झारखंड के अलग-अलग इलाकों में कई दफा नक्सली हमले हुए हैं जिनमें सुरक्षा बल, आम लोग और यहां तक कि सूबे के पहले मुख्यमंत्री बाबुलाल मरांडी के बेटे की भी जान चली गई। जो लोग झारखंड की जल, ज़मीन, जंगल और यहां की आदिवासी संस्कृतियों से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें लगता है कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले लोगों के साथ नक्सलियों की तगड़ी सांठ-गांठ होती है। राष्ट्रीय स्तर पर झारखंड का जब-जब ज़िक्र होता है, इसकी पहचान खनिज संपदाओं के मामले में धनी राज्य के तौर पर नहीं होती बल्कि लोग भौंहे तानकर कहते हैं, “अरे वहां तो नक्सली खुलेआम घुमते हैं। आदिवासी ही नक्सली होंगे।”
आदिवासियों को नक्सली कहना बिल्कुल वही बात है जैसा कि मुसलमानों के लिए आतंकवादियों का तमगा दिया जाना। झारखंड के नक्सलियों और आदिवासियों को लेकर मेरी समझ भी दूर-दराज़ में रहने वाले लोगों की तरह ही थी लेकिन एक बात ज़रूर कहूंगा कि ‘चक्रव्यूह’ जैसी फिल्म देखकर किसी भी इलाके के लिए पूर्वाग्रह बनाना गलत है।
मुझे साल 2017 में मौका मिला जब मैं बेहद करीब से आदिवासियों, वहां की संस्कृति और खासतौर पर नक्सलियों को समझ पाया। मोदी सरकार की महत्वाकांक्षी योजना ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के तहत दुमका ज़िले के ग्रामीण विकास कार्यालय द्वारा मुझे अलग-अलग प्रखंड में भेजा गया, जिनमें से एक प्रखंड काठीकुंड भी था।
अब तक हुए सभी नक्सल वारदातों में 2 जुलाई 2013 को पाकुड़ के एसपी अमरजीत बलिहार की नक्सलियों द्वारा निर्मम हत्या सर्वाधिक चर्चा में रही है। दुमका से डीआईजी के साथ बैठक करके लौटने के दौरान एसपी अमरजीत बलिहार समेत चार सुरक्षाबलों को नक्सलियों ने गोली से भून डाला था।
काठीकुंड प्रखंड ज़िला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वहां जाने के लिए मुझे अपने एक मित्र को काफी मनाना पड़ा, तब जाकर वह मेरे साथ चलने के लिए राज़ी हुआ। वहां जाकर मरना है क्या? शाम से पहले लौट आएंगे जैसी बातें वो लगातार कर रहा था। इन सबके बीच हम निकल पड़े काठीकुंड प्रखंड जहां आज भले ही लाल आतंक का साया नहीं है लेकिन एक वक्त यहां दहशत काफी थी।
काठीकुंड थाने के पास रुककर मेरा मित्र कई दफा यह पूछता रहा कि आगे कोई खतरा तो नहीं है। लोग अलग-अलग तरह की बातें कहते रहें और हम चल पड़े जंगलों के रास्ते काठीकुंड प्रखंड के ग्रामीण इलाकों की तरफ। हमें पहले से ही आगाह कर दिया गया था कि नारगंज, छोटा-चापुरिया, बड़ा चापुरिया जैसे इलाके अति संवेदनशील हैं। यहां बहुत संभलकर बातें करनी है।
दरअसल, हमें नारगंज के ग्रामीणों से बहुत सारी बातें करनी थी लेकिन गांव के बिल्कुल सामने ‘सशस्त्र सीमा बल’ की कैंप लगी थी जिसके कारण हम थोड़े असहज हो रहे हैं। एक चीज़ अच्छी थी कि हम शौचालय जांच के उद्देश्य से आए थे, ऐसे में हमारी कार्यशैली पर सवाल खड़ा करने वाला कोई नहीं था। एसएसबी चेक पोस्ट पर रुककर हमने पूछा कि आगे सब ठीक है ना, हमें कहा गया, “हां बिल्कुल ठीक है, कोई दिक्कत नहीं है।” यहीं से मेरे और ग्रामीणों के बीच की बातचीत शुरू हुई।
मैंने अपने मित्र से पहले कहा कि वो गाड़ी साइड में लगा दे और फिर हम वहां के लोगों से बात करने लग गए। शौचालय निर्माण को लेकर बातें शुरू हुई और एक-एक कर कड़ी खुलती चली गई। किसी ने कहा कि ज़िले से आकर ब्लॉक कॉर्डिनेटर ने प्रति शौचालय पांच सौ रुपये ले लिए तो किसी ने मुखिया पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए।
अब मैंने उनसे पूछा, “ये बताईए, क्या अब यहां डर का माहौल है? अब तो एसएसबी का कैंप भी लग गया है।” उनमें से एक युवक ने कहा, “अरे हमे क्या लेना इनसे, ये तो खुद ही रात को आकर हमसे दारू मांगते हैं।” मुझे यहां से एक कड़ी मिली और वो यह कि ग्रामीणों में एसएसबी कैंप लगने से बहुत नाराज़गी है। ऐसा जैसे उनकी आज़ादी छीन ली गई हो।
नारगंज गांव में दर्जनों सुरक्षाबल तैनात थे, ऐसे में उनके सामने ग्रामीणों से सवाल-जवाब करना कुछ ठीक नहीं लगा। मैं उनके करीब जाकर उनसे पूछा कि आपलोगों को एसएसबी के जवानों से कोई दिक्कत तो नहीं। उनका कहना था, “इनसे हमें कोई डर भय नहीं, अगर ये लोग हमें नुकसान पहुंचाएंगे तब हम इन्हें यहां से उखाड़ फेंकेंगे। ना हमें नक्सलियों से कोई डर है और ना ही एसएसबी कैंप वालों से।”
कुछ दूर आगे बढ़ने पर हमें एक शिक्षक दिखे। हमने उनसे कहा कि यह वही जगह है ना जहां एक बार पुलिस और नक्सलियों के बीच मुठभेड़ हुई थी। उन्होंने कहा, “हां, यह वही जगह है। सरकार को मजबूरन यहां कैंप लगाना पड़ा, क्योंकि यह बहुत संवेनशील इलाका रहा है। यहीं से रणनीतियां बनती थी। आप जहां बैठे थे जनाब वहां रात को मुर्गा खाने के दौरान कई दफा हमले को लेकर बातें होती थी। वो तो सुरक्षाबलों का दबाव है जो अभी इन्होंने ऑटो रिक्शा ले लिया है, वरना नक्सली ही होंगे पहले।”
जो भी बातें मास्टर साहब ने हमें बताई, वह उनकी राय हो सकती है, क्योंकि अक्सर लोग बगैर तथ्यों के ऐसी बातें कहते हैं। मेरे मित्र ने भी कहा कि ऐसी क्या बात है जो ये लोग सुरक्षाबलों से इतने आक्रोशित हैं। कुछ तो बात रही होगी।
खैर, ढ़लती शाम के बीच हम वापिस अपने घर की ओर चल पड़े। अगली सुबह फिर हमें उसी गांव में आना पड़ा। आगे की तरफ जब हम बढ़ने लगे तब एक आदिवासी के घर पर शौचालय जांच के नाम से हमें प्रवेश मिली। हमने कहा, “और भाई, बातओ क्या चल रहा है। नक्सलियों को लेकर कोई डर भय तो नहीं है?”
एक चीज़ ज़रूर हमने देखा कि कोई भी नक्सली को लेकर बात नहीं करना चाह रहा था। उसने कहा, “क्या नक्सली साहब, ये एसएसबी वाले रात को 20 मोटरसाइकिल से गश्ती पर निकलते हैं और ग्रामीणों को रास्ते में देखने पर खूब पिटाई करते हैं। बताओ यह भी कोई बात हुई, ज़ुल्म की तो हद ही हो गई है।”
झारखंड के दुमका ज़िले के नक्सल प्रभावित प्रखंडों जैसे, काठीकुंड, गोपीकांदर, शिकारीपाड़ा, मसलिया और रामगढ़ के ग्रामीण इलाकों में भ्रमण करने के बाद मैंने यही पाया कि नक्सलियों के खौफ की आड़ में बिचौलिये पूरी तरह से भ्रष्टाचार कर रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि झारखंड के दुमका ज़िले के ये इलाके पूर्व में भयंकर नक्सली क्षेत्र रहे हैं लेकिन अब धीरे-धीरे तस्वीर बदल रही है। आज से लगभग चार-पांच साल पहले लोग काठीकुंड के जंगलों के रास्ते अंदर के ग्रामीण इलाकों तक जाने से डरते थे। अब औसत इलाकों में अच्छी सड़कें और लोगों के आवागमन की वजह से दहशत कम हैं।
नक्सली क्षेत्र के नाम पर अगर यहां किसी को फायदा पहुंच रहा है तो वे हैं सरकारी योजनाओं के तमाम बिचौलिये। ये वे लोग हैं जिन्हें पता है नक्सली क्षेत्र होने की वजह से सरकारी योजनाओं की जांच करने शायद ही कोई अधिकारी आए। इसी बात का फायदा उठाकर ये लोग धड़ल्ले से भ्रष्टाचार कर रहे हैं।
नारगंज की जल सहिया बताती हैं, “मेरे और पंचायत के मुखिया के ज्वाइंट अकाउंट में शौचालय निर्माण के लिए राशि भेजी जाती है, जिसका प्रयोग हमें लाभुकों के लिए शौचालय बनवाकर करना पड़ता है लेकिन अभी हालात काफी नाज़ुक हैं। कभी ब्लॉक कॉर्डिनेटर हमें धमकियां देकर पैसों की वसूली करके चला जाता है, तो कभी शौचालय की फोटो खींचने के नाम पर आए ऑपरेटर हमसे पैसे खा लेते हैं। उन्हें पता होता है कि इनसे पैसे खाएंगे तो यहां जांच के लिए कोई नहीं आएगा,क्योंकि यह तो नक्सली इलाका है।”
यही हाल नक्सल इलाकों के स्कूलों के भी हैं जहां आए दिन शिक्षक नदारत रहते हैं। सड़कें धड़ल्ले से बन रही हैं और जेई से लेकर मुखिया तक के पास कमिशन पहुंच जा रहा है। नक्सलियों के नाम पर सिर्फ लूट हो रही है।
ग्रामीणों को नक्सलियों का तमगा देना वाकई में बेहद शर्मनाक है। झारखंड से नक्सलवाद को यदि सही अर्थों में खत्म करना है तो विकास की रफ्तार तेज़ करनी होगी। ग्रामीणों को वह विकास नहीं चाहिए जो उनके लिए गले की घंटी बन जाए। जहां विकास के नाम पर सरकारी नुमाइंदों द्वारा उनसे वसूली की जाए। देश के नक्सल इलाकों से नक्सलवाद का खात्मा एक चुनौती तो है ही लेकिन झारखंड की बात की जाए तो यहां राजनैतिक दलों को तमाम तरह के स्वार्थ त्यागकर इस दिशा में सकारात्मक पहल करनी होगी।
नोट: कवर इमेज प्रतीकात्मक है।