लोकतंत्र का महापर्व चुनाव के तौर पर हमारे देश में हर पांच वर्षों में मनाया जाता है। इसी दरमियान हम राजनीति को अपने करीब से गुज़रते हुए देखते हैं लेकिन विडंबना यह है कि हम अपने प्रतिनिधि से प्रश्न पूछने से डरते हैं।
मैंने पढ़ा और सुना है कि राजनीति का एक धर्म होता है लेकिन जब हकीकत से रूबरू हुआ तो पाया कि हमारे देश में हर घड़ी धर्म की राजनीति हो रही है। क्या ये मानकर चला जाए कि देश की सियासत का कद इस देश से भी बड़ा हो गया है और कुर्सी इंसानियत से भी बड़ी।
जब इतिहास के पन्ने पलटे जाते हैं तो हमें यह ज्ञात होता है कि किस प्रकार समाज के गलियारे में सत्ता के भूखे गीदड़ घूम रहे हैं, जो चुनाव के वक्त आपके सामने नतमस्तक होकर आग्रह करेंगे और चुनाव होने के बाद वह आपको अपना सेवक बना देंगे।
जब जवाबदेही की बारी आएगी तो हमारे प्रतिनिधि हमें जात-पात, मंदिर-मस्जिद और गाय-गोबर जैसे मुद्दों में भटका कर या यूं कहें हमें गुमराह कर ईवीएम के ज़रीए सत्ता की बागडोर अपनी जेब में रख लेते है। चाहे वह सत्ता पक्ष हो या विपक्ष।
यदि बात शिक्षा की करें तो हमारी शिक्षा प्रणाली गुरुकुल से होकर 10/15 के कमरे में आकर सिमट गई है। पहले गुरुकुल में आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ विज्ञान का सुचारु प्रवाह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंचाने जैसा पढ़ाया जाता था, लेकिन अब इस विधि की ज़िम्मेदारी वातानुकूलित कमरे के कुर्सी में सफेद तौलिये लगा कर बैठने वाले नेता जी ने ले ली है।
हम उसी घिसी-पिटी शिक्षा प्रणाली पर चल रहे हैं जो गुलामी के दौर में अंग्रेज़ों द्वारा बनाई गई थी। आज हम बहते-बहते इस किनारे पर आ गए हैं कि हमें शिक्षा के नाम पर ग्रेड और प्रतिशत तक सीमित रख दिया जाता हैं।
विडंबना तो यह है कि हमारा देश राइट और लेफ्ट में बंट गया है और बीच में चलने वाले के लिए कोई जगह ही नहीं बची है। यदि कोई प्रश्न पूछे तो वह गुनहगार, ना पूछे तो चाटुकार और सबसे दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि हमारे युवा आज बहुत लाचार हो गए हैं।
खासकर जब झारखंड की बात की जाए तो यहां की हालत काफी बदतर है। सरकारी कॉलेजों की दयनीय स्थिति के अलावा शिक्षकों की भी हालत बेहद खराब है। डिग्री तो है लेकिन पढ़ाने की शैली मालूम नहीं। सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में सेमेस्टर की परिक्षाएं 6-8 महीने की देरी से चलती है।
यदि देश में पेट्रोल दो रुपया महंगा हो जाए तो हम अपने आकाओं के कहने पर इस देश की संपत्ति को फूंक देते हैं लेकिन जब चोंगा लगाकर कोई नेता भाषण देता है, तब हम अपने मुंह में धागा बांध लेते हैं।
राजनीतिज्ञों को समझना होगा कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी बुनियादी चीज़ें तो हर किसी को चाहिए। वे क्यों नहीं समझते कि हमें मंदिर नहीं कॉलेज चाहिए, हमें मस्जिद नहीं डॉक्टर चाहिए, हमें बड़ी-बड़ी मूर्तियां नहीं, रोज़गार चाहिए।
1999 में एक वोट से सरकार गिरने पर सदन में अपनी बात रखते हुए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “सरकारें आएंगी, सरकारें जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, लेकिन देश का लोकतंत्र ज़िंदा रहना चाहिए।”
वक्त आ चुका है जब हमें अपनी आवाज़ बुलंद करते हुए अपने नेतृत्वकर्ता से सवाल पूछना चाहिए कि विकास की रफ्तार इतनी सुस्त क्यों हैं। सरकार तब क्या कर रही थी जब हमारे टैक्स का पैसा लेकर कुछ लोग देश से फरार हो गए। यदि सरकारी नौकरी की चयन प्रक्रिया में कोई पास गया हो, तो उसे नियुक्ति पत्र क्यों नहीं दिया जा रहा?
सरकार बिजली नहीं देती तो हम जेनरेटर लगवा लेते हैं, सरकारी स्कूल में पढ़ाई नहीं होती तो प्राइवेट में दाखिला ले लेते हैं, नल में पानी नहीं आता तो बोरिंग करवा लेते हैं। ज़रा सोचिए, फिर हम सरकार क्यों चुनते हैं?