मौजूदा वक्त में ना सिर्फ काँग्रेस ही अपने बुरे दौर से गुज़र रही है बल्कि अन्य विपक्षी दल भी काफी कमज़ोर से दिखाई पड़ रहे हैं। उनके पास चेहरे के तौर पर ना तो मोदी का कोई विकल्प है और ना ही अमित साह जैसा कुशल नेतृत्व वाला कोई शख्सियत। कार्यकर्ताओं में विश्वास की कमी और निराशा से भी इस बात को बखूबी समझा जा सकता है। इसके अलावा कई पार्टियों को मिलाकर एक महागठबंधन की गांठ हर पांच-दस दिन में खुलती और बंधती रहती है। इस महागठबंधन की गांठ ना जाने किस रोज़ खुलकर बिखर जाए।
देश की एक संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग 6 अक्टूबर दोपहर के 12:30 बजे प्रेस कॉन्फ्रेंस का वक़्त रखती है लेकिन अचानक ऐसा क्या हो जाता है कि समय को बढ़ाकर शाम 4:30 बजे कर दिया जाता है। बाद में यह बात निकलकर सामने आती है कि दोपहर 1 बजे प्रधानमंत्री मोदी की रैली है। अब विपक्ष ने तुरंत इसपर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि चुनाव आयोग ने मोदी की रैली की वजह से प्रेस कॉन्फ्रेंस के वक़्त में बदलाव किए हैं। ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर क्यों चुनाव आयोग ने पहले से तय प्रेस कॉन्फ्रेंस को रद्द कर शाम में स्थानांतरित किया? जैसे ही शाम को पांच राज्यों के चुनावों की तारीखों की घोषणा कर दी गई तब चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर सवाल उठने शुरू हो गए।
मुझ जैसे कई लोगों ने साल 2014 में परिवर्तन के लिए बीजेपी को वोट दिया था। अब तो सोचने पर विवश हो जाता हूं कि क्या ऐसे बदलाव के लिए हमने वोट दिए थे। विपक्ष तो कमज़ोर है ही लेकिन संवैधानिक संस्थाएं इतनी विवेकहीन और अहसहाय क्यों होने लगी? क्या उन पर कोई दवाब है? मेरे जैसे और भी लोग हैं जो बीजेपी-काँग्रेस में विश्वास नहीं रखकर लोकतंत्र और लोकतंत्र की नीतियों का समर्थन करते है, अब जब चुनाव आयोग की तरफ से इस तरह की बात निकलकर सामने आ रही है यह शर्मनाक है।
गुजरात चुनाव के वक्त भी तारीख को लेकर चुनाव आयोग सवालों के घेरे में आई थी। उत्तर प्रदेश में भी अाचार संहिता लागू होने के बावजूद प्रधानमंत्री को रोड शो करने का इजाज़त दे दिया गया था और आज की घटना से तो चुनाव आयोग ने इशारे-इशारे में साबित कर दिया कि कुछ तो गड़बड़ है।