2018 में बहुत सी घटनाएं हुईं जो देश दलित समुदाय के लिए अच्छी नहीं रहीं। 2-4 घटनाओं को समझते हुए हम देखेंगे कि यह साल दलित अधिकारों की संदर्भ में कैसा रहा।
भीमा कोरेगांव-
इस साल की शुरुआत में ही पुणे के नज़दीक भीमा कोरेगांव में दो जातीय गुटों में मतभेद के कारण विवाद हुआ। हिंसा भी काफी तेज़ी से बढ़ गयी। इस घटना के पीछे जिस लड़ाई का ज़िक्र किया जाता है वह क्या है?
इसके लिए हमें इतिहास में 200 साल पीछे जाना होगा। भीमा कोरेगांव में हुईं लड़ाई अंग्रेज़ों ने महारों के बल पर जीती थी। दरअसल, पेशवाओं ने दलितों पर अत्यंत अमानवीय अत्याचार किये थे, उनका हर तरह से शोषण किया जाता था। ऐसे में महारों को ब्रिटिश सेना में शामिल होने का मौका मिला। अंग्रेज़ चालाक थे और ब्रिटिश सेना में शामिल सवर्ण, शूद्रों से कोई संबंध नहीं रखते थे, इसलिये अलग से महार रेजिमेंट बनाई गई।
पेशवाओं के प्रति अपने अपमान का बदला लेने का यह मौका था महारों के पास। उन्होंने अपनी पूरी ताकत दिखाई और सिर्फ 500 महार सैनिकों ने बाजीराव द्वितीय के 28 हज़ार सैनिकों को धूल चटा दी।
बाद में अंग्रेज़ों ने वहां पर सैनिकों की याद में विजय स्तंभ का निर्माण किया। उसके बाद हर साल वहां पर लाखों अंबेडकर अनुयाई आते हैं। इस साल 200वीं सालगिरह मनाने के लिये बड़ी संख्या में वहां पर देश की कोने-कोने से दलित समुदाय के लोग आए थे।
यहां हुई हिंसा के बाद पुलिस ने कई लोगों पर केस दर्ज किया लेकिन जांच तेज़ी से आगे नहीं बढ़ पा रही है। राज्य की सरकार यह सुनिश्चित करें कि जांच तेज़ी से हो। हम आशा करते हैं नए साल में इसको लेकर कोई विवाद ना हो।
एट्रोसिटी एक्ट-
एक याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने इस कानून में कुछ बदलाव किये थे। यह मुद्दा भी काफी संवेदनशील था, इसपर देशभर में कई दलित संघठनों ने विरोध प्रदर्शन किया। जिसका असर हिंदी भाषी इलाकों में ज़्यादा दिखा।
हनुमान जी को दलित बताया गया-
हाल ही में हुए पांच राज्यों के चुनाव प्रचार में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हनुमान जी की जाति दलित बताकर विवाद खड़ा कर दिया। योगी जी का बयान शर्मनाक तो था लेकिन इस विषय में चुनाव आयोग ने कोई कदम नहीं उठाया जो कि आयोग के निष्पक्ष होने पर सवाल खड़ा करता है।
देशभर से दलित विरोधी खबरें सुनाई देती हैं। फिर वह मारपीट की हो या अन्य लेकिन मुख्यधारा की मीडिया में इन खबरों को बहुत कम या यूं कहें कि ना के बराबर जगह मिलती है। एक आध खबर होती है जो हेडलाइन बनती है। बीच-बीच में आरक्षण पर भी विवाद होते रहता है।
दलित राजनीति-
राजनीति के हिसाब से बीता हुआ साल ठीक-ठाक ही रहा। भीम आर्मी के चंद्रशेखर रावन की लोकप्रियता काफी हद तक बढ़ी है। भारीपा बहुजन महासंघ के नेता प्रकाश आंबेडकर ने असदुद्दीन ओवैसी के साथ गठबंधन किया, ऐसे में महाराष्ट्र की राजनीति में बदलाव नज़र आ सकता है। प्रकाश आंबेडकर राष्ट्रीय राजनीति में आने की चाह रखते हैं।
बहराइच से बीजेपी सांसद सावित्रीबाई फुले ने इस साल पार्टी के प्रायमरी मेंबरशिप से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि बीजेपी दलित विरोधी और मुस्लिम विरोधी पार्टी है। ऐसे में बीजेपी के लिए यह सोचने वाली बात है।
पांच राज्यों की चुनाव नतीजे कॉंग्रेस के लिए भले ही अच्छे रहे हो लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान में उन्हें मायावती का साथ लेना पड़ा। ऐसे में क्या मायावती 2019 के लिए कॉंग्रेस के साथ जाएंगी? यह सवाल दलित राजनीति की दिशा तय करने वाल होगा। यह भी एक बड़ी विडंबना है कि जिस रिपब्लिकन पार्टी को डॉ बाबा साहब अंबेडकर ने दलितों के अधिकार के लिए स्थापित किया था वह पार्टी छोटे-छोटे गुटों में बंट चुकी है।
दलित राजनीति करने वाले कुछ राजनेता सांप्रदायिक ताकतों के साथ सत्ता में भागीदार बन गए हैं। क्या वह राजनेता सच में अंबेडकर की विचारधारा को महत्व देते हैं? क्योंकि अंबेडकर ने अपने पूरे जीवन में सांप्रदायिक जातिवादी ताकतों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
हमें यह समझना होगा कि सामाजिक समता के बिना आर्थिक उन्नति का कोई महत्व नहीं है। यह बात बहुत दुखद है कि आज़ादी के 70 साल बाद भी देश में किसी समूह को अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ती है।