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क्या पंचायत चुनाव धन, बल और जातीय समीकरणों में उलझकर रह गए हैं?

यह देश सदियों से गाँवों, खेत और खलिहानों का देश रहा है। अधिकांश लोग आज भी गाँव में निवास करते हैं। खेती, मज़दूरी और कुटीर उद्योग आज भी हमारी आजीविका के मुख्य स्रोत हैं। जीवन-यापन के लिए कड़ी मेहनत करना हमारी प्रकृति रही है। सामूहिकता और पंच परमेश्वर में विश्वास करना हमारी संस्कृति है। हमारे देश में मानव सभ्यता के उदय के साथ ही पंचायत राज व्यवस्था का भी आरम्भ हो गया था। पंचायत ही सम्पूर्ण देश की शासन और न्याय व्यवस्था का मूलाधार होती थीं।

स्थानीय सरकार प्राचीन काल में-

वेदों के अध्ययन से भी ज्ञात होता है कि उस समय प्रत्येक ग्राम आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से आत्मनिर्भर होते थे। ‘समिति’ नाम की एक सार्वजनिक संस्था होती थी जिसे पूर्ण स्वायत्तता प्राप्त थी।गाँव शक्ति संपन्न, स्वशासित, स्वविकास और सुशासन का प्रमुख केंद्र हुआ करते थे।

दुनिया की आय में 25% हिस्सा भारत का था। पंचायत मेंं लोगों का विश्वास था और लोगों पर पंचायत का प्रभाव, इसलिए भारत में ‘पंचों में परमेश्वर’ की कहावत प्रचलित थी। लॉर्ड मेटकाफ ने लिखा है, “भारत में सुख, शांति, समृद्धि और स्वतंत्रता का अधिकार श्रेय पंचायत को ही है”। मेगास्थनीज ने भी कहा है कि पंचायत ग्रामीण जीवन का ही नहीं अपितु समस्त भारतीय जीवन का अंग बन चुकी थी।

ब्रिटिश काल में-

ब्रिटिश राज्य का सबसे अफसोसजनक फल, ग्राम राज्य की प्रथा की समाप्ति के रूप में आया। शासकों की मंशा के अनुरूप पंचायत रूपी शक्तिपुंज नष्ट कर दिया गया। भारत गन्दगी, फटहाली और कंगाली का रूप बन गया। 70-80% लोग मुश्किल से ज़िन्दगी जी पा रहे थे। कार्ल मार्क्स के अनुसार ब्रिटिश भाप और विज्ञान ने हिंदुस्तान में कृषि उद्योग और कारखाना उद्योग को जड़ से उखाड़ फेंका।

वर्तमान काल में-

आज़ादी के बाद भी राजनीतिक सत्ता के प्रतीक सिर्फ केंद्र और राज्य रह गए।गाँवों का विकास इन दोनों सत्ताओं के बीच का खेल मात्र बनकर रह गया। महिलाएं और शोषित वर्ग सत्ता के नेतृत्व से वंचित हो गए।गाँवों की अर्थव्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गयी।

आज गाँव के 75% परिवारों की आय 5000 रुपये से भी कम है।गाँव के 51.14 करोड़ परिवार दिहाड़ी करते हैं। 5.37 करोड़ परिवार भूमिहीन हैं और 2.37 करोड़ परिवारों के पास या तो घर नहीं है या मात्र एक कमरा है।

दुनिया की आय में भारत की आय का हिस्सा लगातार घटा है। भारत के गाँव अब तेज़ी से उजड़ रहे हैं। मात्र 17.91 करोड़ परिवार गांवों में बचे हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के प्रतिनिधि शहरों में बसते हैं, अत: विकास की प्राथमिकता में शहर आगे हो गए। एक ओर जहां गाँव गरीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, अशिक्षा और बीमारी के पर्याय बन गए हैं, वहीं दूसरी ओर हमारे शहर, शिक्षा, उद्योग, सम्पन्नता और संचार के शक्तिपीठ बन गए हैं।

गाँव के विकास और नेतृत्व का नियंत्रण शहरों के हाथ में आ गया है। ग्रामीण सिर्फ सरकारें चुनने का ज़रिया बन गए हैं। अपनी सरकार चुनने और उसका नेतृत्व करने का सपना आज़ादी के 45 साल तक झूलता रहा।

खुशहाली का रास्ता-

अपनी सरकार बनाने का सपना पूरे होने की उम्मीद तब जगी जब 73वें संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों को तीसरी सरकार का संवैधानिक दर्जा दिया गया। 11वीं अनुसूची जोड़ी गयी जिसमें 29 विषय पंचायतों को दिए गए हैं। ग्राम सभा को समस्त पंचायती राज व्यवस्था का दिल दिमाग कहा गया है। इस कानून द्वारा आर्थिक व सामाजिक रूप से पिछड़े लोगों तथा महिलाओं को नेतृत्व में हिस्सेदारी दी गयी।गाँव के हर मतदाताओं को ग्रामसभा के सदस्य के रूप में अपनी सरकार का विधायक और वार्ड सदस्य को मंत्री का अधिकार दिया गया।

हो क्या रहा है ?

पंचायत तीसरी सरकार बनने के बजाय पहली और दूसरी सरकार की मात्र एजेंसी बनकर रह गयी है। पंचायत के चुनाव धन, बल, शराब और जातीय समीकरणों में उलझ गए हैं।

पंचायत का मतलब प्रधान और प्रधान का मतलब पंचायत हो गया है। मतदाता पंचायत के संवैधानिक स्वरूपों और अधिकार को जान ही नहीं पाए। चुने गए प्रतिनिधियों की इसमें दिलचस्पी नहीं होती। आइए हम सब मिलकर तीसरी सरकार-अपनी सरकार (पंचायत) की शक्ति को जानें, समझें और इसे लागू करें।

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