पिछले दिनों मेरे छोटे भाई ने अपने ऑफिस के पोलिश (Polish) साथी का ज़िक्र करते हुए बताया कि वह उससे पूछ रहा था कि तुम भारतीय 6 दिन क्यों काम करते हो? इसपर बिना कुछ सोचे समझे मेरे भाई ने जवाब दे दिया, “हमारे देश में फेस्टिवल बहुत होते हैं तो छुट्टियों की बहार रहती है, इसलिए हम 6 दिन काम करते हैं।”
उसकी इस बात को सुनकर मैं भी सोचने लगी कि हम भारतीयों ने कितनी खूबसूरत दुनिया बनाई है, जहां हर महीने कोई ना कोई त्यौहार आते-जाते रहते हैं। पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक त्यौहारों के अलग-अलग रंग तो हैं ही, एक ही त्यौहार को एक ही समय में कई तरह से मनाया जाता है।
हालांकि, बदलते समय के साथ हम पर्व त्यौहारों के स्वरूपों को बदलते भी देख रहे हैं। मैंने इन स्वरूपों में आ रहे बदलावों को निजी रूप में भी अनुभव किया है। मैं बिहार से हूं और बिहार की आस्था के रूप में सबसे बड़ा पर्व छठ माना जाता है। इसके अलावा भी बाकी त्यौहारों में ज़िंदादिली देखने को मिलती है लेकिन छठ की अतरंगी छठा के आगे बाकी पर्व फीके लगते हैं।
छठ मुख्य रूप से प्रकृति पर्व के रूप में स्थापित है। चूंकि भारत कृषि प्रधान देश है, उसमें भी बिहार, उत्तर-प्रदेश जैसे राज्य आदिकाल से ही कृषि के नज़रिये से अत्यंत महत्वपूर्ण रहे हैं। ऐसे में इन जगहों पर ज़्यादातर त्यौहार भी फसल की कटाई-बुआई की सफलता पर ही निर्भर रहे हैं।
छठ के अलावा भी मकर संक्रांति, होली जैसे अनेक ऐसे त्यौहार हैं जो ब्राह्मणवादी आडम्बरों से दूर विशुद्ध रूप में मानव और प्रकृति के बीच के प्रेम को दर्शाते रहे हैं।
मैं बचपन में होश संभालाने के साथ ही अपने घर और आस-पड़ोस में छठ पर्व होते देख रही हूं। एक समान रीति रिवाज़ों के साथ इस त्यौहार को मनाया जाता रहा है। छठ पर्व को करने के लिए इच्छा शक्ति ज़रूरी है क्योंकि कम-से-कम संसाधनों में इसे सार्थक रूप से मनाया जा सकता है।
बदलते समय के साथ बहुत कुछ बदला है और अब छठ पूजा में भी बाज़ारवाद हावी होने लगा है। जगह-जगह दर्जनभर घोड़ों से लगे रथ पर सवार सूर्य भगवान की मूर्तियां तो कहीं अर्घ्य देती महिलाओं की मूर्तियों की स्थापना शहर में होने लगी हैं।
मैं शुरुआत के सालों में घर से निकलकर गंगा घाट जाने के दौरान जब इन मूर्तियों को देखती थी तो वे सिर्फ सड़कों में साज-सज्जा के लिए इस्तेमाल होती हुई प्रतीत होती थीं। उन दिनों या यूं समझ लें कि कुछ साल पहले तक उन मूर्तियों के सामने से गुज़रते सैकड़ों लोगों में से किसी को भी झुककर प्रणाम करते नहीं देखा गया था।
अब इन मूर्तियों को भारी महिमा मंडल के साथ मतलब पंडित जी द्वारा पूजा-पाठ के बाद स्थापित किया जाने लगा है। इसके साथ शुरू हो गई है छठ में प्रकृति के साथ मूर्ति पूजा, जो कहीं ना कहीं हमारे त्यौहार के मूल स्वरूप से उसको भटका रही है।
इसके अलावा महिलाओं द्वारा सामूहिक रूप से गीत गाए जाने की परंपरा को पीछे छोड़ते हुए कई जगह हाई क्लास लोगों द्वारा प्रोफेशनल सिंगर को बुलवाकर दो दिनों के गीत-संगीत के कार्यक्रम किए जाने लगे हैं, जिसके लिए कई बड़ी कंपनियां स्पॉनसर करती नज़र आती हैं।
सबसे आश्चर्य तो तब हुआ जब ऑनलाइन शॉपिंग में बड़े-बड़े बैनर तले गोइठा के दाम 299 रुपए ओनली और 199 रुपए ओनली करके विज्ञापन चलने लगे हैं।
यह परिवर्तन की शुरुआत है जो मुझे स्वीकार नहीं है। मतलब जो त्यौहार कल तक आर्थिक, सामाजिक, लैंगिक समानता, समरसता की वकालत करता हुआ, प्रकृति के प्रति निष्ठावान होने को दर्शाता रहा है, वह देखते-देखते बाज़ारवाद का शिकार होने लगा है। यह भी बाकी त्यौहारों की तरह अपने मूल स्वरूप से भटकने की आहट दे रहा है।
यह मुझे ज़रा भी स्वीकार नहीं लेकिन जिस प्रकार से बदलाव हावी हो रहे हैं, आने वाली दो-तीन पीढ़ियों तक यह तय है कि सदियों से मनाए जाने वाले अतरंगी छठ की छठा भी बज़ारवाद में विलुप्त हो जाएगी।