17वीं सदी के मध्य में जब अंग्रेज़ एशिया के दक्षिण भाग में अपनी सियासत की नींव रख रहा था तब ज़मीन का यह हिस्सा कई सियासतों और राज घरानों में बटा हुआ था। मुगल, मराठा और सिख इत्यादि विरासतें यहां मौजूद थीं। इसे हम अंग्रेज़ों की चतुराई ही कह सकते हैं कि धीरे-धीरे उन्होंने हर तरह की राजनीति अपनाकर दक्षिण एशिया के इस बहुतायत हिस्से को अपनी सियासत में शामिल कर लिया था।
जहां युद्ध हुआ था वहां अंग्रेज़ों की सेना में अंग्रेज़ कम और इस ज़मीन के हिस्से के लोग बहुत ज़्यादा थे। यह वे लोग थे जिन्हें जात-पात के नाम पर अछूत समझकर सदियों से दबाया जाता था। पीने के पानी से लेकर स्वास्थ्य सेवाओं तक उन्हें वंचित रखा जाता था। सीधे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इनसे मानवीय अधिकार पूरी तरह से छीन लिए गए थे।
जब यह समाज अंग्रेज़ों के साथ जुड़ गया तब अंग्रेज़ों ने ना सिर्फ इन्हें अपनाया बल्कि इसी ज़मीन के अन्य समाज के साथ बराबरी का दर्जा देकर इन्हें खुद की सेना में शामिल किया। हम हमेशा यह कहते हैं कि अंग्रेज़ों ने हमें गुलाम बनाया लेकिन असलियत यह है कि जात-पात और छुआछूत जैसी चीज़ों के खात्में के लिए अंग्रेज़ों का आना बहुत बड़ा कारण बना।
मेरा यह व्यक्तिगत मानना है कि ब्राह्मणवाद ओर मनुवाद विचारधारा को समाज पर थोपना ही समाज को गुलाम बना रहा था और इसी वजह से अंग्रेज़ों का हमारे समाज में आना एक हकीकत बना। समाज के पिछड़े वर्गों को अंग्रेज़ों के रूप में कुछ मानवीय अधिकार मिलने शुरू हुए।
खैर, मेरे कहने का यह तातपर्य है कि 17वीं सदी के मध्य में देश की कोई रूप रेखा नहीं थी। साल 1857 के आंदोलन के बाद जहां अंग्रेज़ सरकार में ही काबिज़ हिंदू उच्च जाति के लोगों ने आज़ादी का नारा लगाया। मैं बताना चाहूंगा कि 1857 का आंदोलन उत्तर भारत के हिंदी भाषित प्रदेशों जैसे मेरठ, दिल्ली, लखनऊ, कानपुर और आगरा तक फैला था। इन इलाकों में ब्राह्मणवाद विचारधारा हमेशा से अपने चरम पर रही है।
अंग्रेज़ सरकार की इस अंदरूनी लड़ाई में कई सियासतें और राज घराने भी जुड़ गए। ऐसे में अंग्रेज़ों के लिए इस आंदोलन को दबाना काफी मुश्किल हो गया। धीरे-धीरे ब्राह्मण, क्षत्रिय और सारे उच्च समाज के लोगों को गुलामी का एहसास होने लगा और फिर भारत देश का नारा गली-गली में गूंजने लगा।
वास्तव में अगर हम ध्यान देंगे तब मालूम होगा कि अंग्रेज़ भारत में 15वीं सदी से ही मौजूद थे और इन्होंने 150 सालों तक खुद को सिर्फ व्यापार में ही सीमित रखा। 17वीं सदी के मध्य में अंग्रेज़ों ने जहां सत्ता पर काबिज़ होने में सफलता हासिल की, वही 18वीं सदी के आरम्भ में इन्होंने कुछ ऐसे फैसले लिए जो हिंदू धर्म की मान्यताओं को चुनोती दे रही थी।
विधवा विवाह और क्रिश्चियन मिशनरीज़ को भारत में लाया गया। धर्म परिवर्तन के ज़रिए ईसाई धर्म अपनाने वालों को उनके परिवार द्वारा जायदाद से बेदखली भी नहीं थी। जहां कर व्यवस्था का अधिकार ब्राह्मण समाज से वापस लिया जा रहा था, वही इंग्लिश शिक्षा प्रणाली के भारत में लाए जाने से हिंदू और मुस्लिम दोनों ही शिक्षा प्रणाली को नुकसान हो रहा था। इस दौरान ज़्यादा परेशानी हिन्दू शिक्षा प्रणाली को होने लगी जब शिक्षा का अधिकार सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण और उच्च जाति के लोगों तक ही सीमित था।
मसलन, इंग्लिश शिक्षा प्रणाली के आने से भारत में दलितों और जात-पात से शोषित निम्न समाज के लोगों को भी शिक्षा का अधिकार मिल रहा था। इन चीज़ों को ब्राह्मण और उच्च समाज के बर्चस्व से बचा कर रखने की चुनौती थी और यह भी एक कारण रहा जिसने 1857 के विद्रोह में चिंगारी का काम किया। वैसे मुख्य कारण तो यह बताया जाता है कि अंग्रेज़ सरकार ने बंदूक के कारतूस में गाय और सुअर की चर्बी लगा रखी थी, जिसे मुंह से तोड़ना होता था।
आस्था के लिहाज से हिन्दुओं और मुसलमानों का मसला अंग्रेज़ सिपाहियों में विद्रोह का काम कर गया। मसलन, सिपाहियों का विद्रोह आस्था से जुड़ा हुआ था, वही राजा महाराजा अपने राज्य और सियासत को आज़ाद करवाने के लिए लड़ रहे थे। इस विद्रोह की शुरुआत भी ब्राह्मण समाज के नागरिक मंगल पांडे द्वारा हुई थी।
1857 की बगावत को जहां अंग्रेज़ी हुकूमत दबाने में कामयाब रही, वही अलग-अलग शहरों और प्रांतों के बीच एक संवाद का रिश्ता कायम हो गया। मेरा व्यक्तिगत मानना है कि समाज के उस उच्च जाति के तबकों को इस बात का एहसास हो गया था कि अब सारी सल्तनतों ओर राज घरानों को मिलाकर किसी एक प्रांत की नींव रखी जा सकती है, शायद यही से ‘देश’ शब्द की मानसिकता का विकास हुआ और इसकी आज़ादी की भी हवा बहने लगी।
19वीं सदी के आते-आते ‘देश’ शब्द इतना तीव्र और उग्र हो गया था कि क्या हिन्दू, मुस्लिम और क्या सिख, इस ‘देश’ शब्द और इसकी आज़ादी के लिए आवाज़ें बुलंद होनी शुरू हुई। कोई हिंसात्मक या तो कोई अहिंसात्मक तरीके से आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने लगा।
यह ‘देश’ शब्द इतना भावनात्मक हो चुका था कि लोग फांसी तक चढ़ने के लिए तैयार थे। साल 1947 का आगाज़ होते ही ज़मीनी तौर पर देश का विभाजन हुआ। धीरे-धीरे देश में एक बड़ा तबका धर्म की राजनीति से प्रभावित होने लगा। इसी के अंतर्गत जहां राम जन्मभूमि आंदोलन से लोग आस्था के नाम पर जुड़ रहे थे, वही धारावाहिक रामायण और महाभारत ने हिंदू आस्था को नए शिखर तक पंहुचाने का काम किया।
इसी भावनात्मक शब्द ‘देश’ को और भी बेहतर तरीके से उजागर करने के लिए भाजपा ने 11 दिसंबर 1991 को कन्याकुमारी से एकता यात्रा निकली। वह दिन इसलिए चुना गया था क्योंकि उसी रोज़ तमिल कवि सुब्रह्मण्यम भारती की जन्म सालगिरह थी। इसके अलावा उस दौरान सिख समुदाय के नौवें गुरु ‘गुरु तेग बहादुर’ का शहीदी दिवस भी आने वाला था।
गुरु तेग बहादुर ने कश्मीर के पंडितो की धार्मिक चिन्हों और इनके जबरन धर्म परिवर्तन को रोकने के लिये दिल्ली में मुगल शासन के दौरान शहीदी प्राप्त की थी। दिल्ली में आज उसी जगह पर गुरुद्वारा शीशगंज साहिब सुशोभित है। यहां एक और तथ्य रखने की ज़रूरत है कि कश्मीरी पंडित एक कमज़ोर वर्ग था जिसकी मदद के लिये गुरु तेग बहादुर आगे आए थे। वही अगर किसी अन्य शोषित या कमज़ोर वर्गों की बात होती तब भी गुरु तेग बहादुर यही करते जो उन्होंने कश्मीरी पंडितों की धर्म रक्षा के लिये किया था।
1947 के पहले अंग्रेज़ों से आज़ादी पाने के लिए ‘देश’ शब्द को बार-बार पुकारा जाता था। 1947 में हिन्दुस्तान को आज़ादी मिलने के बाद खासतौर पर कुछ मुद्दों को उछाला गया। कश्मीर का मुद्दा सबसे श्रेष्ठतम श्रेणी में रखा गया। उस दौरान सन् 1991 में कश्मीर में चरमपंथी अपनी हथियार बंद लड़ाई को लेकर बहुत उग्र थे।
आलम यह हुआ कि कश्मीरी पंडितो को जबरन घाटी छोड़ना पड़ गया। चरमपंथियों द्वारा 19 जनवरी 1990 की रात लाउड स्पीकर लगाकर कश्मीरी पंडितों को धमकाते हुए और उन्हें कश्मीर छोड़ने के लिये मजबूर किया गया। सन् 1990 में केन्द्र में वीपी सिंह की सरकार थी जिन्हें भाजपा का समर्थन प्राप्त था।
उस समय भाजपा ने पंडितो के पलायन को रोकने के लिये क्या किया इसकी व्यक्तिगत जानकारी तो कुछ विशेष नहीं है लेकिन इसके पश्चात हमेशा कश्मीर और कश्मीरी पंडितों का पलायन भाजपा के लिये चुनावी मुद्दा बन गया।
भारत जहां हिन्दू बाहुल्य देश है वहीं कश्मीर एक मुस्लिम बाहुल्य राज्य है। ऐसे में भाजपा ने एकता यात्रा के ज़रिए हिन्दू-मुसलमान की दूरियों को बढ़ाकर सिर्फ हिन्दुत्व के नाम पर वोट बटोरने का काम किया। यह यात्रा 14 राज्यों से होकर 26 जनवरी 1992 के दिन कश्मीर के लाल चौक में तिरंगा फहराकर खत्म होने वाली थी।
यात्रा अपने सही समय पर जम्मू पहुच गई जंहा बीच में लोगों के बड़े हुजूम ने जगह-जगह इसका स्वागत किया। वही जम्मू से कश्मीर जाने के लिए काफी चुनौतियां भी थीं। भाजपा को लगा कि यदि वे सड़क मार्ग से जाएंगे तब कहीं चरमपंथी उनपर हमला ना कर दें। इस यात्रा के मुख्य प्रभारियों में से एक रहे नरेंद्र मोदी ने पत्रकारों को यह तक कह दिया कि आप लोग यहां से लाल चौक पहुंच जाएं, हम आपको वहीं मिलेंगे।
इस रथ यात्रा के मुख्य चेहरा उस समय के भाजपा प्रमुख मनोहर जोशी थे, जो अपने कुछ साथियों और फौज के साथ रवाना हो गए। अन्य भाजपा के कार्यकर्ता वहीं तक सीमित रह गए, जोशी को कश्मीर हवाई सफर से ले जाया गया जहां सुबह के अंधेरे में कुछ 100 से कम भाजपा के कार्यकर्ताओं के सामने नरेन्द्र मोदी भी मौजूद थे।
ध्वजारोहण की विधि मात्र 10 से 15 मिनट में पूरी कर दी गई जंहा कोई कश्मीरी नागरिक मौजूद नहीं था। मुस्लिम बाहुल्य राज्य के लाल चौक पर ध्वजारोहण करके भाजपा ने अपनी देश भक्ति के नाम पर मुहर लगा दी थी। अब राम जन्मभूमि आंदोलन और लाल चौक में ध्वजारोहण के ज़रिए भाजपा अपने सुनहरे राजनैतिक सफर की ओर बढ़ रही थी।
आलम यह हुआ कि साल 1996 के बाद 2004 तक तीन चुनावों में भाजपा की झोली में सबसे ज़्यादा सांसद आए लेकिन मेरा यह व्यक्तिगत प्रश्न ज़रूर रहा है कि साल 1992 में लाल चौक पर तिरंगा फहराने के बजाए भाजपा ‘नागपुर’ के आरएसएस कार्यालय क्यों नहीं गई, जहां उस समय तिरंगा फहराया नहीं जाता था।