बांध के मुट्ठी हर ओर से
ये जो किसानों का
चला है आक्रोशी जत्था
नहीं समझ लेना तीरथ पर जा रहे हैं
ईश्वरीय सत्ता के आगे
झुकाने अपना मत्था !
दिल्ली जाकर ये संसद को घेरेंगे
सत्ता के मद को अपने बूते तोडेंगे
सुनायेंगे जग को अपना किस्सा
कि हड़प कर उनका सारा हिस्सा
फलफूल रही है दैत्य सरीखी
धनपशुओं की एक जघन्य जमात
देश में अबाध !
पर यह संसद क्यों मौन है
इसके भीतर जो बैठे हैं, कौन हैं ?
यही प्रश्न है मूल में
जिनका बोया खाता सारा देश
उनके ही प्रश्न-प्राण
क्यों निरस्त पड़े हैं संसद की धूल में!
बरसों बरस लाखों कृषकों ने
कर्ज़ के मारे त्यागे अपने प्राण
तब भी संसद में
शासन की काया पड़ी रही निष्प्राण
पर जब आयी जीएसटी की बारी
तो लूट की खातिर अर्ध्यरात्रि में ही
संसद बैठाने की हो गयी थी तैयारी!
यह सत्ता श्रमजीवी जन की हंता है
जान गये सारे कृषक बंदा हैं
पर यह संसद तो अपनी है
अनगिन कुर्बानी से इसकी बुनियाद बुनी है
इसकी खातिर हमने ही तो सरकार चुनी है!
चलो, चलें इसे बचाने
आसन पर बैठे बहरों को जगाने
कि मत बेमतलब मंत्र सुनाओ
खेती के संकट पर संसद का
सत्र बुलाओ… सत्र बुलाओ… सत्र बुलाओ !
नहीं तो होगा वह भी क्षण
सड़कों पर छिड़ेगा अंतिम रण।
( 29-30 नवंबर को संसद पर होने वाले देश भर के किसानों के विराट मार्च को समर्पित )