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“क्या 6 दिसंबर 1992 की घटना को दोहराना चाहती थी बुलंदशहर की भीड़?”

बुलंदशहर की भीड़

बुलंदशहर की भीड़

बुलंदशहर से लगभग 40 किमी दूर स्याना गाँव है, जहां तथाकथित गौकशी की घटना घटती है और और एक जांबाज़ इंस्पेक्टर शहीद हो जाते हैं। यह भी कितनी अजीब बात है कि इन्होंने ही दादरी के अखलाख कांड की प्रारंभिक जांच की थी। जो अधिकारी भीड़ की हिंसा की जांच कर रहा था, भीड़ ने उसे ही मौत के घाट उतार दिया।

इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की पत्नी का कहना है कि उन्हें जान से मारने की धमकियां दी जाती थीं। शहीद हुए इंस्पेक्टर के बेटे ने बहुत बड़ी बात कही कि मेरे पिता ने हिंदू-मुस्लिम के नाम पर अपनी जान गंवा दी, अब कल किसके पिता अपनी जान गंवाएंगे?

यह सामान्य बात नहीं है कि सब कुछ सही हो जाने और एफआईआर लिखे जाने के बाद भी हिंसक भीड़ अचानक उग्र कैसे हो गई? भीड़ के पास अचानक लाठी, डंडे, पत्थर, तलवार और यहां तक कि बंदूक जैसे खतरनाक हथियार कैसे आ गए? भीड़ ने आखिर आचानक माहौल कैसे खराब कर दिया?

अगर पुलिस के खिलाफ प्रदर्शन करना था तब बंदूक, लाठी और तलवार की क्या ज़रूरत थी? हमें समझना होगा कि चौकी को आग के हवाले कर देना, पत्थर मारना या गोली चलाने जैसी स्थिति बनी थी या फिर बनाई गई थी। एक इंस्पेक्टर को गोली मार देना और जिस वाहन से वो अस्पताल जाने लगे उस पर हमला करके उन्हें जान से मार देना, क्या यह सब सिर्फ संयोग है?

इस घटना के बाद जो वीडियो सामने आया है उसमें लोग यह कहते दिख रहे हैं कि यह तो वही पुलिस वाला है जिसने अखलाक मामले की जांच की थी। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि इंस्पेक्टर सुबोध सिंह को गुंडाराज में कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी दिखाने की सज़ा मिली।

केस के कुछ तथ्य

सबसे बड़ी बात कि बुलंदशहर में मुसलमानों का एक इज्तिमा हो रहा था जिसमें लाखों की भीड़ जुटी थी। वो जगह स्याना गाँव से लगभग 40 किमी दूर है और 3 दिसंबर को इज्तिमा की दुआ थी। यानि आयोजन खत्म हो रहा था और सबसे ज़्यादा भीड़ भी उसी दिन थी। लोग उस इज्तिमा से वापस लोट रहे थे और दंगाईयों ने जिस सड़क को बंद कर रखा था, वही सड़क इज्तिमा वाले लोगों को वापस घर लौटने का रास्ता भी था।

कहीं भीड़ किसी साज़िश के तहत तो इकठ्ठा नहीं की गई थी या भीड़ को पता था कि बुलंदशहर इज्तिमा से लौटने वाले लोग इसी रास्ते से जाएंगे? अगर ऐसा सच में है तब हालात बेहद खराब हो सकते थे क्योंकि तीन दिन बाद ही 6 दिसंबर था। भीड़ यदि अधिक भड़काऊं होती तब पूरे देश में आग लग सकती थी। जो सवाल मैंने खड़े किए हैं उनसे संदेह गहरा जाता है कि हिंसा हुई थी या हिंसा को अंजाम दिया गया था।

अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की बात करते हैं जिन्होंने सीएम आवास पर उच्च स्तरीय बैठक बुलाई और यह आदेश दिया कि गोकशी करने वालों के विरोद्ध कड़ी से कड़ी कार्रवाई हो। सबसे अजीब बात यह हुई कि इंस्पेक्टर के बारे में कुछ नहीं कहा गया और कहेंगे भी क्यों? वो इंसानों के मुख्यमंत्री थोड़े ही हैं।

आखिर कब तक हम इसी देश के लोगों को भीड़ के सामने अपनी जान की भीख मांगते हुए देखेंगे? कब तक सुबोध सिंह जैसे जांबाज़ ऑफिसर को हम शहीद होते देखेंगे? याद रखिए भीड़ को सिर्फ हिंसा और आतंक फैलाने से मतलब है। यह भीड़ सत्ता का संरक्षण पाते ही अधिक उग्र हो जाती है।

ऐसे में ज़रूरी है कि खुद का नंबर आने का इंतज़ार ना करें और इसके खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करना शुरू करें। यदि हमनें ऐसा नहीं किया तब क्या पता आने वाले वक्त में यह भीड़ किसको मौत की नींद सुला दे।

Image Source: Youth Ki Awaaz

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