एक सवाल अकसर मेरे आगे आकर खड़ा हो जाता है कि राम जन्मभूमि के मुद्दे पर क्या हम कानून की लड़ाई नहीं लड़ सकते थे। अगर कानून से अलग, हमें राम जन्मभूमि के मुद्दे पर अपनी राय को सार्वजनिक करना था तो क्या किसी अहिंसक तरीके से राम जन्मभूमि के मुद्दे पर आंदोलन नहीं किया जा सकता था।
आखिर क्या वजह थी कि पहले राम जन्मभूमि आंदोलन की भूमिका बनाई गई, फिर रथ यात्रा द्वारा भाजपा ने इस मुद्दे को आस्था से होते हुए राजनैतिक जामा पहनाया और राम जन्मभूमि के मुद्दे पर ही वह सत्ता में विराजमान होना सुनिश्चित बना रही थी लेकिन राम जन्मभूमि के मुद्दे पर इतनी उग्रता और हिंसा क्यों?
क्यों जगह-जगह दंगे हुए, आगजनी, छुरे बाज़ी में लोगों के कत्ल हुए और निर्दोष खून भी सड़क पर बहाए गए, क्यों? अगर थोड़ा सा विश्लेषण करें तो हम देखते हैं कि हिंसा, उग्रता कुछ समय के लिए इंसानी स्वभाव को बुद्धिहीन कर देती है और वह सबकुछ भूलकर हिंसा में किसी ना किसी रूप से खुद को घायल समझता है। नतीजन उसके दिल में नफरत की भावना पैदा होती है, जहां वह किसी भी तरह से हिंसा का जवाब देना जायज़ समझता है।
हिंसा अपना असर हर शख्स पर छोड़ती है, चाहे वह इस हिंसा से पीड़ित हो या लाभार्थी। मसलन, 1984 में सिख कत्लेआम में जहां पूरा भारत कॉंग्रेस की शमूलियत को जानता था वही इस कत्लेआम के बाद हुए आम चुनाव में कॉंग्रेस के चुनावी चिन्ह पर अपनी मोहर लगाकर इसे अपनी स्वीकृति दे रहा था लेकिन इन्हीं कत्लेआम से पीड़ित सिख समाज, पंजाब में कॉंग्रेस को चुनाव के माध्यम से नकार रहा था।
इस सरकारी कत्लेआम से यह बात निश्चित थी कि दंगों से, हिंसा से, चुनावी जीत हो सकती है बस तय यह करना होगा कि बहुताय समाज के जज़्बात इन दंगों से आहत हो जो चुनाव के ज़रिये इनपर अपना फैसला सुनाये।
अब यह यकीनन कहने की ज़रूरत नहीं है कि राम जन्मभूमि के आंदोलन ने किस तरह एक गुमनाम भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया। बस हिंसा के लिए माहौल बनाने की ज़रूरत थी जिसका काम राम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से किया जा सकता था। यह विश्लेषण तो करना ज़रूरी है कि हमारा समाज किस तरह इतने बड़े पैमाने में हिंसा को जायज़ ठहरा सकता है।
मसलन, कोई ऐसा सार्वजनिक ज़रिया हो जहां किसी-ना-किसी माध्यम से हिंसा का विस्तार किया जा सके। एक आम इंसान की नज़रों में हिंसा को जायज़ ठहराया जा सके और इस समय टेलीविज़न से बड़ा माध्यम क्या हो सकता है।
सार्वजनिक माध्यम से हिंसा का विस्तार कानूनी रूप रेखा में ही निर्धारित किया जा सकता है। जहां धारावाहिक रामायण ने श्री राम को आस्था के शिखर पर बैठा दिया वही धारावाहिक लव कुश ने सत्ता के विस्तार पर भी मोहर लगा दी। यहां आस्था के रूप में सत्ता को स्वीकृति मिल रही थी। अब इसी माध्यम से धारावाहिक महाभारत को भी टेलीविज़न के पर्दे पर उतारा गया। जहां आस्था भी थी, सत्ता भी थी, राजनीति और कूटनीति भी थी लेकिन सबसे ज़्यादा हिंसा अपने चरम पर थी।
1988 जुलाई में जहां रामायण धारावाहिक का अंत होता है उसके चंद महीनों बाद उसी समय रविवार सुबह 9 से 10 के बीच धारावाहिक महाभारत का आरंभ साल 1988 के अंत में हो जाता है। अगर इसके कुछ शुरुआती प्रसंग हटा दिए जाए तो बचपन से ही कौरवों और पांडवों में दुश्मनी के हालात पैदा कर दिये गये।
द्रोणाचार्य के रूप में युद्ध की शिक्षा भी दी जाने लगी। भीम जहां बचपन में ही 100 हाथियों के बराबर बल रखता था, वही दुर्योधन से उसकी ज़्यादा नहीं बनती थी। यहीं से दुश्मनी और हिंसा का प्रसार शुरू कर दिया गया था। जहां क्या पांडव, क्या कौरव, सभी बाल व्यवस्था से हर तरह के हथियारों से लैस थे जिनमें भाला, तीर-कमान, गदा इत्यादि प्रमुख थे।
यहां एक प्रसंग है, जहां पर आदिवासी के रूप में मौजूद एकलव्य को द्रोणाचार्य युद्ध नीति सिखाने से मना भी करते हैं, वहीं कुछ समय बाद एकलव्य से उसके अंगूठे के रूप में गुरुदक्षिणा की भी मांग करते हैं। मसलन, युद्ध नीति सिर्फ क्षत्रियों के लिये ही मान्य थी। वहीं द्रोणचार्य के रूप में एक ब्राह्मण ऋषि की छवि को प्रस्तुत करके, युद्ध नीति, शिक्षा का अधिकार सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण और क्षत्रिय समाज तक सीमित था। वहीं इस धारावाहिक में आगे चलकर महाराजा कर्ण को बार-बार सूतपुत्र कहकर नीचा दिखाया जाता था।
मसलन, एकलव्य और महाराजा कर्ण के रूप में जहां इन्हें शिक्षा और युद्ध नीति से वंचित रखने के अथाह प्रयास किये जा रहे हैं वहीं महाभारत के कार्यकाल में जात-पात, छुआछूत, ऊंच-नीच को चिन्हों के माध्यम से बताया जा रहा है। 1988 में एक धारावाहिक के रूप में इस तरह से उत्तेजित होकर, राष्ट्रीय चैनल दूरदर्शन पर जात-पात को बढ़ावा दिया गया। इस कदर इसे बताया जाना और इसपर कोई सवाल भी ना होना, अपने आप में आस्था के रूप में मौजूद जात-पात को सार्वजनिक रूप से जायज़ ठहराया जा रहा था।
इसके आगे, जहां रामायण में सीता का स्वयंवर भी एक ताकत की ही मिसाल थी, वहीं महाभारत में द्रौपदी का स्वयंवर भी एक ताकत की ही कहानी बता रही थी। जहां एक प्रसंग पर द्रौपदी के रूप में महिला, कर्ण को इस स्वयंवर में सूतपुत्र कहकर भाग लेने से रोकती है, जिसका इशारा खुद श्री कृष्ण करते हैं। मसलन, समाज के दो पिछड़े और मूलभूत अधिकारों से वंचित महिला और जात-पात की मार सह रहा समाज का पिछड़ा हिस्सा, दोनों एक दूसरे के सामने खड़े होते हैं। ब्राह्मणवाद की इस चतुरता पर किसी ने सवाल नहीं उठाये वैसे आज भी हालात ज़्यादा नहीं बदले हैं, आज भी समाज के पिछड़े हिस्सों को ही लड़ाया जाता है।
मसलन, 1984 में सिख कत्लेआम, 2002 का मुसलमान कत्लेआम दोनों जगह हिंदू की पैरवी ज़्यादातर दलित समाज ही कर रहा था, जिसे अकसर जात-पात के नाम पर उसके इंसानी मूलभूल अधिकारों से भी वंचित रखा जाता है। इसके आगे द्रौपदी को पांडवों द्वारा भिक्षा का नाम लेकर अपनी मां कुंती को बताना और कुंती के कहने पर इसका बंटवारा पांचों भाइयों में करना, जहां द्रौपदी पांचाली बन जाती है मतलब पांचों पाडवों की पत्नी।
यहां भी पुरुषप्रधान समाज की पैरवी दिखाई जा रही है। जहां द्रौपदी बस एक महिला के नाम पर शांत खड़ी है और हर फैसले को अपनी स्वीकृति इस तरह दे रही है जहां उसके ना कहने की कही कोई गुंजाइश नहीं है।
आगे चलकर पांडव द्रौपदी को जुए में हार जाते हैं और द्रौपदी का वस्त्रहरण भरी सभा में क्षत्रिय, ब्राह्मण, ऋषि सबके सामने किया जाता है। जहां कोई भी द्रौपदी के बचाव में नहीं आता, जहां पांडव जुए में द्रौपदी को लगाते हैं वहीं कौरव उसे जीत जाते हैं।
महिला असहाय है और किसी भी तरह से सवाल करने में असमर्थ लेकिन यहां ये सभी प्रसंग किसी ना किसी रूप में महिला पर हो रही हिंसा का प्रगटावा ही करते हैं। जहां सब चुप हैं और टेलीविज़न के बाहर हम सब दर्शक चुप हैं, कहीं कोई सवाल नहीं है। यह भी एक कारण है, जहां आज महिला पर हो रहे ज़ुल्म बढ़ते जा रहे हैं क्योंकि इसके उदाहरण हमारी आस्था में मौजूद है।
शायद 1990 के दशक की शुरुआत होगी, मेरे ही घर के पास एक महिला ने खुद को आग लगाकर खुदकुशी कर ली थी। दूसरे दिन सब सामान्य था, कहीं भी कोई ऐसा प्रतीत नहीं हो रहा था कि कहीं कोई मौत हुई है। वही इसी समयकाल में राजस्थान में एक जगह एक औरत अपने पति के साथ चिता में ज़िन्दा जल गई थी, सती प्रथा पर अखबारों में खबर ज़रूर थी पर आस्था के नाम पर इस कत्ल का भी कहीं विरोध नहीं हुआ, कोई आंदोलन नहीं हुआ। होता भी कैसे आस्था के नाम पर सब जायज़ था।
आंदोलन तो राम जन्मभूमि का चल रहा था जिसके समानांतर किसी और आंदोलन के चलने की कोई गुंजाइश ही नहीं बची थी। वहीं हम सब यह जानते हैं कि राम जन्मभूमि आंदोलन में कितनी महिलाओं ने शिरकत की है। कई महिला नेताओं ने मंच से इसके लिए उग्र भाषण दिये हैं और बहुत महिला साध्वियों ने धर्म और आस्था के नाम पर आस्था के मंच से किस तरह राम जन्मभूमि का समर्थन किया है यह हम सब जानते हैं। जहां वस्त्र भगवा था और आवाज़ की उत्तेजना में हिंसा का समावेश पूरी तरह से था।
महाभारत धारावाहिक में एक और किरदार था श्री कृष्ण, जिनके बिना यह धारावाहिक इतना कबूल और मशहूर ना होता। जिस तरह से बचपन से ही श्री कृष्ण पर राजा कंश द्वारा जानलेवा हमले किये जा रहे थे कृष्ण इसका बचाव कर रहे थे वहीं शेषनाग को वश में करना हर जगह हिंसा थी और जायज़ भी था। वहीं कृष्ण माखन की मटकी फोड़ते हैं, गोपियों को नहाते हुए तंग करते हैं, महिला पीड़ित थी लेकिन भगवान की रासलीला के सामने धारावाहिक में सब बताया जा रहा था, जहां सब जायज़ था और कोई सवाल नहीं।
वहीं खुद श्री कृष्ण पाप और पुण्य का खाता रखते हैं, जहां जलसन्ध द्वारा 100 पाप किये जाने पर उसे मौत के घाट उतार दिया जाता है लेकिन क्योंकि खुद श्री कृष्ण भगवान थे उन्हें इस कत्ल का पाप नहीं लगता। मसलन, दर्शक के रूप में भी कोई सवाल नहीं थे। इसके फलस्वरूप अगर हम राम जन्मभूमि के आंदोलन को देखें तो आस्था के नाम पर यहां हिंसा को जायज़ ठहराया गया, जहां कोई हिंदू मरा उसे आस्था के नाम पर शहीद बताया गया और जहां कोई मुसलमान मरा वहां आस्था का हित सामने खड़ा करके उसे जायज़ बताया गया।
धारावाहिक कई पड़ावों से होकर गुज़रता है, जहां अंत में कौरव और पांडव युद्ध के मैदान में आमने-सामने होते हैं। जहां एक समय अर्जुन हिंसा का त्याग करना चाहता है लेकिन उनके युद्ध में सारथी बने श्री कृष्ण 18 अध्यायों की गीता का उपदेश देकर, खुद को सर्वशक्तिशाली भगवान बताकर, आस्था की रक्षा के लिये, धर्म के सम्मान के लिये हथियार उठाने को कहते हैं। अर्जुन हथियार उठाता है, जहां श्री कृष्ण द्वारा छल के माध्यम से भीष्म पितामाह, गुरु द्रोणाचार्य, महाराजा कर्ण, दुर्योधन इत्यादि को पांडवों द्वारा मौत के घाट उतारा गया।
हिंसा इतनी ज़्यादा थी कि युद्ध की रूपरेखा और गीता के उपदेश में ही इस धारावाहिक की बहुत सारी साप्ताहिक लड़ियां दिखाई गईं। मसलन, युद्ध टेलीविज़न के माध्यम से महीनों तक एक आम भारतीयों को दिखाया गया, जहां हिंसा अपने चरम पर थी और इसकी स्वीकृति एक आम दर्शक दे रहा था।
धारावाहिक के इसी समयकाल में राम जन्मभूमि का हिंसक आंदोलन हुआ। पहले कार सेवकों पर मुलायम सिंह के शासनकाल में उत्तर प्रदेश पुलिस ने गोली चलाई, नतीजन कल्याण सिंह की सरकार, भाजपा की सरकार भारी बहुमत से उत्तर प्रदेश की सत्ता पर कायम हो गई। जहां निश्चित रूप से दलित और महिलाओं ने भी अपने मतदान को भाजपा के पक्ष में किया।
तारीख 06 दिसंबर 1992 से ठीक पहले कल्याण सिंह ने बतौर उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री से इस्तीफा दिया। राज्य की व्यवस्था डगमगा गई और रामजन्म भूमि आंदोलन के रूप में बाबरी मस्जिद को ध्वस्त किया गया। इसके शिखर पर चढ़ें कार्यसेवकों की तस्वीरें अखबारों में दिखाई जा रही थीं और टेलीविज़न भी दिखा रहा था।
आस्था के नाम पर सब जायज़ था, दर्शक जो धारावाहिक रामायण, लव कुश, महाभारत में हिंसा को स्वीकृति दे चुके थे वह राम जन्मभूमि आंदोलन और इसके पश्चात हुई हिंसा पर कोई सवाल नहीं कर रहे थे।
शायद यही वजह थी कि 1995 में भाजपा ने पूर्ण रूप से बहुमत के साथ अपने पहले बड़े राज्य गुजरात में चुनावी विजय हासिल की थी। निश्चित ही आम लोगों ने राम जन्मभूमि के नाम पर, आस्था के नाम पर भाजपा को अपना चुनावी मत दिया था और आस्था को शिखर पर लाने के लिए धारावाहिक रामायण, लव कुश, महाभारत ने ज़मीन बनाने का काम निश्चित रूप से किया था। वहीं महाभारत में कृष्ण जी का किरदार निभाने वाले श्री नीतीश भारद्वाज 1996 में जमशेदपुर से भाजपा के टिकट पर लोकसभा के सांसद चुने गये।