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क्या ग्रामीण महिलाएं जुड़ पाएंगी #MeToo मुहिम के साथ?

#MeToo

मी-टू कैंपेन

अमेरिका की सामाजिक कार्यकर्ता टराना बुर्के ने महिलाओं के साथ होने वाले यौन उत्पीड़न के खिलाफ साल 2006 में आवाज़ उठाई थी।  उन्होंने दुनिया भर की महिलाओं  को अपील करते हुए कहा था कि अगर वो भी इसकी शिकार हैं तो ‘मी-टू’ शब्द के ज़रिए खुलकर बात करें। अब यह इतना प्रचलित हो गया है कि भारत में भी एक-एक कर बड़ी-बड़ी हस्तियों तक के नाम सामने आ रहे हैं।

देखा जाए तो, MeToo की शुरुआत तब हुई जब हर महिला ने अपने साथ हुए अत्याचार और दुर्व्यवहार के खिलाफ बोलना शुरू किया। अपने अंदर के डर को किनारे रखकर बेबाकी से अपनी आवाज़ बुलंद की जिससे आज कई लोगों की बोलती बंद हो गई है। #MeToo इंटरनेट पर आया एक उफान है जो अपने साथ ऐसे कई लोगों को बहाकर ले जाना जानता है। वह भी एक ऐसे किनारे पर जहां उन्हें अपने किये पर पछतावा हो। कई लोगों की तो रातों की नींद भी गायब हो चुकी है और उन्हें लगने लगा है कि कहीं अब उनका नाम सामने ना आ जाए।

गौरतलब है कि कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन उत्पीड़न (रोकथाम, निषेध और निवारण) अधिनियम 2013’ नाम का कानून बना। इसके तहत किसी भी ऑफिस में 10 से अधिक कर्मचारी हैं तो वहां एक अनिवार्य आंतरिक शिकायत समिति होनी चाहिए जहां महिलाएं अपनी शिकायत दर्ज़ करा पाएं। 90 दिनों के अंदर समिति को शिकायत का निपटारा करना होगा नहीं तो ऑफिस पर जुर्माना लगाया जा सकता है या उसका लाइसेंस रद्द हो सकता है। हालांकि इसे लेकर जागरुकता की कमी दिखाई पड़ती है।

तनुश्री दत्ता के बाद कई अभिनेत्रियों और महिला पत्रकारों ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को इंटरनेट के ज़रिए साझा किया है। अब भी कई ऐसे ग्रामीण और शहरी इलाके हैं जहां महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार होते होंगे लेकिन उनके पास अपनी बात रखने के लिए कोई माध्यम नहीं है। वे चाहकर भी इंटरनेट तक नहीं पहुंच पाती हैं।

यह ज़रूरी नहीं कि महिलाओं के साथ ज़बरदस्ती करना ही यौन-हिंसा हो। अमर्यादित बातें, बेतुके सवाल और अंतरंग बातें भी एक महिला को कमज़ोर करती है। यह सब भी एक प्रकार की हिंसा है जिससे महिलाएं मानसिक तौर पर प्रताड़ित होती हैं।

#MeToo के ज़रिए आवाज़ उठाने वाली महिलाओं को लेकर अब ये भी कहा जा रहा है कि जब इनके साथ यौन शोषण हुआ, तब इन्होंने आवाज़ क्यों नहीं उठाई। मैं एक बात पूछना चाहतीं हूं कि क्या वक्त के साथ सच बदल जाता है? खुद सोचिए। अगर इन महिलाओं ने उस वक्त अपनी आवाज़ मुखर नहीं की तो हो सकता है, उनपर किसी तरह का दवाब रहा होगा। काम से निकाल देने या काम नहीं देने की धमकी मिली होगी। जितना ऊँचा ओहदा रहा होगा, धमकी भी उतनी ही बड़ी मिली होगी। कयास तो कई लगाए जा सकते हैं लेकिन इसी चुप्पी का फायदा उठाया गया। पर जब आरोप ला रहे हैं, तब आरोपों की तह तक पहुंचना ही चाहिए| जांच  तो होनी ही चाहिए ताकि हर उस इंसान का वह चेहरा सामने आए, जो उसने अपने प्रत्यक्ष चेहरे के पीछे छुपाकर रखा है।

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