हमारे देश में जाति के आधार पर भेदभाव की बातें अब रिवायत सी बन गई हैं जहां सवर्णों द्वारा दलितों पर शोषण की खबरें अब आम बात है। इसकी बानगी अलग-अलग घटनाओं से समझी जा सकती है। दलितों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकना, उन्हें अलग गंदी सी कप में चाय देना या फिर उनकी आवाज़ को दबाना जैसे कल्चर का हिस्सा बन गया है।
ऐसे में हमें सोचना होगा कि क्या वाकई में भारत के संविधान में दिए अधिकारों को हम जनता तक पहुंचा पा रहे हैं? अगर हां, फिर अलग-अलग घटनाएं क्यों सामने आ रही हैं? मौजूदा वक्त में जनता को जाति के आधार पर बांट कर उनके अधिकारों की बात करना समय की मांग हो गई है।
भारत के संविधान में सभी को समानता का अधिकार देने के साथ-साथ जीने और सम्मान से जीने का हक प्राप्त है। भारत का संविधान समाज के निचले और पिछड़े वर्गों के लिए अलग से अधिकारों को देने की बात करता है क्योंकि इतिहास और वर्तमान यह बताता है कि ऊंचे वर्गों पर बैठा समाज हमेशा से निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति के साथ हिंसा और दुर्व्यहवार करता आया है।
इसी साल राजस्थान में एक दलित युवक पर ऊंची जाति के लोगों ने केवल इसलिए हमला किया क्योकिं दलित का घोड़े पर चढ़ना उनको पसंद नहीं आया। गुजरात से लेकर राजस्थान और मध्यप्रदेश से लेकर उत्तर प्रदेश तक दलितों पर हो रही हिंसा की खबरों ने अखबारों के पन्नों और न्यूज़ चैनलों पर काफी सुर्खियां बटोरी जिससे इस बात का अंदेशा होता है कि दलितों पर हो रही हिंसा में बढ़ोतरी हुई है।
गौरतलब है कि महाराष्ट्र के पुणे के नज़दीक 1 जनवरी 2018 को भीमा कोरेगाँव युद्ध के 200 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान दो गुटों के बीच झड़प में एक युवक की मौत हो गई थी और चार लोग घायल हुए थे। इस हिंसा में एक युवक की मौत हो जाने के बाद महाराष्ट के 18 ज़िलों तक इसकी आंच फैल गई। कई जगहों पर दुकानों और गाड़ियों को आग के हवाले कर दिया गया।
दलितों पर होने वाले अत्याचार से इतर साल 2018 को सुप्रीम कोर्ट के दिए गए फैसले के कारण भी जाना जाएगा जहां कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निरोधक) अधिनियम, 1989 में अपना एक फैसला सुनाया जिसके बाद अलग-अलग जगहों पर हिंसक आंदोलन हुए जिनमें कई लोगों को जान तक गंवानी पड़ी।
किसी भी तरह की हिंसा के विरोध में लाए गए इस अधिनियम के अनुसार किसी भी व्यक्ति द्वारा केवल आरोप लगाने भर से उस व्यक्ति की गिरफ्तारी का प्रावधान था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि 2015 में 15% से ज़्यादा दायर किए गए मुकदमें झूठे पाए गए है इसलिए गिरफ्तारी से पहले जांच ज़रूरी है।
इस फैसले का प्रचार इस तरह किया गया जैसे एससी-एसटी एक्ट को ही समाप्त किया गया हो और लगातार हो रहे हिंसक प्रदर्शन और चुनावी मुद्दा होने की वजह से सरकार को इस अधिनियम पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लाए गए बदलाव को निरस्त करना पड़ा। इस बात को समझना होगा कि इस मुद्दें को केवल जाति के आधार पर देखने के बजाए दलितों पर हो रही हिंसा को कैसे कम किया जाए उस पर ध्यान देना ज़रूरी है।
आकड़े सबूत पेश कर रहे हैं कि अधिनियम होने के बावजूद भी दलितों पर हो रही हिंसा कम होने का नाम नहीं ले रही है। साल 2018 दलितों को चुनाव में किस तरह प्रयोग किया जाता है उसका भी नमूना बना जहां गुजरात में दलितों के नाम पर खुलकर राजनीति की गई।
वही मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी दलितों और एससी/एसटी अधिनियम के नाम पर राजनीति की गई। कुल मिलाकर देखा जाए तो हिंसा, मौत और सड़क किनारे बांध कर मारने-पीटने जैसे तमाम घटनाएं देखने को मिली जिसने एक बात साफ कर दिया कि भले ही हम कानूनों और अधिकारों की बात करें लेकिन सामाजिक बदलाव अभी कोसों दूर है।