शाम के 7 बज रहे थे. ठंडी का वक्त था तो रात जल्दी हो गयी थी. छोटा शहर था तो गली में भीड़ उतनी नहीं होती है. जी ये छोटा शहर बिहार का पटना है जहाँ लोगों के दिल बड़े है. लेकिन वो कहते ह न कि अगर अपवाद ना हो तो अच्छे को अच्छा कैसे माने। हम रोज़ की तरह ऑफिस से घर जा रहे थे, वहीं गली, वहीँ दुकान, रोज़ का वहीं दिनचर्या। एक चीज़ और रोज़ की तरह हुई, गली की नुक्कड़ पर वहीं लड़का रोज़ की तरह मुझे घुरा।
अब आप ये सोच रहें होंगे की मैं बर्दाश्त कर क्यों रही. अगर आप समाज सोच रहे तो बिलकुल सही सोच रहे है. उस गली में हमे सब जानते है इसलिए कभी कुछ बोल नहीं पाए. चुप-चाप चले जाते थे. लेकिन उसके देखने से हम कभी बेपर्दा नहीं हुए और मजबूत बनते गए. लेकिन फिर एक दिन हम ये सोचे की वो तो रोज़ सीना चौड़ा कर नज़रे उठाकर मुझे स्कैन कर लेता है और हम गुनहगार की तरह नज़र झुका कर चले जाते हैं.
हम कमजोर नहीं है ये हम जानते है लेकिन अब समाज को दिखाना है कि हम कमजोर नहीं है. रोज़ की तरह दिन था, गली थी, दुकाने थी और वो भी था. लेकिन एक चीज़ नई हुई. आज हम चुप-चाप नहीं निकले आज सबने देखा की हम केवल खुद से नहीं बोलते की मजबूत है हम दिखा भी देते है.