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“हर सामाजिक आंदोलनों को राजनेता हाइजैक क्यों करना चाहते हैं?”

आंदोलन

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हम एक ऐसे दौर के गवाह बन रहे हैं जहां भारत की ‘विविधता में एकता’ पर अस्मिता की राजनीति हावी होती जा रही है। भारत के बारे में होने वाली वैचारिक बहसें किसी भी विचारधारा से क्यों ना उत्पन्न हो, इस शर्त पर अवश्य सहमत होती हैं कि यहां सांस्कृतिक रीति-रिवाजों, आचार-व्यवहारों और प्रतीकों की विविधता है। इस विविधता की व्याख्या को अनादि काल से आरंभ करें या औपनिवेशिक काल से, दोनों ही एक राष्ट्र-राज्य के रूप में ‘विविधता में एकता’ को भारत की एक अद्वितीय विशेषता मानते हैं।

इस विशेषता को विरासत मानते हुए हम अपनी परम्परा से जोड़ते हैं और एक ऐसी आदर्श स्थिति की कल्पना करते हैं जहां विभिन्न सांस्कृतिक समूहों में कोई संघर्ष नहीं है और हर समूह को फलने-फूलने की सकारात्मक स्थिति उपलब्ध है। जबकि यथार्थ में यह परिकल्पना साकार होती नज़र नहीं आती है। ‘विविधता में एकता’ भारतीय समाज के जिन सांस्कृतिक प्रतीकों पर निर्मित हैं, वे इन समूहों के सामाजिक-आर्थिक संबंधों को ऐतिहासिक ढंग से नहीं प्रस्तुत करते हैं। वे भारत के राजनीतिक मानचित्र पर संस्कृति के बेलबूटों के समान हैं जिनका होना एक दूसरे के प्रभाव से मुक्त है।

समूहों के पारस्परिक संबंध और अस्मिता एक भिन्न कहानी कहते हैं। इस कहानी में सह-अस्तित्व के साथ संघर्ष की भी संभावनाएं हैं। इन संघर्ष की संभावनओं को कैसे पाला-पोसा जा रहा है? इसके कुछ उदाहरणों पर विचार करते हैं। भारत की परिकल्पना करने वालों का एक धड़ा ऐसा भी है जो एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा के नाम पर हर विविधता को एकरूपता में बदलकर ‘वृहद् भारत’ की रचना करना चाहता है।

ज़रा सोचिए भला कोई व्यक्ति या समूह क्यों अपनी पहचान की कीमत पर किसी अन्य द्वारा दी गई पहचान को अपनाएगा? यदि दबाव में अपनाएगा तो भावानात्मक संबंध स्थापित नहीं कर पाएगा। स्वाभाविक है कि यह तरीका प्रतिरोध को जन्म देगा। इससे कमज़ोर समूहों में ना केवल डर पैदा होगा बल्कि घृणा और हिंसात्मक प्रतिरोध की प्रवृत्तियों को बल मिलेगा।

कुछ समूह अपनी विशिष्ट पहचान में भारत-बोध को अस्वीकार करना चाहते हैं। वे अपने सांस्कृतिक इतिहास के उन किस्सों-कहानियों को सर्वोपरि मानते हैं जो उन्हें भारत से भिन्न सिद्ध करते हैं। ना चाहते हुए भी यह स्वरूप एक धर्म, एक विश्वास, एक भाषा और एक निष्ठा का पूरक बन जाता है। विडंबना यह है कि ये दोनों धड़ाएं हर सांस्कृतिक समूह को अपनी तरफ से प्रमाणपत्र देने को उत्सुक हैं।

एक तीसरी धड़ा ‘निरपेक्षता’ की पैरोकार है। यह संविधान सम्मत है लेकिन इसकी उतनी स्वीकृति नहीं बन पा रही है क्योंकि अन्य दो धड़ाओं ने मीडिया जैसे साधनों के प्रयोग द्वारा ऐसी संकटकालीन स्थिति का प्रोपोगंडा किया है जहां बिना मज़बूत समूह की पहचान के अस्तित्व का संकट दिखाया जा रहा है। इसे ही स्टेन कोहेने ने ‘मोरल पैनिक’ की संज्ञा दी है।

इस तरह से दो परस्पर विरोधी आख्यान एक दूसरे के पूरक बनकर दो भिन्न राजनीतिक धड़ाओं को ऊर्जा दे रहे हैं। यह संवाद, सौहार्द्र और सह-अस्तित्व के बदले अलगाव की हर संभावना को खोजने और पुष्ट करने का कार्य कर रहे हैं। इनके प्रभाव में ही कभी क्षेत्रवाद के नाम पर लोगों को एक राज्य से खदेड़ा जाता है तो कभी धर्म के नाम पर उन्माद फैलाया जाता है। कभी भौगोलिक अवस्थिति को मुद्दा बनाकर अलग राज्य की मांग की जाती है तो कभी भाषायी पहचान को संवैधानिक दर्जा दिलाने के नाम पर एक अलग भाषा समूह के अस्तित्व को सिद्ध किया जाता है।

प्रत्येक समूह अपनी पहचान को कानूनी वैधता दिलाना चाह रहा है। दरअसल, ऐसा करके वे देश के हिस्सों में अपना हक बढ़ाना चाहते हैं जिसके लिए वे अपनी विशिष्ट स्थिति को न्यूनतम शर्त मान रहे हैं। इनका मानना है कि इस शर्त का पूरा होना उन्हें दूसरे सांस्कृतिक समूहों से अधिक ताकतवर बना देगा। यह ताकत देश के लिए कितनी हितकारी होगी? इसका अनुमान लगाया जा सकता है। इन सबके बीच देश हित का सवाल परदे के पीछे जा चुका है।

आंदोलन की प्रतीकात्मक तस्वीर। सौजन्य: Getty Images

अस्मिता की राजनीति का एक ऐसा माहौल बन चुका है कि हर सांस्कृतिक समूह ने समुदाय के कल्याण के सापेक्ष अपने लोगों को लामबंद कर लिया है। ऐसी बहुत सी क्षेत्रीय, जातीय और भाषायी समूहों को आप अपने आसपास देख सकते हैं। ये अपने को समुदाय का रहनुमा घोषित कर उसे ताकतवर बनाने के लक्ष्य से जोड़ते हैं। इस लक्ष्य को वैधता देने के लिए समूह, अपने साथ हुए अन्यायों, उपेक्षाओं और गैर-बराबरी अवसरों की असमानता के प्रमाणों को प्रस्तुत करते हैं।

वे अपनी सामुदायिक पहचान को सबसे ऊपर रखते हैं। वे सिद्ध करते हैं कि इस पहचान को अक्षुण्ण रखने के लिए दूसरे समूहों के हितों से टकराहट अनिवार्य है। इस समूह के निर्णय ‘साझा हितों की लड़ाई’ के लिए प्रचारित किए जाते हैं जबकि यह सत्ता और आर्थिक प्रतिष्ठानों पर वर्चस्व के लिए होते हैं। ऐसे समूह जो सामाजिक-ऐतिहासिक कारणों से पीछे छूट जाते हैं वे सामाजिक न्याय के नाम पर अपने समूह की मांग को जाएज़ ठहराते हैं और दूसरे समूह से अपने हितों की रक्षा के लिए लड़ने लगते हैं।

इससे दूसरे समूह के रीति-रिवाज़ों के प्रति नकारात्मक और हेय दृष्टि पनपती है। प्रायः अस्मिता की राजनीति की शुरुआत सामाजिक आंदोलनों से होते हुए राजनीतिक हस्तक्षेप तक पहुंचती है। बाद में राजनीतिक हस्तक्षेप द्वारा बदलाव का लक्ष्य सत्ता पर कब्ज़ा बनाए रखने की लोलुपता में बदल जाता है। ऐसी स्थिति में अस्मिता की लड़ाई को हवा देना और उसे बनाए रखना एक राजनीतिक मजबूरी बन जाती है। इस राजनीतिक मजबूरी का प्रमाण राजनीतिक दलों की जातीय, भाषायी, धार्मिक और क्षेत्रीय संबद्धता में देख सकते हैं।

प्रत्येक दल किस सांस्कृतिक समूह का प्रतिनिधित्व कर रहा है, यह उसके परिचय का हिस्सा बन चुका है। कहना नहीं होगा कि अस्मिता की राजनीति के रास्ते सत्ता पर नियंत्रण की लालसा हमारे समय का एक बड़ा संकट है। हाल के दिनों की जिन घटनाओं को आप देश के लिए खतरा मान रहे हैं, उन्हें सांस्कृतिक समूहों के बीच टकराव के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। जबकि वे घटनाएं राजनीतिक-आर्थिक नियंत्रण के लिए प्रयास है।

हमारी राजनीतिक रणनीतियां क्षेत्रीय-धार्मिक-जातीय-भाषायी अस्मिताओं को पुष्ट करना चाहती हैं। इन्हें राजनीतिक स्थायित्व के बदले अस्थायित्व अधिक प्रिय है। यह अस्थायित्व उनकी प्रासंगिकता को बनाए रखता है और उन्हें राजनीतिक सौदेबाज़ी का अवसर उपलब्ध कराता है।

हर सांस्कृतिक समूहों में यह राजनीतिक चेतना विकसित हो चुकी है कि शक्ति के केन्द्रीकरण और अवसरों की असमानता की खाई को राजनीतिक व्यवस्था पर कब्ज़ा करके पाटा जा सकता है। उनके लिए सत्ता पर कब्ज़ा राज्य के हस्तक्षेप के रास्ते उत्पादन के साधनों पर कब्ज़ा करना है।

विडंबना यह है कि समूह विशेष में शक्ति का केन्द्रीकरण अन्य के लिए अवसरों की असमानता और शोषण के रूप में प्रकट होता है। वे इस असमानता के लिए राज्य की व्यवस्था को उत्तरदायी मानने लगते हैं। इस तरह से जिस व्यवस्था को सकारात्मक भेदभाव करते हुए उपेक्षितों और शोषितों का पक्ष लेना था वह उनके विरूद्ध खड़ी हो जाती है। एक तरह से हमारी राजनीतिक चेतना प्रतिशोधात्मक बनती जा रही है।

हर समूह सत्ता के प्रतिष्ठानों पर वैसे ही नियंत्रण करना चाह रहे हैं जैसे इनके पूर्ववर्तियों ने किया था। फिर राजनीतिक चेतना के प्रसार द्वारा लोकतंत्रात्मक मूल्य व्यवस्था- स्वतंत्रता, उदारता, सहिष्णुता और बंधुत्व का क्या? गरीबी, असमानता, विस्थापन, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की चुनौतियों के समाधान का रास्ता कैसा हो? क्या ये चुनौतियां विविधता के आयाम-धर्म, क्षेत्र, भाषा और जाति के सापेक्ष केवल एक राजनीतिक मुद्दा है? क्या इन आयामों पर किसी समूह के पीछे रहने का कारण उनकी सांस्कृतिक अस्मिता है या वे सामाजिक-ऐतिहासिक कारण जो आर्थिक असमानता और राजनैतिक वर्चस्व के लिए उत्तरादायी हैं?

ऐसी स्थिति में एक संभावित और सबसे सरल उत्तर है कि इनका समाधान राज्य द्वारा किया जा सकता है। यहां ध्यान रखना आवश्यक है कि ना तो हमारा संविधान और ना ही हमारी परंपरा किसी प्रतीक या संस्कृति विशेष के चयन द्वारा एकरूपता का पक्ष लेती है।

नोट: यह लेख YKA यूज़र ऋषभ कुमार मिश्र द्वारा समय लाइव की वेबसाइट पर प्रकाशित हो चुकी है।

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