क्या ज़रूरी है कि कोई अवगुण, कभी गुण नहीं बन सकता? क्या जो शाश्वत है, सत्य भी है? क्या किसी चीज़ का होना ही उसका सच हो जाना है? ‘लालच’ सभी गुणों-अवगुणों में सबसे मानवीय है क्यूंकि जितना ये दिमाग में होता है उतना ही कर्म में फलीभूत होता है। विशेषकर, मनुष्य में ऐसा कोई गुण नहीं होता जो कथनी-करनी में इतना तालमेल पाता हो। कुछ ऐसी ही पृष्ठभूमि पर एक नायाब फिल्म आयी, तुम्बाड।
तुम्बाड देव, दानव और महामानव की कहानी है। लालच के सम्बल पर उत्तरोत्तर भेड़िये सी चढ़ती महत्वाकांक्षा की कहानी है। समय से डरे, विलासिता में सने, शापित पानी से भीगे चेहरों की कहानी है। कहानी के नायक ‘विनायक’ की सबसे बड़ी ताकत है उसका स्वभाव। अपनी कमियों और खूबियों से इस कदर वाकिफ नायक हिंदी सिनेमा में बहुत ही कम देखने को मिलते हैं। जो दृढ़ता आपको मुख्य पात्र विनायक में देखने को मिलती है उस से आपको बरबस ही सत्यजीत रे की ‘नायक’ फिल्म के उत्तम कुमार याद आ जाते हैं।
कहते हैं जो अपने आप को जान गया वो ब्रह्माण्ड को जान गया। उसके सामने क्या देव, क्या दानव, वो इन सब को काबू में कर महा मानव बन जाता है। विनायक का लालच सिर्फ उसे पैरों पर ही खड़ा नहीं करता बल्कि ज़मीन से भी ऊपर उठा देता है, एक ऐसी ऊंचाई पर पहुंचा देता है जिसे पाने के लिए देवता भी तरसते हैं।
यूं तो इस साल बहुत फिल्मों ने दर्शकों का दिल जीता। एक ओर जहां अंधाधुन जैसी फिल्म ने बॉलीवुड में थ्रिलर्स को नए सिरे से परिभाषित किया, वहीं दूसरी ओर स्त्री जैसी फिल्म ने समाज के गंभीर मुद्दों को कॉमेडी और हॉरर की पृष्ठभूमि पर लाकर जमकर तारीफ बटोरी। इन बेहतरीन फिल्मों के बीच आने वाले दशकों में अगर कोई मुड़कर पीछे देखेगा तो वो फिल्म तुम्बाड ही होगी जिसके द्वारा 21वीं सदी के दूसरे दशक को परिभाषित किया जायेगा।
गंभीरता से लिखी गई और पूरी मेहनत से फिल्माई गई इस दन्त कथा को आने वाले समय में कहानी, अभिनय से लेकर हर उस सिनेमा की विधा के लिए याद किया जायेगा जिसने तुम्बाड की दुनिया को बनाया।
तुम्बाड इस दशक की अति महत्वपूर्ण फिल्म है। सोहम शाह को इस प्रोजेक्ट में विश्वास दिखाने के लिए धन्यवाद और भविष्य के लिए शुभकामनाएं।