राह चलते सड़कों पर, बसों पर यौन शोषण की घटनाओं को कई बार आम बात कहकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। हमारा समाज यह कहकर इसपर मोहर लगा देता है कि बाहर निकलने पर ऐसी छोटी-मोटी घटनाएं तो होनी ही हैं।
मैं 13 वर्ष की थी जब किसी ने मेरे बूब्स को पकड़कर चूंटी काटी और एकदम से भाग गया। उस दिन मैं बहुत हैरान हुई और खुद पर बेहद गुस्सा भी आया कि क्यों मैंने उसे दो थप्पड़ नहीं लगाए लेकिन मैं उस वक्त कुछ समझ ही नहीं पाई। मैं बेसुध सी हो गयी थी और अजीब सी घिन आने लगी कि बिना किसी इजाज़त के उसने मुझे छुआ कैसे?
मैंने किसी को इसके बारे में नहीं बताया। मेरे ना बताने का केवल एक ही कारण था कि अगर मैं बताउंगी तो लोग मुझे दोष देंगे या मुझे जो थोड़ी आज़ादी मिल रखी है वो कई चली ना जाये और मुझे घर पर कैद कर लिया जाएगा।
इस घटना के बाद एक बार और किसी ने ़मेरे साथ वैसी हरकत की और इस बार मुझे पीछे से छुआ। इस बार मैंने उसका हाथ पकड़कर हटा दिया लेकिन तब भी मैं कुछ नहीं कर पायी। मेरे कुछ ना करने के पीछे बहुत कुछ था और इसमें परिवार की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण थी। मैं एक मध्यमवर्गीय परिवार से आती हूं और हमारे घर में अगर कोई मर्द आता है तो हमें दूसरे कमरे में भेज दिया जाता है ताकि उसकी बुरी नज़र हम पर ना पड़े।
इन सभी घटनाओं के बाद मुझमें अजीब सा डर आ गया था, जब भी बाहर जाती तो पता नहीं कितनी बार खुद को मना करती और घर पर रहना ज़्यादा सही समझती। बस में जाने से सबसे ज़्यादा डरती क्योंकि कई बार ऐसा हुआ कि लोग छूने की कोशिश करते।
एक बार जब बस में जा रही थी तो एक आदमी पीछे से अपना प्राइवेट पार्ट मुझे टच कराने लगा। मैंने एकदम से उसको चिल्लाकर कहा, “रुक जाए आप और यह क्या कर रहे हैं?”
मुझे हर कदम पर एक अनजाना सा डर लगता है। जब भी मैं बस या रात में सफर करती हूं तो आस-पास मर्दों से डर लगता है। दिल्ली जैसे शहर में जहां रेप जैसी घटनाएं आए दिन बढ़ती जा रही हैं उसे देखते हुए महिलाओं के लिए यह शहर डरावना लगता है।
छेड़छाड़ को सामान्य रूप दे दिया गया है, इसपर कोई कार्रवाई नहीं की जाती। समाज सारा दोषारोपण महिला पर ही थोप देता है। महिलाएं भी चुप हो जाती हैं क्योंकि समाज और कानून व्यवस्था दोनों ही रूढ़िवादी सोच रखती है, जिसके कारण महिला की सुरक्षा पर बातचीत कम और उसकी आज़ादी पर पहरे ज़्यादा लगाए जाते हैं।