‘ताजदार-ए-हरम’
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‘ताजदार-ए-हरम’ हकीम मिर्ज़ा मदनी की लिखी एक खूबसूरत ‘नाअत’ है जिसे सूफ़ी-बरेलवी विचार वाले भारतीय उपमहाद्वीप के लगभग सारे मुस्लिम सुनते हैं. साबरी बंधुओं ने इस नाअत को गाया फिर ‘आतिफ़ असलम’ ने भी और अब तो ये लगभग हर मुस्लिम गली-मुहल्ले और दरगाहों में बजते हैं.
इस ख़ूबसूरत नाअत को सुनते हुये कुछ लम्हों के लिये भूल जाइये कि ये किसी मजहब विशेष से जुड़ा है तो फिर यकीनन आपके क़ल्ब को बेइंतेहा सुकून पहुंचायेगा, क्योंकि इसकी कई पंक्तियाँ इतनी खूबसरत है कि उसे पढ़ते-सुनते हुये आप यकीन ही नहीं कर पाएंगे कि ये उस मजहब के अंदर से निकला है जहाँ गीत-संगीत, चित्रकला, मूर्तिकला आदि को लेकर बड़ा कट्टर नजरिया है और ये समझा जाता है कि ये गैर-इस्लामिक और हराम है. इस नज़्म में भी वही भाव है जिस भाव को हम अपने देवी-देवताओं की स्तुति और उनके कुछ मांगते हुये बयान करतें हैं. मसलन,
ताजदार-ए-हरम, हो निगाह-ए-करम/ हम गरीबों के दिन भी संवर जाएंगे
हामी-ए बे-कसां क्या कहेगा जहां/ आपके दर से खाली अगर जाएँगे
या फिर,
कोई अपना नहीं गम के मारे हैं हम/ आपके दर पे फ़रियाद लाएँ हैं हम
हो निगाह-ए-करम वरना चौखट पे हम /आपका नाम ले ले के मर जाएँगे
कई बार तो मिर्ज़ा मदनी ने नबी के साथ अपना ऐसा ताअल्लुक खींचा है कि सिवाय हैरान रह जाने के कोई और रास्ता नहीं बचता. विरह की वेदना मीरा की तरह मिर्ज़ा ने यूं बयान की है :-
क्या तुमसे कहूँ ऐ रब के कुँवर /तुम जानत हो मन की बतियाँ
दार फुरक़त ई तो आये उम्मी लक़ब/ काटे ना कटे हैं अब रतियाँ
तोरी प्रीत में सुध बुध सब बिसरी /कब तक रहेगी ये बेखबरी
गाहे बेफ़िगन दुज़दीदाह नज़र/ कभी सुन भी तो लो हमारी बतियाँ
इस्लाम का बहाबी संस्करण कहता है, “अल्लाह के अलावा किसी और से कुछ माँग नहीं सकते यहाँ तक कि नबी से भी नहीं” पर मिर्ज़ा साहब नहीं मानते. वो कह रहें हैं : –
आपके दर से कोई ना खाली गया/ अपने दामन को भर के सवाली गया
हो हबीब-ए-हज़ीन पर भी आक़ा नज़र/ वरना औराक़-ए-हस्ती बिखर जाएँगे
इसके आगे तो वो अपनी नाअत में ऐसे लब्ज़ लातें हैं जिसे गाने के कारण अमज़द साबरी कट्टरपंथियों की आँखों की किरकिरी बन गये थे और ये नाअत और ऐसे ही कुछ और नाअत गाने के अपराध में उन्हें गोलियों से भून दिया गया था. इस नाअत के वो लब्ज़ थे :-
मैकशों आओ-आओ मदीने चलें/ दस्त-ए-साक़ी ये कौसर से पीने चलें
याद रखो अगर, उठ गई इक नज़र/ जितने खाली हैं सब जाम भर जाएँगे
दाऊद भी एक पैगंबर थे जिन्हें मोज़िज़े में ईश्वर ने बेहद सुरीली आवाज़ दी थी. पूरा जबूर हजरत दाऊद के संगीत के इल्म का जिंदा मोजिज़ा है. दाऊद की सुरीली आवाज़ के बारे में तो कुरआन कहता है कि वो जब राग उठाते थे तो मदहोश होकर उनकी आवाज़ के साथ पहाड़ भी गाने लगते थे और परिंदे मदहोश होकर उनकी आवाज़ की ओर खींचे चले आते थे. खुद अपने वक़्त में जब नबी किसी अंसार के यहाँ शादी में गये तो अपनी बीबी आयशा से उन्होंने पहला सवाल यही पूछा था कि अंसार गीत-संगीत के बड़े प्रेमी होतें हैं तो क्या तुमने कुछ गाने वालियों को भी बुलाया है कि नहीं?
प्रश्न मुस्लिम उम्मा के सामने है कि इंसानी रूह को सुकून पहुंचाने वाले इन अज़ीम नेअमतों को वो स्वीकार करते हुये बाकी धर्म-मजहब वालों के उनके अपने माबूदों के लिये लिखी गई ऐसी ही स्तुतियों, वंदनाओं और प्रार्थनाओं को भी उतना ही सम्मान देंगें जितना एहतराम उनका अपने हुज़ूर के लिये लिखी इस नज़्म के लिये है या फिर तकरीबन ऐसे ही भाव को लेकर लिखे गये स्तुतियों, वंदनाओं और प्रार्थनाओं को शिर्क कहकर अपने से इतर सारी मानव-जाति को जहन्नमी घोषित करते रहेंगें?