अभी हाल ही में इलाहाबाद का नाम बदलकर ‘प्रयागराज’ कर दिया गया, जिसके बाद सोशल मीडिया पर चर्चा का बाज़ार काफी गर्म हो गया। कई लोगों ने इसे सांप्रदायिक करारा देते हुए विकास पर ध्यान केन्द्रित करने की बात कही। मेरी उन लोगों से असहमति हो सकती है लेकिन मैं उनका विरोध नहीं कर सकता।
विकास तो उस समय भी बहुत बाधित हुआ होगा जब अतीत में मंदिर तोड़े जा रहे होंगे, हिन्दू नगरों के नाम बदले जा रहे होंगे और ज़बरन हिंदुओं का धर्मांतरण कराया जा रहा होगा। एक समुदाय ने तालियां बजाई होगी तो दूसरे ने अपमान का घूंट पिया होगा। खैर, यह तो इतिहास है जिसे भूलना ही ठीक होगा। इसे नामकरण को प्रतिक्रियावादी दृष्टिकोण से देखना शायद उचित नहीं होगा।
समस्या तब उत्पन्न होती है जब बुद्धिजीवी वर्ग के लोग भी अपनी मज़हबी संस्कृति को पोषित करने जैसी बातों के लिए खामोश हो जाते हैं। भले ही उसमे कुतर्क कूट-कूट कर क्यों ना भरा हो लेकिन तथाकथित बुद्धिजीवी चिल्लाते भी खूब हैं। कभी-कभी तो व्यक्ति विशेष के प्रति आक्रोश उबाल पर हो जाता है।
यह मेरी समझ से परे है कि किसी पौराणिक नगर का नाम बदल देने से विकास कैसे बाधित हो जाएगा। सोचने वाली बात यह भी है कि अगर विकास बाधित होती भी है, तो कितने समय के लिए? पौराणिक नगरों के नाम बदलने के लिए एक अध्यादेश और एक संशोधित सूची को इंटरनेट पर डालने में जितना समय लगेगा, बस उतने समय की ज़रूरत है। इसमें विकास बाधित होने से कहीं ज़्यादा स्वीकार्यता का मामला है।
संविधान सम्मत रूप से किसी की भावना को ठेस पहुचाए बिना अगर कोई संस्कृति सरंक्षण का कार्य होता है, तो उस निर्णय का स्वागत किया जाना चाहिए।
अगर हर निर्णय से किसी का दिल दुख रहा हो, तो इसकी परवाह न्यूनतम रूप से की जानी चाहिए। यदि हम ऐसा नहीं करेंगे, तब कोई अहम निर्णय नहीं ले पाएंगे। अगर इस देश के नागरिकों को अपने नगर या तीर्थों का नाम बदलने से अपनी चेतना और स्वाभिमान का अनुभव होता है, तो इसमें गलत क्या है? बहुत सारे नगरों के नाम बदले गए हैं। इसमें हिन्दू-मुस्लिम की बात कहां से आती है? और अगर ये दर्द बर्दास्त ना हो तो मध्यकालीन इतिहास पढ़िए, थोड़ी राहत तो मिलेगी ही।
यह समय कुतर्क करने का नहीं है, बल्कि इस देश के मान, सम्मान और स्वाभिमान के साथ चलने का है। इसलिए हे तीर्थराज, प्रयागराज आपके नये नाम पर आपका अभिनंदन है, वंदन है और गर्व भी है।