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आत्महत्या, विरोध, या विद्रोह?

जब इंसान के पास एक ही रास्ता हो और वो भी उसे मौत की तरफ लेके जाता हो तो इसे संकट कहते हैं. किसान भी इसी तरह के संकट से जूझ रहा हैं. आईये देखते हैं कैसे—- खेती करने में किसान की कुछ लागत लगती है जैसे- बीज, खाद, मशीनरी, उर्वरक, कीटनाशक, बिजली इत्यादि. इन सभी लागतों के लिए किसान बाजार पर निर्भर रहता है. इन सभी लागतों को बड़ी-बड़ी कम्पनिया बनाती हैं. इसीलिए इन लागतों की कीमतों पर भी उन्ही बड़ी-बड़ी कंपनियों का नियंत्रण होता है. चूँकि बड़ी-बड़ी कम्पनियों का एकमात्र मकसद मुनाफा कमाना होता है इसीलिए इन सभी लागतों की कीमत भी बहुत ऊँची होती है. मतलब बहुत महंगी होती है. इसीलिए किसान की फसल की लागत भी बहुत महंगी हो जाती है.

फिर भी किसान जुगत भिड़ा के, कर्ज लेके फसल लगा लेता है. फसल पक जाती है. कटने को तैयार हो जाती है. फसल काटी जाती है. अब फसल को बाजार में बेचने की बारी आती है. यहाँ पर देखने वाली बात ये है कि ये फसल बड़ी-बड़ी कंपनियों के लिए लागत का काम करती हैं. जैसे चिप्स बनने में लगत आई आलू की या फिर ब्रेड बनने में लगात आई  गेहूं की, इत्यादि . मतलब किसान द्वारा पैदा की गयी उपज इन बड़ी-बड़ी खुदरा व्यापार कंपनियों के लिए लागत का काम करती है. नियम के हिसाब से तो इन फसलों के मूल्य पर किसान का नियंत्रण होना चाहिए क्यूँकि ये उसने पैदा की है. लेकिन हम क्या देखते हैं की इस पर भी बड़ी-बड़ी कंपनियों का नियंत्रण है और वो बहुत ही कम, मनमाने दामों पर किसान से उसकी उपज और अपनी लागत को खरीदते हैं.
पर क्या यह संकट सभी किसानों का संकट कहा जा सकता है। क्योंकि कुछ किसानों के पास हजारों-हजार एकड़ जमीन होती है तो क्या उन पर भी ये संकट उसी तरह से कहर बरपाता है जैसे बाकी गरीब किसानों पर। नही, उन पर यह संकट है ही नही। देखिये कैसे? छोटे किसान की जीवन निर्वाह की लागत उसके द्वारा पैदा किये गए उत्पादन से कहीं ज्यादा होती है जिस कारण जीवन निर्वाह बहुत कठिन हो जाता है । जबकि ठीक इसके उलट बड़े फार्मर के पास इतनी ज्यादा जमीन होती है के उसका उत्पादन ही इतना ज्यादा हो जाता है जिससे उसके जीवन निर्वाह का कोई संकट नही होता। उदाहरण से देखते है।
मान लीजिय एक छोटा किसान है जिसके पास 5 बीघे जमीन है और एक बड़ा किसान है जिसके पास 5000 बीघा है।
5 बीघे जमीन से हुआ उत्पादन = 1 लाख रुपए
5000 बीघे जमीन से हुआ उत्पादन= 1लाख *1000= 1 अरब रुपए
ये आंकड़े मोटा-मोटी हमने माने है। असल आंकड़े और भी भयावह हो सकते हैं। पर इसके माध्यम से जो 1लाख ओर 1 अरब के बीच का फर्क नजर आता है उससे साफ साफ दोनो की जिंगदी का भी फर्क हम समझ सकते हैं । हमारे देश में 95 परसेंट किसानो की स्थिति 1 लाख वाले आंकड़े के लगभग बराबर है। जिसने उनके लिए कोई रास्ता नही छोड़ा हैं। जिनकी कहीं कोई सुनवाई नही है। विचार करिये, गरीब किसान की फसल की लागत महँगी, जिंदगी निर्वाह के लिए बाज़ार से ख़रीदे गए सामान महंगे। कम हैं तो बस किसान की फसल का दाम ! जिसके कारण आत्महत्याएं, लोगों का बेहद बेकार जीवन स्तर, और विरोध प्रदर्शनों को हम रोज रोज देख सकते हैं. पिछले कई सालों के आंकड़े उठा के इस तथ्य की जाँच भी हम कर सकते हैं. जांच करेंगे तो हम ये भी पाएंगे कि कोई भी नेता किसान के हित की बात नहीं करता है और अगर कर भी दी तो उसे थोड़े ही दिनों में जुमलेबाज़ी कह कर किसानों का मजाक उड़ाया जाता
ऐसे में किसान कौन सा रास्ता चुने? आत्महत्या, विरोध, या विद्रोह ?
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