मार्च 1990 में जब वीपी सिंह की सरकार केंद्र में मौजूद थी तब 1984 के सिख कत्लेआम पर बनी समिति ‘जैन बेनर्जी कमिशन’ में मौजूद कानूनी उलझनों को दूर करने के लिए एक नई कमेटी ‘पोट्टी रोशा’ का गठन किया गया। इस कमेटी ने बाकी मामलो की छानबीन करते हुए 1984 के सिख कत्लेआम में गवाहों के बयान पर सज्जन कुमार के खिलाफ भी जांच आरंभ किया।
अगस्त 1990 में सीबीआई की एक टीम सज्जन कुमार के घर अपराध तय करने के लिए ज़रूर पहुंची लेकिन भीड़ द्वारा सीबीआई की टीम को ही सज्जन कुमार के घर घेर लिया गया। नतीजतन सीबीआई की टीम को खाली हाथ ही लौटना पड़ा।
1984 के सिख कत्लेआम की छानबीन के लिए करीब 11 समितियों का गठन किया गया और इनमें से ही एक है ‘नानावती कमिशन’ जिसे अटल बिहारी सरकार के कार्यकाल में सन् 2000 में गठित किया गया जहां 1984 के सर्वाइवर्स को बुलाया गया और हर गवाह की गवाही को सुना गया। 1984 के कत्लेआम से जुड़े कई वकील भी अपने गवाहों के साथ पेश हुए।
नानावती कमिशन की रिपोर्ट में ऐसे बहुत से गवाह थे जिन्होंने सज्जन कुमार के खिलाफ गवाही दी। गवाही कै दौरान सज्जन कुमार के संदर्भ में बताया गया कि इन्होंने भीड़ को उकसाया, भीड़ को नियंत्रित किया, ट्रक भर कर भीड़ को लाने में मदद की और सज्जन कुमार को यह तक कहते हुए सुना गया कि सरदार साला कोई बचना नहीं चहिंदा।
नतीजतन, नानावती कमिशन, जिसकी रिपोर्ट 2005 में संसद में पेश की गई उसमें सज्जन कुमार के खिलाफ पुख्ता सबूत होने की हामी भरी ओर सज्जन कुमार के खिलाफ आपराधिक मामलों के केस फिर से खोलने की मांग की गई। उस दौरान संसद में सज्जन कुमार खुद बतौर लोकसभा सदस्य मौजूद थे। उनके पास पास Z+ सिक्योरिटी थी जहां 60 से ज़्यादा सुरक्षाकर्मी सज्जन कुमार की हिफाज़त में दिन रात मौजूद रहते थे।
साल 2010 में ट्रायल कोर्ट के आदेश के बावजूद सीबीआई सज्जन कुमार को गिरफ़्तार करके पेश करने में नाकामयाब रही। यहां सीबीआई का कहना था कि वह सज्जन कुमार के बारे में जानकारी एकत्रित नहीं कर पाई। शायद यह सरकारी व्यवस्था का मज़ाक ही था अथवा यह कहा जा सकता है कि संविधान लागू करवाने में हमारी न्यायपालिका ओर सरकारी व्यवस्था में आपसी तालमेल की बहुत कमी थी, क्योंकि इसी समय सज्जन कुमार को Z+ सिक्योरिटी उपलब्ध थी जहां वह अक्सर दिल्ली पुलिस के सुरक्षाकर्मियों के साथ ही मौजूद रहते थे।
जगदीश कौर की गवाही के आधार पर ही 1984 दंगों के दोषी सज्जन कुमार को सज़ा हुई है। जगदीश कौर के सामने उनके पति को मारा गया और नौजवान बेट को गली में आग लगा कर सिसकने के लिए छोड़ दिया गया। जगदीश कौर के बाकी बच्चों को पड़ोसियों द्वारा बचा लिया गया।
अमूमन, यह कहा जाता है कि दिल्ली में यह कत्लेआम हिन्दुओं द्वारा हुए थे। यदि ऐसी बात है तब बचाने वाले पड़ोसी कौन थे? अगर सारा हिंदू समाज ही उठकर मारने के लिए दौड़ पड़ा होता तब नतीजतन एक भी सिख ज़िंदा नही होते। यह कत्लेआम सरकारी गुंडों के थे। सरकारी गुंडे इसलिए क्योंकि सराकरी पुलिस कुछ भी नहीं कर रही थी।
जगदीश कौर की तरह ना जाने इस सिख कत्लेआम में कितने सर्वाइवर्स होंगे और उनके अपनों की कितनी दर्दभरी चीखें दफन होंगी लेकिन मैं व्यक्तिगत रूप से यहां निरप्रीत कौर के बारे में बताना चाहता हूं जो 1984 के समय 16 साल की थी। इन्हीं कत्लेआम में इनके पिता को इनके ही जानने वाले मेहन्द्र यादव और बलवान खोकर स्कूटर पर बिठा कर ले गए, ताकि दंगाइयों से बात की जा सके कि हमने इंदिरा गाँधी की हत्या नही की है, लेकिन यादव ओर खोखर ने निरप्रीत के पिता को दंगाइयों को सौंप दिया जिनको आग लगाने के लिए एक पुलिस इसंपेक्टर ने माचिस की तिल्ली दी। निरप्रीत के सामने उसके पिता की हत्या कर दी गई। इसी दिन से ये आर्थिक सुखी परिवार ज़मीन पर आ गया।
कानून से कोई उम्मीद नहीं थी और ना ही कहीं से कोई इंसाफ मिल रहा था। जब पुलिस कर्मचारी खुद ही दंगाईयों को माचिस की तिल्ली दे रहे हों तब इंसाफ की कल्पना कैसे की जा सकती है? इसी वजह से निरप्रीत एक चरमपंथी गुट के संपर्क में आ गई जहां इनकी शादी इसी गुट के एक सदस्य से हो गई, जिसे पुलिस ने शादी से महज़ कुछ दिनों बाद उठा लिया, जिसका बाद में कोई पता नहीं चला।
निरप्रीत की माँ सम्प्रून कौर को पुलिस ने यह कहकर हिरासत में ले लिया कि वो उग्रवादियों को पनाह देती हैं। उन्हें 1986 में तीन साल की सज़ा हो गई, वही निरप्रीत भी कानून से ज़्यादा दूर नहीं रह पाई जिन्हें 1988 में पकड़ लिया गया और इन्हें भी कानून ने 8 साल 6 महीने की सज़ा के बाद 1996 में आज़ाद कर दिया।
निरप्रीत ‘सिख स्टूडेंट फेडरेशन’ से जुड़ने की बात स्वीकार करती हैं लेकिन अपनी माँ को वह बेगुनाह ही बताती हैं। 1984 के बाद पंजाब में 1993 तक पुलिस की कार्रवाई का खौफ आमतौर पर देखा जाता था। इनमें ज़्यादातर शक के आधार पर बनाए गये मुजरिम थे। पुलिस एनकाउंटर का खौफ पंजाब के काले दौर से ही पनपा है जिसे राष्ट्रवाद का ऐसा जामा पहनाया गया कि कभी भी इस पर सार्वजनिक मीडिया और राजनीति में बहस नही हुई।
अपनी सज़ा पूरी होने के बाद निरप्रीति सार्वजनिक जीवन में आईं लेकिन सज्जन कुमार को सज़ा दिलवाने के लिए इनको आमरण अंशन भी रखना पड़ा। अगर सिख कत्लेआम में पुलिस ज़रूरी संज्ञान लेती, हिंसा पर काबू पाती और देश के नागरिक सिख समाज के कत्लेआम को रोक पाती तो क्या निरप्रीत कभी उग्रवादी संगठन से जुड़ती?
शायद कभी नहीं, यहां जो लोग आंतकवादी, उग्रवादी के नाम से समाज में भय का वातावरण पैदा करते हैं उन्हे यह भी समझना चाहिए कि बहुताय आंतकवादी इसी देश की सरकारी व्यवस्था द्वारा किए गए अन्याय की उपज हैं, क्योंकि कानून और सरकार वोट तक ही सीमित है और नागरिक सुरक्षा के प्रति सरकार की कहीं कोई जवाबदेही दिखाई नहीं पड़ती।
आज जब जगदीश कौर 77 साल की हैं, निरप्रीत कौर 50 साल की है और 1984 के सिख कत्लेआम को 34 वर्ष हो चुके हैं तब 73 वर्षीय सज्जन कुमार को भारतीय न्याय पालिका ने उम्र कैद की सज़ा सुनाई है, जहां उन्हे कत्ल के केस से तो बरी कर दिया गया है लेकिन भीड़ को उकसाने ओर सिख कत्लेआम में निभाई गई उनकी भूमिका को अदालत ने अपराध माना है।
अगर अदालत के फैसले को हम समझे तो यह अपराध 34 साल पहले हुआ था लेकिन सज़ा आज दी गई है, मसलन इन 34 सालों में सज्जन कुमार जो कई बार सांसद चुना गया, Z+ सिक्योरिटी के तहत 60 से ज़्यादा पुलिस कर्मचारियों की निगरानी में रहा, इसका आज क्या मतलब निकाला जा सकता है?
क्या ऐसे में यह नहीं कहा जा सकता कि सारा सरकारी ताम-झाम एक अपराधी को बचाने में लगा था, खासकर जब लोगों ने चुनाव के माध्यम से सज्जन कुमार को चुन कर संसद भेजने में भी अपना मत उन्हें दी। इसे इस तरह कह सकते हैं कि सज्जन कुमार की विचारधारा को चुनाव के माध्यम से प्रमाणित किया गया जो बहुत ज़्यादा खतरनाक है लेकिन निरप्रीत कौर के गुनाहों की सज़ा उसे तत्कालीन मिल गई जिसका कानून द्वारा तुरंत पालन भी किया गया।
सज्जन कुमार और निरप्रीत कौर पर जिस तरह दोनों केस में पुलिस द्वारा पैरवी की गई है, वह हमारे देश में कानून को दो परिभाषाओं में परिभाषित करती है, पहला ताकत और दूसरा कमज़ोर लोकतंत्र। बराबर का अधिकार अभी ज़मीनी स्तर पर नहीं दिखाई दे रहा है। वही सज्जन कुमार को 34 साल बाद सज़ा सुनाए जाने से मैं एक सिख होने के तौर पर अब और डर गया हूं, क्योंकि सिख कत्लेआम में जहां हज़ारों सिख मारे गए, वहां कातिल भी हज़ारों की तादाद में होंगे।
सिर्फ सज्जन कुमार को 34 साल बाद सज़ा देकर अगर हम यह साबित कर रहे हैं कि 84 के हर कत्ल को न्याय मिल गया है, तब खासकर अब जब 1984 को 34 साल हो गए हैं, तब यह न्याय पर किया गया एक मज़ाक ही लगता है। मसलन, आज भी सिख कत्लेआम के कुछ अपराधियों को छोड़ कर बाकी सब आज़ाद घुम रहे हैं। अगर वास्तव में 1984 के तुरंत बाद दोषियों को सज़ा दी गई होती तो इसके मायने इंसाफ ज़रूर होता।