छत्तीसगढ़ विधानसभा में वर्तमान स्थिति के अनुसार 49 सीटों पर भाजपा और 39 सीटों पर कॉंग्रेस काबिज़ हैं। एक सीट पर बसपा तथा एक पर निर्दलीय विधायक हैं। इनमें से अनुसूचित जनजातियों की 29 सीटें हैं। सन् 2008 में भाजपा करीब डेढ़ प्रतिशत मतों के अंतर से सत्ता में आई थी। सन् 2013 में यह अंतर आधा 0.7-0.8 % रह गया था। भाजपा ने तीन सीटें तो 1500 मतों के कम अंतर से हांसिल की थी। इसी प्रकार दस सीटों पर जीत का अंतर 1500 से 5000 मतों का था। राज्य में दो चरणों में मतदान हो रहा है। प्रथम चरण में 12 नवम्बर को 18 सीटों के लिए तथा 20 नवम्बर को राज्य के 72 सीटों के लिए मतदान होंगे।
इस चुनाव में सबसे दिलचस्प यह है कि भाजपा और कॉंग्रेस दोनों ही पार्टियों ने बिल्कुल अंतिम समय में घोषणापत्र जारी किया। ऐसा लगता है कि दोनों एक दूसरे के चुनाव घोषणापत्र का इंतज़ार कर रही थी। कॉंग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने शुक्रवार को जहां राजनांदगांव ज़िला मुख्यालय में घोषणापत्र जारी किया, वहीं भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और मुख्यमंत्री रमण सिंह ने शनिवार को घोषणापत्र जारी कर दिया।
अजीत जोगी ने 6 माह पहले ही अपने चुनावी वादों पर आधारित शपथ पत्र वितरित कर दिया था। हालांकि अब उन्होंने शनिवार को औपचारिक तौर पर पार्टी के प्रदेश कार्यालय में घोषणापत्र जारी किया। इस विधानसभा चुनाव में अजीत जोगी की पार्टी ‘जनता कॉंग्रेस छत्तीसगढ़’ बहुजन समाज पार्टी और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ रही है।
भाजपा पिछले 15 वर्षों से पूरी तरह कॉरपोरेट ताकतों की पैरोकार के रूप में काम कर रही है। उसने राज्य में 27 ज़िलों में प्राकृतिक संसाधनों को लूटने की खुली छूट बड़े कॉरपोरेट को दे रखी है। राज्य के उत्तरी क्षेत्र के सरगुजा में अडानी, जशपुर-रायगढ़ में जिंदल तथा बस्तर में एस्सार व अन्य कॉरपोरेट ताकतें जल, जंगल, ज़मीन व अन्य प्रकृतिक संसाधनों को खुलेआम लूट रही है।
इसके खिलाफ हो रहे जन प्रतिरोध को कुचलने के लिए बस्तर सहित पूरे राज्य का अधिकाधिक सैन्यीकरण कर रही है। तथाकथित माओवाद के दमन के नाम पर सशस्त्र बलों द्वारा आदिवासीयों की झूठे मुठभेड़ में हत्या, आदिवासी बालाओं से बलात्कार व हत्या तथा तमाम मानवाधिकारों का उल्लंघन करते हुए राज्य की जेलों को निरपराध गरीब आदिवासियों से भर दिया गया है।
बस्तर आदिवासी क्षेत्र में भाजपा के पास 12 में से चार सीटें हैं। इस बार जोगी भी यहां ज़ोर लगा रहे हैं। हालांकि राज्य में छत्तीसगढ़ जनता कांग्रेस (जोगी) को भाजपा की ‘बी’ टीम मानी जाती है तथा जोगी की नीतियां भी भाजपा की तरह नवउदारवादी हैं। अजीत जोगी जब नवगठित छत्तीसगढ़ राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने भूमंडलीकरण, निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों को लागू करते हुए छत्तीसगढ़ राज्य परिवहन निगम तथा शिवनाथ नदी का निजीकरण करते हुए उसे रेडियस वाटर कंपनी को बेच दिया था।
इस बार अजीत जोगी की पार्टी, बसपा और भा.क.पा. का चुनावी गठबंधन बना है। बसपा को गुजरात में हुए मुसलमानों के कत्लेआम (2002) के समय से ही सांप्रदायिक फासिस्ट भाजपा से कोई दिक्कत नहीं है। बसपा ने जनविरोधी नवउदारवादी नीतियों का कभी भी विरोध नहीं किया। झूठे वामपंथी भा.क.पा ने बस्तर की 2 सीटों के लिए अजीत जोगी से गठबंधन किया है।
बस्तर वही क्षेत्र है जहां आदिवासी मतदाता कई स्थानों पर बूथ तक नहीं पहुंच पाता लेकिन फिर भी उसके मत पेटी में पाए जाते रहे हैं। प्रधानमंत्री की इस क्षेत्र में दो तथा सरगुजा में एक सभा हो चुकी है लेकिन उन सभाओं का प्रभाव कुछ नहीं हुआ है। जनता जान गई है कि देश में सिर्फ कॉरपोरेट ताकतों के लिए अच्छे दिन आए हैं, आम जनता के लिए तो यह सिर्फ एक ज़ुमला है।
राजनांदगांव और दुर्ग क्षेत्र की छ: सीटों पर भी 12 नवंबर को मतदान होंगे। यह मुख्य रूप से साहू, यादव और कुर्मी समाज (ओ.बी.सी.) का क्षेत्र है। सन् 2013 के विधानसभा चुनावों में यहां 3.07 % वोट नोटा में पड़े थे। पूरे प्रदेश में भाजपा की जीत का कुल अंतर 0.7 प्रतिशत जो कि लगभग 80 हज़ार था। लोकसभा चुनाव 2014 में नोटा के मत 1.86 % रह गए। जीत का अंतर दस प्रतिशत हो गया था। इस बार मत प्रतिशत बढ़ने के आसार हैं।
सन् 1998 में मतदान प्रतिशत 60.37 था, जो साल 2013 में 77.82 प्रतिशत हो गया। प्रदेश में 13 ज़िले ऐसे हैं जहां महिलाएं अधिक संख्या में हैं। लगभग 33-34 विधानसभा क्षेत्रों में मतदान का प्रतिशत पिछली बार भी अधिक था। पूरे राज्य की तरह यह क्षेत्र भी बेरोज़गारी से त्रस्त है। अच्छी सड़कों को देखकर पेट नहीं भर सकता।
आज जब हवा बदलाव की चल पड़ी है तो नए समीकरण बनेंगे। एक अन्य बड़ा मुद्दा रमन सरकार के विरुद्ध अनुसूचित जनजाति बहुल बस्तर व सरगुजा क्षेत्र में बन गया है। सरकार ने वन अधिकार कानून के क्रियान्वयन में मनमानी के अनगिनत उदाहरण लोकहित के विरुद्ध पैदा किए हैं।
भू-राजस्व संहिता में बदलाव करके आदिवासियों की मालिकाना भूमि को औद्योगिकीकरण के नाम पर ज़बरन खरीदने के लिए लाए जाने वाले कानून से आदिवासी समाज का बड़ा हिस्सा भाजपा से नाराज़ है। वन अधिकार कानून के तहत लक्ष्य से बहुत ही कम आदिवासियों को भूमि का पट्टा मिला है। सामुदायिक वन अधिकार की स्वीकृति के बिना आदिवासी जन-जीवन की धुरी समाप्त हो जाएगी। इसका प्रभाव मैदानी क्षेत्रों के अनुसूचित जाति वाले क्षेत्रों में भी दिखाई दे सकता है। प्रधानमंत्री पूरी तरह चर्चा से बाहर हैं।
साधारण सीटों पर फर्ज़ी राशन कार्ड का मुद्दा हावी है। सन् 2011 की रिपोर्ट में 56 लाख गरीब परिवार थे, जबकि 72 लाख राशन कार्ड बनाए गए। पोल खुल जाने के बाद अब फर्ज़ी कार्डों को निरस्त करने की प्रक्रिया शुरू हो गई है। रमन सरकार का विकास का दावा झूठा साबित हो रहा है, क्योंकि गरीबों की संख्या बढ़ रही है। जब रमन सिंह ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, तब यहां 32 लाख परिवार गरीब थे। उनके 15 साल के कार्यकाल में ये गरीब बढ़कर अब 45 लाख हो गए हैं।
15 सालों से ये तथाकथित माओवाद के सफाए का दावा करते आए हैं। 15 साल पहले मात्र 2 ज़िले वामपंथी उग्रवाद से ग्रस्त थे और अब करीब 10 ज़िले ग्रसित हैं, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक विषमताएं बढ़ी हैं। आदिवासीयों का विकास के नाम पर विनाश हो रहा है।
वर्तमान विधानसभा में भाजपा दस सीटों से आगे है। इस बार यदि छ: सीटें निकल जाती हैं, तब भाजपा कष्ट में आ जाएगी। हालांकि जोगी-बसपा गठबंधन से भाजपा को फायदा पहुंच सकता है। सतनामी समुदाय के लगभग 3,50,000 मतों की भी महत्वपूर्ण भूमिका है। सतनामी समाज के तीन धर्मगुरुओं में से 2 कॉंग्रेस के साथ आ गए हैं। पिछले विधानसभा चुनावों में अनुसूचित जाति की 10 में से 9 सीटों पर कॉंग्रेस की हार हुई थी। भले ही जनता, भाजपा को बदलना चाहती है लेकिन राज्य में उसके प्रगतिशील विकल्प का अभाव है।
कॉंग्रेस स्वयं भूमंडलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों की शुरुआत करने वाली कॉरपोरेट परस्त जनविरोधी पार्टी है। यह आंतरिक गुटबाजी से ग्रसित तथा आत्ममुग्ध है। भाजपा की घोर जनविरोधी धुर दक्षिणपंथी नीतियों के खिलाफ कॉंग्रेस ने कोई मुकम्मल प्रतिरोध नहीं किया। जहां भाजपा कॉरपोरेट राज को लागू करने के लिए और जनता का ध्यान बटाने के लिए समाज, संस्कृति और इतिहास का कट्टर हिंदुत्व के आधार पर बड़े पैमाने पर सांप्रदायिकरण कर रही है, वहीं कॉंग्रेस भी उसकी प्रमुख प्रतिद्वंद्वी के रूप में नर्म हिंदुत्व के रास्ते पर चलकर अपनी छद्म धर्मनिरपेक्षता को तार-तार कर रही है।
वैसे इस बार आम जनता व कर्मचारियों में भाजपा के खिलाफ ज़बरदस्त आक्रोश है। किसानों के अलावा शिक्षकों/शिक्षाकर्मियों, संविदा कर्मचारी, आंगनवाड़ी कार्यकर्ता/सहायिका, मितानिन, स्कूल सफाई कर्मियों, मध्याह्न भोजन रसोइया, पुलिस कर्मी और साक्षरता प्रेरक आदि अपना रोष जाहिर कर चुके हैं।
विशेषकर 31 मार्च 2018 को देशव्यापी संचालित प्रौढ़ साक्षरता अभियान ‘साक्षर भारत’ के बंद होने से राज्य भर में 17 हज़ार प्रेरक (महिला व पुरुष) तथा राज्य संसाधन केंद्र के कर्मचारीयों को अपार कष्ट उठाना पड़ रहा है। निचले स्तर पर जो छोटी-छोटी संस्थाएं प्रदेश भर में भाजपा के साथ कार्य कर रही थी, उन संस्थाओं ने भी हाथ खींच लिया है।
नोटबंदी और जीएसटी का सबसे बड़ा दंश आम जनता को आज भी भुगतना पड़ रहा है। जीएसटी की वजह से छोटे व्यापारी भी भाजपा के विरोध में हैं। राज्य में शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली, पानी सहित तमाम जन-कल्याणकारी योजनाओं का तेज़ गति से निजीकरण किया जा रहा है। राज्य में अल्पसंख्यकों विशेषकर ईसाईयों पर संघ परिवार के हमले बढ़ते गए हैं। भाजपा के अंदर कॉंग्रेस के सारे दुर्गुण आ गए हैं। भाजपा को आज कॉरपोरेट सबसे ज़्यादा चंदा देते हैं। इसलिए यह पूरी तरह से एक अभिजात्य विचारों वाली शासक पार्टी बन चुकी है।
कॉंग्रेस की तरह वंशवाद पूरी तरह भाजपा में हावी है। कॉरपोरेट ताकतों को लाभ दिलाने के लिए भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर बढ़ा है। प्रशांत भूषण द्वारा रायपुर के पत्रकार वार्ता में रमन सिंह के बेटे अभिषेक सिंह पर पनामा पेपर घोटाला में लिप्त होने का आरोप लगाने के बावजूद स्थानीय अखबारों ने उसे नहीं छापा। देश की तरह राज्य में भी मीडिया घराने सत्तारूढ़ पार्टी की मंशा के अनुसार चलती हैं। उनके लिए किसानों की आत्महत्या का मुद्दा मायने ही नहीं रखता। आज भी बड़े पैमाने पर गरीब व भूमिहीन किसान ‘प्रवासी मज़दूर’ के रूप में उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब व अन्य राज्यों में खाने-कमाने के लिए जाते हैं।
चुनाव के मैदान में उतरी आम आदमी पार्टी (पूरे 90 सीटों पर), तथाकथित वामपंथी मोर्चा- भाकपा (2 सीटों पर) व माकपा (3 सीटों पर), समाजवादी पार्टी, गोंडवाना गणतंत्र पार्टी, जोगी कांग्रेस या बसपा, भाजपा एवं कांग्रेस से समान दूरी रखने की नीति की घोषणा के बावजूद, किसी भी रूप में उनका विकल्प नहीं बन सकती हैं। ये दल भी ठीक उन्हीं जनविरोधी कॉरपोरेट परस्त नव -उदारवादी आर्थिक नीतियों को अपने द्वारा शासित राज्यों में अमल में लाती हैं, जिन पर भाजपा व कॉंग्रेस अमल कर रही है। भाजपा और कॉंग्रेस के समान ही ये सारी पार्टियां भी शासक वर्ग की राजनैतिक प्रतिष्ठान हैं। इनसे जनता को किसी प्रगतिशील जन-विकल्प की उम्मीद नहीं है।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) रेड स्टार से छोटी सी उम्मीद दिखती है जो किसान आदिवासी संघर्ष के क्षेत्र राजिम व बिंद्रानवागढ़ सीट से अपने 2 संघर्षशील साथियों को खड़ा किया है। इस दल के घोषणापत्र में तमाम वो मुद्दें दिखाई पड़ रहे हैं, जो समाज के अंतिम पंक्ति पर खड़े व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए बनाए गए हैं।
इतना तो तय है कि राज्य के इस बार के चुनाव दिलचस्प होने वाले हैं। गांव के वोट अब किसी एक शक्तिमान के कहने पर या शराब, कंबल, लंच बॉक्स, मोबाइल, चप्पल या पैसा बांटने से नहीं पड़ सकते। जनता को मालूम है कि उनके लिए अच्छे दिन नहीं आए हैं। जनता विकल्प चाहती है, वह बदलाव चाहती है। अतः इस बार वोट का प्रतिशत, सीटें व परिणाम भिन्न होने की पूरी सम्भावना है।
नोट: लेखक ‘तुहिन देब’ छत्तीसगढ़ से स्वतंत्र पत्रकार हैं। इस लेख में प्रयोग किए गए आंकड़े इलेक्शन कमिशन ऑफ छत्तीसगढ़ के वेबसाइट से लिए गए हैं।