पिछले दिनों असम के चाय बागानों में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। पहली दफा असम आना हुआ है, तो ज़ाहिर सी बात है कि अनुभव बिल्कुल नया है। यहां की खूबसूरती देखते ही बनती है, बहुत सुन्दर जगह है असम। दूर-दूर तक हरियाली दिखाई देती है। जहां नज़र डालो, बड़े-बड़े चाय के बागान और उन तक जाती हुई छोटी-छोटी सडकें। ये चाय के बागान देखने में जितने सुंदर लगते हैं, अंदर से उतने ही बदसूरत भी हैं। माफ कीजिएगा, आप सोच रहे होंगे कि मैं ऐसा क्यों बोल रहा हूं। बस इतना कहना चाहूंगा कि खुद को रोक नहीं पाया, इसलिए लिख रहा हूं।
आज़ाद भारत में भी अंग्रेज़ी हुकूमत की जड़ें कितनी गहरी है यदि किसी को देखनी हो, तब वह बेशक असम के चाय बागानों का भ्रमण कर सकता है। इन चाय बागानों में आज भी अंग्रेज़ों के ज़माने के वही तौर तरीके और कानून अपनाए जाते है, जिसमें सिर्फ और सिर्फ भारतीयों का शोषण होता है। बस फर्क सिर्फ इतना है कि आज ये व्यापारी अंग्रेज़ नहीं बल्कि भारतीय हैं और उनके शोषण का शिकार आज भी वही तबका है जो उस समय था।
असम के चाय बागानों की कमान अलग-अलग मैनेजरों व उसके कुछ छोटे नौकरशाहों के हाथ में है। मैनेजर और उसके पीछ-लग्गुओं के पास आज भी बड़े-बड़े बंगले हैं जिनमें दर्जनों नौकर-चाकर हैं। कोई खाना बनता है, कोई बर्तन साफ करता है, कोई बगीचे की देखभाल करता है, कोई कपड़े धोता है तो कोई बंगले की चौकीदारी करता है। मैनेजर साहब का बंगला किसी पांच सितारे होटल से कम नहीं लगता है।
जैसे ही कोई गाड़ी बंगले के गेट पर पहुंचती है तब चौकीदार गेट की तरफ इस कदर भागा आता है कि अगर उसने गेट खोलने में एक सेकंड की भी देरी कर दी, तब ना जाने क्या अनर्थ हो जाएगा। तभी दूसरा नौकर भागकर घर का दरवाज़ा खोलता है और उससे अगला पानी की ट्रे हाथ में लिए खड़ा रहता है। इस दौरान उसकी गर्दन नीचे झुकी होती है।
यह सब कितना बनावटी और अमानवीय लगता है। एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के लिए सब कुछ है, जबकि दूसरा एक के सामने कुछ भी नहीं। यह दूसरा व्यक्ति कौन है? जो आज भी सिर्फ गर्दन नीचे किए हुए खड़ा है, जिसने कभी गर्दन उठाने की कोशिश भी नहीं की और अगर कभी की भी होगी तब उसे कुचल दिया गया होगा।
ये दूसरा व्यक्ति कौन है ? जिसकी आंखों से उम्मीद की किरण कहीं दूर जा चुकी है और उसके चेहरे पर केवल झुर्रियां ही छोड़ गई है। यह दूसरा व्यक्ति क्यों आज भी मिट्टी और बांस की बनी झोंपड़ी में रहता है। क्यों यह दूसरा व्यक्ति कभी पहले व्यक्ति से हाथ नहीं मिला सकता और उसके साथ नहीं बैठ सकता? क्या उसके लिए अपने अधिकारों की मांग करना गुनाह है?
मैं जब भी यहां शोषक और शोषित दो तबकों को देखता हूं तब मुझे भगत सिंह की वो पक्तियां बहुत ही प्रासंगिक लगती हैं। जिनमें उन्होंने अपनी दूरदर्शिता से पहले ही बता दिया था कि ‘गोरे अंग्रेज़ चले जाएंगे और उनकी जगह काले अंग्रेज़ आ जाएंगे।’ गोरे अंग्रेज़ तो चले गए और काले अंग्रेज़ों (समाज के धनाड्य वर्ग) ने उनकी जगह ले ली। भारत में अब धनाड्य वर्गों ने गरीबों का शोषण शुरू कर दिया है।
चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूर ज़्यादातर आदिवासी समुदाय से हैं। चाय बागान के इतिहास पर अगर नज़र डालें तब पता चलता है कि ब्रिटिश काल में उड़ीसा, बिहार और बंगाल से मज़दूरों को हज़ारों की संख्या में ज़बरन असम व दार्जलिंग के चाय बागानों में लाया जाता था। ये मज़दूर पीढ़ी दर पीढ़ी यहां काम करते-करते अब यहीं के निवासी बन गए हैं। यहां पर आदिवासियों के अलावा भी अलग-अलग जाति के लोग दिखते हैं। जैसे- मुंडा, बेदिया, कर्मकार, तांती, भूमिज, मांझी, तासा, ओरान, कोइरी, गुवाला व राविदास इत्यादि।
असम के चाय बागानों में काम करने वाले मज़दूरों को मुख्य रूप से तीन वर्गों में बांटा गया है। पहला- बागान में स्प्रे करने वाले, दूसरा- पत्तियां तोड़ने वाले तथा तीसरा- फैक्ट्रियों में काम करने वाले। स्प्रे करने का काम प्राय: पुरुषों द्वारा किया जाता है, पत्तियां सिर्फ महिलाएं तोड़ती हैं तथा फैक्ट्री में काम करने के लिए महिला व पुरूष दोनों होते हैं।
महिलाओं द्वारा पत्तियां तोड़ने के काम पर इन्हें आसानी से स्वामित्व की प्राप्ति नहीं हुई है। इसके पीछे सैकड़ों वर्षों का संघर्ष छुपा है। मैं इसे महिला सशक्तिकरण के नज़रिए से भी देखता हूं। जिस समाज में महिलाओं के घर से बाहर निकलने पर इतनी पाबंदियां हों, वहां उसने कड़ी मेहनत के दम पर इस काम में अपना अधिकार जमाया।
महिलाओं ने अपने काम के अधिकार को ज़रूर प्राप्त किया है लेकिन यह भी एक कड़वी सच्चाई है कि उसे उस काम की पूरी कीमत कभी नहीं मिलती है। चाय बागानों में सारा दिन अपने पैरों से सांपों की गर्दन कुचलती है, ज़मींदार बाबू की फटकार सुनती है और जोंकों को शरीर का सारा खून पिलाने के बाद जब घर पहुंचती है तब जाकर उसे भोजन मिलता है। इसके अलावा पति की हिंसा भी झेलनी पड़ती है।
यह जीवन संघर्ष है साहब! और हां, यहां पर महिला सशक्तिकरण किसी सरकारी योजना या गैर-सरकारी संस्था की सहायता से नहीं बल्कि महिलाओं के संघर्षों से हुआ है। इसलिए कह रहा हूं कि यह जीवन संघर्ष है, बड़ा ही मुश्किल है।
साहब! यह चाय बागान है, जो देखने में बहुत खूबसूरत लगते हैं लेकिन अंदर से उतने ही बदसूरत हैं।