सबरीमाला मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद एक बार फिर केरल शक्ति प्रदर्शन का अखाड़ा बन चुका है। मगर इस फैसले का विरोध पुरुष नहीं बल्कि महिलाएं भी कर रही हैं। सबरीमाला के फैसले के बाद केरल में बहुत कुछ बदल गया। जो राज्य कभी शांतिपूर्ण हुआ करता था, वो आज धरना प्रदर्शन का अखाड़ा बन चुका है। अयप्पा स्वामी के नारे लग रहे हैं । कोट्टायम, तिरुवनंतपुरम, कोच्ची, कालीकट और हर छोटे-बड़े कस्बों में पदयात्रा निकल रही है। इस बार पुरुषों ने नहीं बल्कि महिलाओं ने मोर्चा संभाला है।
कोट्टायम में महिलाओं के एक समूह से जब मैंने बात की तब उन्होंने कहा कि हम सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध कर रहे हैं। मैंने उनसे कहा, “फैसला तो आपके पक्ष में है,” तब उनका कहना था, “हम मंदिर के अंदर नहीं जाना चाहते।”
सबरीमाला मंदिर में दर्शन करने के लिए लोग मुख्यतः तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक, और तेलंगाना से आते हैं। वहां जाने के लिए कोई सीधा मार्ग नहीं है। रेल मार्ग कोट्टायम तक जाती है फिर कोट्टायम सड़क मार्ग से आप पम्बा नदी के तट तक जा सकते हैं।
ऐसे ही एक सफर के लिए हम भी निकल पड़े। कोट्टायम से पम्बा के लिए हमने बस लिया और इस दौरान दो परिवारों से हमारी मुलाकात हुई, उनमें से एक 42 साल के राधाकृष्णन थे जो विजयवाड़ा से अाए। उन्हें हिन्दी नहीं आती थी फिर भी वो हमसे जल्द ही घुल मिल गए। उन्होंने बताया कि वे उन्नीस वर्षों से लगातार यहां आ रहे हैं। जब हमने सबरीमाला में चल रहे विवाद पर उनकी राय पूछी तो उनका सीधा जवाब था, “800 सालों से चली आ रही परंपरा को कोर्ट कैसे खत्म कर सकता है?”
दो छोटे बच्चों के साथ बस में चढ़ते हुए एक और परिवार ने कहा, “मेरे परिवार की तो बात छोड़ दीजिए, “मेरे पूरे गांव की कोई भी महिला मंदिर नहीं जाना चाहती।” इस बहस के साथ हमारी यात्रा प्रारम्भ हुई। प्रकृति का ऐसा दुर्लभ नज़ारा शायद ही मैंने पहले कभी देखा होगा। ऊंचे-ऊंचे पर्वत, रबर के बागान और छोटे-छोटे पानी के झरने। ऐसा मनोहर दृश्य जो किसी मुर्दे में भी जान डाल दे।
नेल्लूर से दो छोटे बच्चों के साथ आया एक वयक्ति अय्यपा स्वामी का कीर्तन कर रहा था। उसका छोटा बच्चा जो रास्ते भर उल्टी कर रहा था, उसे दिलासा दे रहा था कि स्वामी सब सही कर देंगे। हम इस कीर्तन की लय में बंध गए थे और इसी बीच एक सहयात्री ने बताया कि आगे गाड़ी चेक हो रही है और महिलाओं को उतारा जा रहा है। मैंने कहा, “मगर हमें तो मंदिर में नहीं जाना है। उसने हमारी दोस्त की तरफ इशारा किया जिसने काले रंग का कपड़ा पहना था।”
हमने तमाम यात्रियों को भरोसा दिलाते हुए कहा कि हम आगे उतर जाएंगे। वहां खामोशी का वह मंज़र दिखाई पड़ रहा था मानो सामने कोई विपत्ति आ रही हो। हमने अपने गले में आईडी कार्ड लटकाया हुआ था, जिससे उन्हें लगे कि हम स्टूडेंट्स हैं। कुछ ही पलों में इंतज़ार खत्म हुआ और जैसी ही हमारी बस रुकी, महिलाओं की एक भीड़ हमारे बस के अंदर प्रवेश करते हुए हमारी भाषा और पोशाक पर हावी हो गई। हमलोग अंग्रेज़ी में स्टूडेंट्स-स्टूडेंट्स चिल्ला रहे थे लेकिन कोई सुनने वाला नहीं था। इंडिया टुडे की एक रिपोर्टर लाइव कवरेज के दौरान हमारे पास आई और उन महिलाओं को कहा कि ये स्टूडेंड्स हैं इन्हें मंदिर नहीं जाना।
मीडिया और पुलिस की सुरक्षा के बीच हमें बस से उतारकर एक होटल में ले जाया गया। वहां हमारी साथी ने ब्लैक ऑउटफिट बदल लिया। इसके बाद निरंतर लोग मूकदर्शक बनकर वीडियो बनाते हुए तमाम तरह के सवाल कर रहे थे कि कब और कैसे ये सब हुआ, जिसका हमारे पास कोई जवाब नहीं था। बस एक प्रश्न था कि यहां से सुरक्षित कैसे निकलें।
पुलिस ने हमें आश्वासन दिया कि वो हमें सुरक्षित रखेगी। इस बीच एक बस आ रही थी जिसपर हम बैठ गए, हमें नहीं मालूम था कि बस कहां जा रही है, बस उन हालातों से निकलना चाह रहे थे। इस मुद्दे को पूरे दिन टीवी पर दिखाया गया। किसी ने हमें झूठा तो किसी ने मीडिया का एजेंट बताया। अगले दिन सभी अखबार के फ्रंट पेज पर हमारी खबर छाप दी गई।
सबरीमाला फैसले ने पूरे देश में एक खुली बहस को छेड़ दी है। एक तरफ हैं नारीवादी जो कि सारे मुद्दों को मासिक धर्म और समानता के दृष्टिकोण से देखती हैं और दूसरी तरफ हैं अयप्पा स्वामी के भक्त, जो 800 साल से चली आ रही परंपरा की रक्षा हेतु प्रतिबद्ध हैं।
एक ओर नारीवादी समूह है जिन्हें धर्म और आस्था की कोई चिंता नहीं। उनका लक्ष्य बस मंदिरों में घुस जाना है। दूसरी ओर महिलाओं और पुरुषों का ऐसा समूह है जो भक्तिभाव के साथ स्वामी से जुड़ा है। उनकी आस्था और विश्वास इस परंपरा से जुड़ी है। ऐसे में मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा कि समानता की शुरुआत परिवार से होनी चाहिए। परिवार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि परिवार में समानता बरकरार रहे, तब समाज में नारी को समानता मिलेगी।