तक? पानी सिर के ऊपर से बह चुका है। शासक वर्ग के पास अब ज़्यादा समय नहीं बचा रह गया है। उसे बिना समय गंवाये यह तय करना है कि वह देश का पेट भरने वाले करोड़ों अन्नदाताओं के पक्ष में खड़ा है या मुट्ठीभर रक्तपिपासु पूंजीपतियों के पक्ष में?