भारतीय लोकतान्त्रिक चुनावी प्रणाली में चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ने की परंपरा है। यहां लोकसभा में चुने सांसद अपना प्रतिनिधि चुनते हैं वह देश का प्रधानमंत्री होता है और विधानसभा में चुने विधायक राज्य का मुख्यमंत्री तय करते हैं। यह तो हमारे यहां की परंपरा है लेकिन अमूमन नागरिकों से पूछ लीजिये वे चेहरों पर ही वोट देते हैं।
पिछले कई विधानसभा चुनावों और 2014 के लोकसभा चुनाव में यही हुआ और इस बार भी यही हो रहा है। कॉंग्रेस बिना चेहरे के चुनाव लड़ती है और बीजेपी ने भारत के सभी चुनावों में चेहरे को केंद्र में रखा है और जनता भी अब चेहरे को देखती है। यह बात कॉंग्रेस जितनी जल्दी समझ ले उतना बेहतर है। समय के साथ बहुत कुछ बदलता है, लोगों का चुनावों के प्रति नज़रिया भी बदला है। आप भले लाख कह लीजिये कि मुद्दों पर चुनाव जीते जाते हैं पर नतीजे आपकी बातों को गलत साबित कर देंगे।
कॉंग्रेस राजीव गांधी के बाद से ही चेहरे के साथ चुनाव नहीं लड़ी है और उसके बाद से कॉंग्रेस कभी बहुमत में भी नहीं आई। बीजेपी आज के दौर में इंदिरा और राजीव गांधी का दौर वापस ले आई है उसके पास नरेंद्र मोदी जैसा चेहरा है जो अपने दम पर चुनावी नतीजों को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। वहीं कॉंग्रेस अभी इस हालत में नहीं है कि वह अकेले बीजेपी के दमदार चेहरे के समक्ष टिक सके इसलिए गठबंधन से वह बीजेपी को घेरने के प्रयास में है।
चेहरे का केंद्र में ना होना कॉंग्रेस और विपक्षी दलों के लिए नेगेटिव प्वाइंट है। बीजेपी आगामी लोकसभा के चुनाव में नरेंद्र मोदी के चेहरे के साथ ही चुनाव लड़ेगी यह तय है। अब कॉंग्रेस और विपक्षी दल भी चुनाव से पूर्व चेहरा तय कर लें तो बेहतर होगा अन्यथा किसी बड़े बदलाव की आशा नहीं की जा सकती।
हाल में आए अधिकतर सर्वेक्षणों को भी देखें तो जनता नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर अधिक पसंद कर रही है। अब यह ज़रूरी नहीं कि जनता मोदी के सभी कार्यों से संतुष्ट हो बल्कि विपक्षी पार्टियों द्वारा कोई मज़बूत विकल्प चेहरे के रूप ना दे पाने के कारण भी जनता मोदी जी के साथ जा सकती है इसकी संभावना अधिक है।
अब बात चुनावी मुद्दों की करें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में यूपीए के दस साल के शासनकाल से लोगों के भीतर जो गुस्सा था उसने बीजेपी के रथ को मज़बूती दी है और वो प्रचंड बहुमत के साथ सरकार में आई।
बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार ऐसे दो प्रमुख मुद्दे थे जिनपर बीजेपी ने जमकर प्रहार किया। किसानों से लेकर सेना तक के मुद्दों पर कॉंग्रेस पूरी तरह से बैकफुट पर चली गयी। हालांकि 2019 में जवाब अब बीजेपी को देना है परंतु कई मुद्दों पर विफलता के बावजूद वो गुस्सा जो कॉंग्रेस के प्रति लोगों में था वो अभी बीजेपी के प्रति नहीं है।
बीजेपी 2019 में इसका फायदा उठाकर फ्रंट फूट पर खेल रही है। इस बीच राम मंदिर के मुद्दे ने भी ज़ोर पकड़ा है। अधिकतर लोगों का कहना है कि बीजेपी यदि लोकसभा चुनाव से पहले राम मंदिर नहीं बनवाती तो उसे चुनावों में नुकसान होगा हालांकि इसमें मेरा मत है कि राम मंदिर मुद्दे की भावना को संभालने के लिए ही हिन्दुत्व के चेहरे योगी आदित्यनाथ को आगे रखा गया है, जिससे हिन्दुत्ववादी संगठन बीजेपी से छिटके नहीं।
कॉंग्रेस भी इन दिनों मंदिर-मंदिर चक्कर लगाकर, गाय उत्थान की बात करके कॉंग्रेस पार्टी के प्रति हिंदुओं के गुस्से को कम करना चाहती है लेकिन बीजेपी की पिच पर उसे हराना इतना आसान नहीं क्योंकि कॉंग्रेस की छवि ठीक इसके विपरीत रही है ऐसे में माया मिली ना राम वाला हाल कॉंग्रेस का हो सकता है।
अंततः कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री के चेहरे के रूप में आगे रखना बीजेपी के लिए ना केवल फायदेमंद साबित हुआ बल्कि बीजेपी मज़बूती से उभरी जिसका परिणाम हमें हिमाचल, झारखंड, जम्मू, गुजरात एवं पूर्वोत्तर के विधानसभा चुनावों में भी देखने को मिला। अब यदि 2019 के चुनाव में कॉंग्रेस चेहरे के साथ नहीं उतरती तो उसे इसका नुकसान हो सकता है।
वर्तमान की बात करें तो नरेंद्र मोदी के समक्ष राहुल गांधी ऐसा चेहरा नहीं हैं कि किसी बड़े करिश्मे की उम्मीद की जा सके। हालांकि राहुल गांधी की छवि में गुजरात के चुनावों के बाद से ही व्यापक बदलाव हुए हैं परंतु लोकसभा में राहुल गांधी को चेहरा बनाकर कॉंग्रेस का जीतना मुश्किल है और यह बात विपक्षी पार्टियां भी जानती हैं इसलिए चेहरे को लेकर एक आम सहमति विपक्षी पार्टियों में अभी तक नहीं बनी है। अब भारतीय राजनीति और जनता चेहरे के इर्द-गिर्द ही रहेगी यह सत्य है और इसी सत्य के साथ कॉंग्रेस और विपक्षी पार्टियां आगे लड़े तो ठीक अन्यथा वो बहुत बड़े फेरबदल की उम्मीद ना करे तो बेहतर है।
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(लेखक जनकृति अंतरराष्ट्रीय पत्रिका के संपादक हैं।)