“एक हमारी और एक उनकी मुल्क में है आवाजें दो, अब तुम पर है कौन सी तुम आवाज सुनो तुम क्या मानो” जावेद अख्तर की ये चंद पंक्ति आज हमें छात्र और युवाओं को कुछ सोचने पर मजबूर करती है कि आज हम कहां है और किन आवाज के साथ है नीचे दो तस्वीरें दिये गए है दोनों तस्वीर नौ दिसंबर की है। दोनों तस्वीरों को ध्यान से देखिए पहली तस्वीर दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग(एसओएल) छात्रों की है जो सरकार के गलत नीतियों के कारन यहां समस्या झेलने को मजबूर हैं ये छात्र अपनी बीस दिन की बहुमूल्य क्लास लेने की जद्दोजहद कर रहे है क्लास में जगह न होने के बावजूद ये छात्र खड़े होकर शिक्षक की बातों को सुनना चाहते हैं उनसे पढ़ना चाहते है क्योंकि इन्हें मालूम है कि अगर ये यहां नहीं पढ़ पाये तो इन्हें और कोई एक्सट्रा क्लास नहीं मिलने वाली है जो पढ़ना है इन्हीं बीस क्लास में ही पढ़ना है!
दूसरी तस्वीर रामलीला मैदान की है जहां धर्म की अफीम सुंघाये हुए उन युवाओं की भीड़ है जिन्हें लगता है कि देश में अब कॉलेजों की कोई जरूरत नहीं क्योंकि अगर कॉलेज मिल जायेंगे तो वे मंदिर और मस्जिद के राजनीति को समझ जायेंगे और ये खेल खत्म हो जायेगा, रोजगारों की भी कोई जरूरत नहीं क्योंकि अगर रोजगार मिल जायेंगे तो वो इन रैलियों में जाना बंद कर देगें, अच्छे स्कूलों की भी जरुरत नहीं क्योंकि अच्छे स्कूल मिल जायेंगे तो वो ये पहले ही इन राजनीति को समझ जायेंगे, इलाज के लिए अच्छे अस्पताल की जरूरत नहीं जरूरत है तो सिर्फ मंदिर की!
इसलिए ये आपको तय करना है कि आप कौन सी आवाज सुने और क्या माने चाहे आप किसी भी पार्टि और किसी भी वचारधारा के समर्थक हो, हमारे सामने दो आवाज है एक वे आवाज जो कह रहे हैं जाती धर्म से इंसान की पहचान गलत, नफरत का जो हुक्म दे वो फरमान गलत, सब भूलकर अमन-चैन की बात करो, भुख गरीबी बेरोजगारी पर बात करो। तो दूसरी तरफ वे आवाजें है जो चीख-चीख कर कह रही है कि सारे इंसान एक है ये एलान गलत, भुख-गरीबी बेरोजगारी की छोड़ों, भूले बिसरे मंदिर मस्जिद याद करो, खून खराबा होता है तो होने दो, इसलिए आपको तय करना है आप कौन सी आवाज सुने और क्या माने!