पिछले कई दिनों से योगी आदित्यनाथ उर्फ अजय सिंह बिष्ट की उत्तर प्रदेश सरकार फिर से चर्चा के केंद्र में है। चर्चा की वजह इस बार कोई फेक एनकाउंटर या पुलिसवाले की ठाएं-ठाएं की आवाज़ नहीं है बल्कि योगी जी का शहरों का नाम बदलने का जुनून है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि भाजपा को भारतीय संस्कृति से बेहद गहरा लगाव है। यहां भारतीय संस्कृति यानी मुगल काल के पहले वाली भारतीय संस्कृति यानी कि खांटी हिन्दू संस्कृति की बात हो रही है।
अब चूंकि इस खांटी हिन्दू संस्कृति के हिन्दुत्ववाद का तुष्टिकरण राम मंदिर बनाकर संभव नहीं हो पा रहा था तो हमारे हिन्दू ह्रदय सम्राट योगी जी ने सोचा कि चलो शहरों का नाम ही बदलते हैं।
इसकी कवायद यूपी में सबसे पहले शुरू हुई मुगलसराय जंक्शन के नाम बदलने के साथ। मुगलसराय जंक्शन यानी कि पूरब का वह सबसे प्रभावशाली जंक्शन जहां पूर्वोत्तर की सारी रेलगाड़ियां रुकती हैं और रेलवे के प्रशासनिक कार्यों के हिसाब से भी यह देश के सबसे महत्वपूर्ण जंक्शनों में से एक है। मुगलसराय जंक्शन को अब पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन के नाम से जाना जाता है।
मैं अक्सर ट्रेन में यात्रा करता हूं, बनारस-दिल्ली आना-जाना लगा रहता है। सबसे ज़्यादा हंसी तो तब आती है जब रेलवे अनाउंसर भी ‘पंडित दीनदयाल उपाध्याय जंक्शन’ का पूरा नाम नहीं लेकर बस ‘पंडित दीनदयाल’ कहकर संतोष कर जाते हैं। मुझे नहीं पता कि पंडित दीनदयाल उपाध्याय कौन थे और देश को बनाने या इसकी संरचना या आज़ादी में उनका क्या योगदान था।
हां, इतना ज़रूर मालूम है कि वह जनसंघ पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे थे, जिनकी लाश बाद में रहस्यमय स्थिति में मुगलसराय के आस-पास रेल की पटरियों के पास पाई गई थी। हो सकता है कि भाजपा उनको श्रद्धासुमन अर्पित करना चाहती हो पर इसके लिए इतने बड़े और प्रभावी जंक्शन का नाम बदलने की बात बेहद बचकानी लगती है।
गौरतलब है कि भाजपा अकसर कॉंग्रेस पर आरोप लगाती है कि कॉंग्रेसियों ने लाल बहादुर शास्त्री और सरदार पटेल की अनदेखी की या उन्हें यथोचित सम्मान नहीं दिया पर यह भी देखना अहम है कि यदि मुगलसराय का नाम बदलना ही था तो बेशक शास्त्री, उपाध्याय से बेहतर उम्मीदवार थे। क्या यह आरोप नहीं हो सकता कि भाजपा ने भी शास्त्री जी की अनदेखी की?
बहरहाल, इस आरोप-प्रत्यारोप के दौर में अभी मुगलसराय स्टेशन का नाम बदलने की बात लोगों के गले के नीचे उतरी भी नहीं थी कि योगी जी ने इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने का फैसला कर लिया। इस पर कई मीम बनें, ट्रोलिंग हुई पर योगी जी अपने फैसले पर अडिग रहें। नाम बदलना था, सो बदला गया। करोड़ों रुपये खर्च हुए, प्रशासनिक अधिकारीगण इस अतिमहत्वपूर्ण और अतिमहत्वाकांक्षी काम में लगाए गएं।
अकबर इलाहाबादी का एक शेर अर्ज़ है-
अफसोस है गुल्शन खिज़ां लूट रही है,
शाखे-गुले-तर सूख के अब टूट रही है
आमतौर पर किसी शहर का नाम बदलने के लिए स्थानीय विधायक द्वारा नए नाम के लिए एक प्रस्ताव विधानसभा में रखा जाता है जिसके पारित होने पर ही किसी भी शहर या मार्ग इत्यादि का नाम बदला जाता है।
खैर, यहां मामला कुछ और था क्योंकि बात माननीय मुख्यमंत्री महोदय की थी, इसके कुछ ही दिनों बाद योगी जी ने फैज़ाबाद का नाम बदलकर अयोध्या करने की बात की। इस पर बहस अब भी जारी है पर मुख्य सवाल यह है कि अचानक ऐसी जगहों के नाम क्यों बदले जा रहे हैं जिनका वास्ता किसी भी तरह से मुस्लिम धर्म के राजाओं से रहा है?
क्या नाम बदलना अब सरकारों के मुख्य एजेंडे में शामिल हो गया है? मिर्ज़ापुर का नाम बदलने की भी बात सामने आ रही है। सबसे दुख की बात यह है कि उत्तर प्रदेश को गंगा-जमुनी तहज़ीब का अनूठा उदाहरण माना जाता था पर यह सरकार उस तहज़ीब पर, उस संस्कृति पर चोट कर रही है।
इस बीच एक और खबर उड़ी कि गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी भी अहमदाबाद का नाम बदलकर कुछ और रखना चाहते हैं।
नाम बदलने की होड़ में विकास और बुनियादी ज़रूरतें पीछे छूटती दिखाई दे रही हैं। फर्ज़ करें, आज फर्रुखाबाद का नाम बदलकर राम राज्य नगर कर दें तो क्या वहां की सड़कें दुरुस्त हो जाएंगी? क्या वहां के अस्पतालों में जहां पिछले साल दवा और बेहतर इलाज के अभाव में करीब 50 बच्चे मर गए थे, क्या वे बच्चे वापस आ जाएंगे?
भारतीय राजनीति में ऐसा कम ही होता है जब किसी एक पार्टी की सरकार बहुमत में आती है। ऐसे में उस पार्टी के पास ना तो गठबंधन की मजबूरियां गिनाने का मौका होता है ना ही “विपक्ष हमें काम नहीं करने दे रहा है” वाला अचूक बहाना। सरकारों को खासकर के भारी बहुमत से चुनी गई सरकारों को इस तरह के बेकार के कामों में ध्यान ना लगाकर जनहित की योजनाएं बनाने में बुद्धिबल का प्रयोग करना चाहिए।
योगी जी, एक गरीब को क्या ही फर्क पड़ता है कि उसका इलाज “नेहरू स्वास्थ्य योजना” से हो या “दीनदयाल स्वास्थ्य योजना” से? मुझे पता है मेरी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया जाएगा क्योंकि यह उत्सव का दौर है, बहुमत का दौर है, भारतीय राजनीति के नामकरण के महोत्सव का दौर है।