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राजनैतिक सुधार का एक विचार ऐसा भी

भारतीय राजनीति के कुछ मौलिक समस्याएँ
 
भारत की बहुमतवादी लोकतांत्रिक राजनीति लोकतन्त्र के लिए मज़ाक बन कर रह गया है। हमारे देश में हर वयस्क को वोट देने का अधिकार तो है, लेकिन हर वोट का सम्मान नहीं मिलता. हर चुनाव में एक व्यक्ति जीत जाता है और बाकी सारे हार जाते हैं. जिसे हम लोकतंत्र कह रहे हैं वह वास्तव में ‘जुआ’ का खेल बन गया है. चाटुकारिता, रुपये के बल पर टिकट खरीदना, दबंगई, जातिगत विरोध कराने का हूनर, धार्मिक उन्माद फैलाने की महारथ, कुछ इसी तरह के हथकंडे अपनाकर लोग विधायक, मंत्री या सांसद बन रहे हैं. मामला टिकट का हो या सरकार चलाने का जनता से रिश्ता बस उनके वोट भर का है, और दुखद बात यह है कि जो जनता और पार्टी या नेता जी के बीच की सबसे मजबूत कड़ी ‘कार्यकर्ताओं’ की है उन्हें तो इन पार्टियों ने कहीं का नहीं छोड़ा. कुछ को ठेकेदार बनाया, कुछ को गुंडा, कुछ को चाटुकार बनाया और कुछ को झंडा थमा कर खूब घुमाया, मगर जब भी टिकट की बात तो आयी, नेता जी के बेटे-बेटी, पतहु, सगे सम्बन्धियों ने ऊपर ही ऊपर टिकट लूट लिया.
 
भारत में सांसद और विधायक का चुनाव मतदाता के भारी संख्या के साथ भी जूझ रहा है। मसलन किसी विधानसभा मे 2 लाख से भी ज्यादा मतदाता हैं वहीं किसी संसदीय क्षेत्र मे 14 से 20 लाख से भी ज्यादा मतदाता हैं। जिस कारण मतदाता की भागीदारी का महत्व घटता जा रहा है। सांसद और विधायक को इतनी बड़ी जनसंख्या और भौगोलिक क्षेत्र में खर्च करने के लिए मिलने वाला फंड विकास कार्य के लिए अपर्याप्त है जिससे आम जन में भी असंतोष की भावना का उभार हो रहा है।
 
एक दूसरी समस्या यह भी है कि भारत में किसी लोक सभा में 3 लाख मतदाता पर एक सांसद चुना जा रहा है वहीं दूसरी तरफ 15 से 20 लाख मतदाता पर एक सांसद चुना जा रहा है। इस तरह की विसंगतियों के कारण संसद में सभी मतदाता के प्रतिनिधित्व को समानता से भागीदारी नहीं मिल पा रही है। इस घटना ने भारत में हर एक वोट के समान अधिकार के वादा को तोड़ा दिया है। हालांकि इसका तर्क यह दिया जाता रहा है कि अगर जनसंख्या के आधार पर लोकसभा की सीटों का आवंटन हुआ तो इससे छोटे राज्यों को नुकसान होगा। मगर इस समस्या का सार्थक हल नहीं निकालने से वास्तविक जन भागीदारी का सवाल खड़ा हो गया है। इस समस्या का सार्थक हल निकालना होगा ताकि कम जनसंख्या वाले छोटे राज्यों के भागीदारी के मुद्दे को हल किया जा सके और अधिक जनसंख्या वाले बड़े राज्यों को प्रतिनिधित्व के समस्याओं को भी हल किया जा सके।
 
एक तीसरी समस्या यह है कि कार्यपालिका हर स्तर पर होते हुए भी लोकल सांसद और विधायक के प्रति जवाबदेह ना हो कर सरकार के सचिव और अपने आला अधिकारी के प्रति जवाबदेह है। लेकिन जनता वोट दे कर जिस सांसद-विधायक को चुनती है उसी को सारी समस्याओं का जड़ मानती है। हालांकि सांसद और विधायक का मुख्य काम राज्य और देश में कानून और नीति बनाने का है मगर सांसद और विधायक को विकास कार्य के लिए मिलने वाले विकास फंड ने उन्हें अपने लोक सभा और विधान सभा के विकास कार्य से भी जोड़ दिया है ऐसे में लोग विकास कार्य या कल्याणकारी योजना के ठीक रूप से लाभ नहीं मिलने से विधायक या सांसद को ही भला बुरा कहते हैं और काम न पूरा हो पाने पर वोट नहीं दे कर उन्हीं से बदला निकालते हैं।
 
ऐसे मे समस्याओं के संभावित निदान क्या हों?  
 
राजनैतिक सुधार आंदोलन (मूवमेंट फॉर पॉलिटिकल रिफॉर्म्स ) उस चिंतन से जन्म लिया है जो आज के दौर में उभरते राजनैतिक और लोकतान्त्रिक संकटों से मूलभूत बदलाव के लिए प्रतिबद्ध है। हम भारत में चुनाव सुधार चाहते हैं। हम अभी की चुनाव प्रणाली फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम के साथ-साथ प्रपोर्शनल रीप्रजेंटेशन (अनुपातिक प्रतिनिधित्व) सिस्टम यानी जिसकी जितनी हिस्सेदारी उसकी उतनी भागीदारी को भी लाना चाहते हैं। इसके लिए चाहे लोक सभा में सीट बढ़ाना हो या अलग से सदन बनाना हो, मगर हम इस तरह के बदलाव के पक्ष में हैं।
 
हमारा यह भी मानना है कि सिर्फ पार्टियों को राजनैतिक हक दिला देने भर से जनता को बहुत कुछ हासिल नहीं होगा. इसलिए यह जरुरी है कि जनता जिसे वोट कर रही है वे हारे या जीते, उसके मत प्राप्त उम्मीदवार को सरकार के काम में भागीदारी करने का मौका मिले. हम हर उम्मदीवार को ‘जिला सभा’ का गठन करा कर उसके मार्फत जिला भर के विकास कार्यों की निगरानी और नए-पुराने काम के प्रस्ताव को पास कर सकें ऐसा सिस्टम बनवाना चाहते हैं।
 
हम पार्टी के कार्यकर्ताओं के साथ हैं, क्योंकि पार्टी के कार्यकर्ता ही लोगों और पार्टी के बीच की सबसे मजबूत कड़ी है। हम आम लोगों के लिए राजनीति की प्रवेश बाधा को तोडना चाहते हैं। पार्टी टिकट दे, न दे अगर कोई व्यक्ति चुनाव लड़ कर एक न्यूनतम जरुरी वोट शेयर प्राप्त करने का माद्दा रखता है तो भले ही वह हारे या जीते, ‘जिला सभा’ का सदस्य बन सकता है।
 
हम यह मानते हैं कि उम्मीदवार के एक न्यूनतम वोट प्रतिशत से अधिक वोट पाने पर सरकार उसके वोट शेयर के आधार पर वेतन और भत्ता दे ताकि वह सामाजिक-राजनैतिक काम कर सके.
 
जिला सभा का गठन और काम क्या होगा?
 
‘जिला सभा’ मे जीता हुआ उम्मीदवार यानि सांसद और विधायक के साथ 6 प्रतिशत से ज्यादा मत प्राप्त ऊमीद्वार को ‘जिला सभा का सदस्य’ मनोनीत किया जाएगा। ‘जिला सभा’ मे सांसद-विधायक के साथ ‘जिला सभा सदस्य’, जिलाधिकारी और सरकार के हर विभाग के जिला स्तर के अधिकारी शामिल होंगे। जिला सभा की बैठक हर महीने नियमित रूप से होगी, जब कभी संसद और विधान सभा या विधान परिषद का अधिवेशन या सत्र होगा उस समय को ध्यान मे रख कर जिला सभा की बैठक की तिथियाँ तय होंगी। ‘जिला सभा’ जिला भर के तमाम विकास कार्य और सरकारी योजना का निगरानी करेगी। जिला में वर्ष भर में हुए सभी विकास कार्य और केंद्र सरकार और राज्य सरकार की योजना का ‘प्रगति रिपोर्ट’ जिला सभा के समक्ष प्रस्तुत करना पड़ेगा। ‘जिला सभा के सदस्य’ जिला सभा के समक्ष विकास कार्य के प्रस्ताव रख पाएंगे और सांसद, विधायक और संबन्धित सरकारी अधिकारी सदन में चर्चा कर उस काम को एक निश्चित समय सीमा में तय करेंगे और किसी कारण वश वह काम पूरा नहीं हो सकता है तो सांसद, विधायक और संबन्धित अधिकारी निश्चित कारण बताएँगे कि आखिर वह काम क्यों नहीं पूरा कर पाये। ‘जिला सभा के सदस्य’ के वोट का पावर उन्हे मिले वोट के आधार पर तय किया जाएगा। यह प्रक्रिया प्रोपोर्शनल रीप्रजेंटेशन (अनुपातिक प्रतिनिधित्व) सिस्टम के आधार पर अपनाई जाएगी। एक प्रमुख बात यह कि जिला सभा में कोई भी निर्णय ‘गुप्त मतदान’ से नहीं लिया जाएगा। ‘जिला सभा’ के सभी कार्य, सूचना के अधिकार कानून, लोक सेवा के अधिकार कानून के तहत होंगे तथा वर्ष मे कम से कम दो बार सामाजिक अंकेक्षण के होने की बाध्यता होगी।
राजनैतिक सुधार आंदोलन के तरफ से वर्तमान राजनैतिक समस्याओं के संभावित निदान के जो प्रस्ताव दिये गए हैं हम उस पर विस्तृत चर्चा की अपेक्षा करते हैं। हम राजनैतिक सुधार के लिए अन्य संभावित प्रस्तावों को भी सादर आमंत्रित करते हैं। 
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