Site icon Youth Ki Awaaz

क्या मोहल्ला अस्सी का ट्रेलर धर्म के ठेकेदारों की असलियत दिखाता है?

फिल्म मोहल्ला अस्सी कैसी होगी और किस तर्क पर होगी यह तो फिल्म आने के बाद ही तय हो पायेगा लेकिन फिल्म का ट्रेलर आ चुका है। सन्नी देओल अपनी माचो मैन की भूमिका और ढाई किलो के हाथ से हटकर, एक अलग ही अवतार में नज़र आने वाले हैं।

फिल्म के ट्रेलर और फिल्म की पृष्ठभूमि में बनारस को दर्शाया गया है। हिंदू धार्मिक मर्यादा की हैसियत से यह शहर अपनी एक धार्मिक छवि भी रखता है लेकिन फिल्म के ट्रेलर की शुरुआत में ही गंगा किनारे पूजा कराने आये यजमान को, फिल्म में सन्नी देओल अपशब्द भाषा में संबोधित करते हैं कारण, यजमान गंगा के किनारे बैठकर गंगा के जल को छोड़कर मिनरल वॉटर पीने की बात कर रहे हैं।

वही आगे जिस्मानी रिश्तों में एक विदेशी औरत के साथ उलझा एक पति, अपनी पत्नी द्वारा पकड़े जाने पर, योग का उदाहरण देकर खुद को पाक साफ बताने में लगा हुआ है और आगे चलकर, एक भारतीय नारी जिसके सर पर पल्लू, मांग में सिंदूर है वह भी एक विदेशी महिला को अपशब्द कहते हुए मुस्कराना नहीं भूलती है। मसलन अपशब्द भाषा एक आम बात हो गई है हमारे समाज में।

https://www.youtube.com/watch?v=G4-uLtTZ7NU

फिल्म का ट्रेलर आगे चलकर राम जन्म भूमि के आंदोलन को भी दिखा रहा है, जहां भीड़ भी जुट रही है और पुलिस गोलीबारी भी कर रही है।

एक जगह गंगा के किनारे एक पंडित की भूमिका में मौजूद कलाकार यह सोचने पर मजबूर हो गया है कि भगवान शिव के बनारस को श्री राम हथिया रहे हैं। जहां श्री राम इस कदर दोहराये जा रहे हैं, जहां शहर की तंग गलियों और इनमें मूलभूत सुविधाओं से वंचित एक आम नागरिक, श्री राम का नारा लगाकर, मंदिर वही बनाएंगे की रूप रेखा में अयोध्या कूच कर रहा है।

एडिटिंग से गुज़रकर फिल्म का ट्रेलर बहुत कुछ कह रहा है। कैमरामैन का कैमरा, बोले गये संवाद और उनके बोलने का अपना एक ज़मीनी अंदाज़, अपने आप में बहुत कुछ बयां कर रहा है।

फिल्म के ट्रेलर में ताबड़तोड़ अपशब्द भाषा का इस्तेमाल किया गया है, जिस्मानी रिश्तों को दिखाने में परहेज़ नहीं की गई है लेकिन इसके साथ धर्म भी मौजूद है। यहां विश्लेषण तो करना ज़रूरी है कि धर्म की इस तरह से पेशकश क्या धर्म और मज़हब के गिर रहे किरदार को बयां कर रही है?

क्या धर्म की आड़ में जो अपनी रोटियां सेक रहे हैं, जो धर्म के ठेकेदार बने बैठे हैं वह अपने गिर रहे किरदार को धर्म और मज़हब की आड़ में छुपाकर, खुद अपना दामन पाक साफ बताने में सिर्फ इसलिये कामयाब हो पा रहे हैं कि उनकी सरपरस्ती धर्म और मज़हब है? जहां धर्म और मज़हब हो वहां सवाल नहीं होते या करने नहीं दिये जाते।

वास्तव में इस फिल्म के ट्रेलर से एक बात जो उभरकर आ रही है वह धर्म और मज़हब के व्यापारिक और राजनीतिक दृष्टिकोण को भी उभार रही है। फिल्म सिर्फ हिंदू धर्म के आस-पास घूम रही है लेकिन यह व्यापारिक और राजनैतिक दृष्टिकोण हर आस्था में मौजूद है। मसलन धार्मिक इमारतें जहां आज सोना लगा हुआ है, चांदी है, गहने हैं, वहां उस धार्मिक स्थान के सामने  बहुत से लोग भीख मांगते नज़र आते हैं।

मैं अपने इन्हीं विचारों को पहले अपने ही घर से शुरू करना चाहूंगा। मैं सिख हूं और गुरुद्वारा साहिब मेरे लिये बहुत ही पवित्र स्थान है। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी जिसका सालाना बजट करोड़ों में है लेकिन इसके बावजूद पंजाब में अशिक्षा, नशा, दहेज जैसी बुराइयां अपने चरम पर हैं।

मुझे ज्ञात नहीं कि मेरे गांव या आस-पास किसी स्कूल, कॉलेज अस्पताल का निर्माण एस.जी.पी.सी द्वारा किया गया हो। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी की सारी ज़िम्मेदारी इसके चुने हुए सदस्यों पर होती है लेकिन भ्रष्ट व्यवस्था को देखकर एक आम नागरिक अकसर सवाल धर्म पर ही करता है।

हम गुरु नानक, गुरु गोविंद के सिद्धांतों को गुरुद्वारा साहिब तक ही कैद करके संतुष्ट हैं। इसके विपरीत, सबको बराबरी का अधिकार जो सिख धर्म का मूलभूत सिद्धांत है उसके अनुरूप हम सिख समाज को बनाने में पूर्ण रूप से नाकामयाब रहे हैं।

अगर हिंदू धर्म में जात-पात, ऊंच-नीच, स्त्री-पुरुष का फर्क है तो इस्लामिक विचारधारा में भी यह मौजूद है। अगर हम इन सभी मुद्दों को छोड़कर धर्म और मज़हब के व्यापारिक मुद्दों को देखें तो राहु केतु के होर्डिंग बोर्ड हमारे सामने घूमने लगते हैं। शादी की कुंडली से लेकर, फेरों के समयकाल तक सब निश्चित यही राहु केतु के माहिर करते हैं और तो और अगर आप दुविधा में हैं, परेशान हैं तब सात साल से लेकर दो तीन साल तक का शनि ग्रह भी आपकी कुंडली में ये दिखा सकते हैं।

अब यह बात अलग है कि इंसान अभी तक शनि तक नहीं पहुंच पाया है मगर हमारे ज्योतिष तो शनि की चाल भी बता देते हैं। फिर सबसे महंगी पूजा और उसकी सामग्री, एक बताई हुई दुकान से मंगवाते हैं। अगर शादी नहीं हो रही तो किसी पेड़ के साथ लड़के या लड़की के फेरे भी करवा देते हैं। इसके आगे अगर फिर भी कुछ नहीं हो रहा तो नर्मदा या किसी और नदी के किनारे नाग पूजा भी करवाते हैं।

इसके आगे एक और है मसलन हमारे ही केबल पर कोई बंगाली बाबा अपनी तस्वीर के साथ दिखाई देता है जिसकी वेशभूषा और नाम से वो मुसलमान प्रतीत होता है और उसकी मशहूरी इस बात का दावा कर रही होती है कि वह किसी भी तरह के वशीकरण में माहिर है। पति-पत्नी के तलाक से लेकर अपनी मनचाही प्रेमिका को पाने के वशीकरण तक।

ऐसे कई हैं जो अपने पीछे हिंदू धर्म के देवी देवताओं की तस्वीर लगाकर हर अनुचित कार्य की हामी भर रहे होते हैं और इसी तरह कई बंगाली बाबा इस्लाम के नाम पर अपना कारोबार कर रहे होते हैं। यहां लाभार्थी इंसान है और धर्म और मज़हब की इस परिभाषा के कारण बदनाम धर्म और मज़हब ही होता है।

अभी यह छोटा पायदान है, बड़े पायदान पर आते हैं बड़े-बड़े बाबा, बापू आसाराम और सिरसा वाले बाबा राम रहीम। दोनों ने धर्म के नाम पर कितनी जायदाद बनाई है हम सब जानते हैं। मेरे ही गांव के पास बाबा राम रहीम का डेरा है, जहां एक समय के बाद खराब हो चुकी सब्ज़ी भी अच्छी खासी कीमत पर बेच दी जाती है। जहां बस बाबा का नाम लिखा होता है और अगर बाबा का आशीर्वाद या बाबा के हाथ से कोई सब्ज़ी या फल प्राप्त हो जाए है तो फिर कीमत बहुत बढ़ जाती थी, आखिर बाबा की दृष्टि जो पड़ी है इनपर।

मैं बाबा रामरहीम को एक समय से देख रहा हूं, इनकी दाढ़ी, मूंछ के बाल सफेद नहीं हुए हैं। शायद अब जेल में किसी सर्वशक्तिमान भगवान की वो कृपा नहीं होगी, जिनसे बाबा सीधी बात करते थे और आज वो किस हाल में होंगे यह तो बाबा या हरियाणा सरकार ही बता सकती है।

लेकिन एक जो सबसे दयनीय पीड़ा थी कि बाबा अपने आश्रम में गरीब मज़दूरों से आस्था के नाम पर दिनभर काम करवाते थे और बदले में सिर्फ आशीर्वाद से काम हो जाता था, बाबा के डेरे में आहार भी कुछ रुपयों में मिलता था अमूमन इस तरह के हालात आज हर बाबा के डेरे में है।

एक बाबा तो ऐसे हैं जिन्हें मृत भी घोषित कर दिया गया है लेकिन उनके भक्तजन इस बात पर अड़े हैं कि अभी बाबा समाधि में हैं। यह मामला कोर्ट तक भी गया लेकिन हमारे देश में धर्म की आड़ में बाबा कानून से भी बड़े हैं। कल ही मुझे किसी ने बताया कि उन्हें शक है कि बाबा के हमशक्ल की तलाश है या किसी ऑपरेशन द्वारा किसी के चहरे को बदलकर बाबा घोषित किया जा सकता है। मसलन बाबा भगवान हो चुके हैं।

आसाराम बापू के यहां होली बहुत खेली जाती थी, जहां बाबा स्टेज से पानी की बौछार करते थे और नीचे खड़े भक्त इसी पानी में तरवर होकर इसे बाबा का प्रसाद समझते थे। खैर, बाबा के रूप में लोगों की आस्था थी, जहां बड़े-बड़े राजनीतिक लोग हाथ जोड़कर खड़े होते थे वहां बाबा कितना ताकतवर होगा यह समझा जा सकता है।

मेरा एक पड़ोसी जो सरकारी नौकरी पर था जिसके तीन बच्चे हैं, जो अभी पढ़ रहे हैं, घर का मुख्य रोज़गार और आमदनी का ज़रिया अकेला वही आदमी था। साथ ही वो बाबा आसाराम का अनुयायी भी था और एक दिन बापू के कहने पर सबकुछ त्याग कर बापू के आश्रम में चला गया वहीं रहने लगा और नौकरी भी छोड़ दी। आप सोचिये उन मासूमों का क्या हुआ होगा जो उसके बच्चे थे लेकिन बापू को एक ऐसा सेवादार मिल गया था जो पढ़ा-लिखा था सारा काम ईमानदारी से करता था और बदले में एक आशीर्वाद से काम चल जाता था।

इसके आगे है, धर्म और मज़हब के नाम पर राजनीति, वोट की दुकान। हम सब जानते हैं कि वो कौन सा नेता था जो अपने 50 वर्ष को पार कर चुका था और 5 दिसंबर 1992 की रात लखनऊ में अपनी जैकेट में दोनों उंगलियां डालकर, एक मचले हुए नेता की तरह बहुत ही चालाकी से 6 दिसंबर 1992 के दिन, अयोध्या में ज़मीन समतल करने की बात कर रहा था।

असलियत में जहां तक मेरा मानना है कि यह नेता इतना आनंदमयी इसलिए था क्योंकि उसे पता था कि धर्म और मज़हब के नाम पर उसकी राजनीतिक दुकान अब चल पड़ेगी और उसे शिखर पर जाने से कोई नहीं रोक सकता। रामजन्म भूमि और अयोध्या के नाम पर कितने दंगे हुए, कितने लोग मारे गए यह हम सब जानते हैं।

कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे राहु केतु की दुकान वाला ज्योतिष हो, तांत्रिक हो, बाबा बंगाली हो, बाबा का आश्रम हो, डेरा हो या राजनीतिक दल हो इन सबमें इतनी समता नहीं है कि ये अपने दम पर चल सके इसलिए ये धर्म, मज़हब का सहारा लेते हैं। इनकी वेशभूषा, ज़ुबान, रहन-सहन, सब धर्म के अनरूप होती है लेकिन व्यापार में मुनाफा इनका निजी होता है।

समय-समय पर चेहरे बदल जाते हैं लेकिन धर्म और मज़हब की राजनीतिक और व्यापारिक लाभार्थी मुखर पर आते ही रहते हैं। चाहे बाबा राम रहीम, बापू आसाराम जेल में हैं, बाबा आशुतोष अब नहीं हैं लेकिन इसी समयकाल में और कितने बाबा और नेता आ गये हैं हम सब यह जानते हैं। मसलन धर्म और मज़हब आज भी इसके लाभार्थी हैं।

लेकिन जब मैं संत रविदास, संत कबीर, देवी मीराबाई, बाबा बुल्ले शाह, नरसिंह मेहता जैसों के बारे में सोचता हूं तब धर्म एक आस्था और विश्वास प्रतीत होती है। मदर टेरेसा भी एक नन थीं, जो उन बच्चों की सेवा करती थीं जिनसे समाज मुंह मोड़ चुका था। असलियल में धर्म मज़हब में मासूमियत, इंसानियत आज भी है लेकिन यह तब तक उभरकर नहीं आएगी जब-तक धर्म और मज़हब का राजनीतिक और व्यापारिक शोषण नहीं रोका जाता।

Exit mobile version