बॉलीवुड में कुछ फिल्में ऐसी बनती हैं जो भले ही ‘स्टीरियोटाइप्स’ को हमेशा के लिए ना तोड़ पाए लेकिन कुछ वक्त के लिए समाज में जागरुकता ज़रूर दिखाई पड़ती है। महिलाओं के ‘मासिक धर्म’ से जुड़े अहम मुद्दे पर आधारित निर्देशक आर. बाल्कि की फिल्म “पैडमैन” के साथ भी ऐसा ही हुआ। जिस मासिक धर्म वाले विषय पर बात करने से लोग परहेज़ करते थे, उसपर खुलकर बात होने लगी। सोशल मीडिया पर देखा गया कि आम लोग और सेलिब्रिटिज़ अपने हाथ में ‘सैनिटरी पैड’ पकड़कर सेल्फी खिंचवा रहे हैं। उस फिल्म के बनने के बाद देश में एक ऐसा माहौल तैयार हो गया जहां ‘मासिक धर्म’ जैसे मुद्दों पर खुलकर बात होने लग गई, जो अब से पहले शायद आमतौर पर होती नहीं थी।
ज़ाहिर है मैं भी इसी समाज से आता हूं, तो समाज के परिवेश में रहकर ‘सैनिटरी पैड’ और ‘मासिक धर्म’ जैसे विषय पर बात करने से परहेज करता था। एक रोज़ झिझक को तोड़ते हुए मैंने अपनी एक महिला मित्र से कहा कि चलो ‘पैडमैन’ देखकर आते हैं। उसका जो रिएक्शन था वह पुरूषवादी समाज के सामने मुझे बहुत जाएज़ लगा।
उसने कहा,
नहीं मैं तुम्हारे साथ नहीं जा सकती। पहली बात तो ये कि आस-पास की सीट वाले लड़के बहुत कमेंट करते हैं, जो मुझे अच्छी नहीं लगेगी। जब फिल्म यूट्यूब पर आ जाएगी तब मैं वहीं देख लूंगी।
जब वो राज़ी नहीं हुई, तब मैं अकेले ही ‘पैडमैन’ देखने अपने शहर के सिनेमाघर चला गया। फिल्म में कई ऐसे दृष्य दिखाए गए जहां खुले तौर पर पैड को लेकर चर्चा हो रही थी। पीरियड्स के संदर्भ में बात की जा रही थी। मुझे सबसे अजीब बात ये लगी कि जब अक्षय कुमार फिल्म के एक सीन में अपनी बहन के लिए ‘पैड’ लाकर उन्हें देते हैं, तब सिनेमाघर में बैठे औसत लोग तालियां और सीटी बजा रहे थे। ऐसा दिखाई पड़ रहा था कि कोई रोमांटिक सीन चल रहा हो। लगभग पूरी फिल्म के दौरान मैं अपने आस-पास की सीट पर बैठे दर्शकों के चिल्लाने और कुर्सी ठोकने की आवाज़ से इतना ही समझ पाया कि औसत लोग यहां अपनी अन्तर्वासना मिटाने आए थे।
पैडमैन देखकर आने के बाद सोचने लगा कि क्या थिएटर में चीखने और चिल्लाने वाले ये वहीं लोग हैं जो महिला सशक्तिकरण पर बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। हालांकि मुझे इसका जवाब मेरे एक निजी अनुभव के तौर पर मिल गया। फिल्म देखकर आने के अगले रोज़ मैं ज़िले के एक सरकारी दफ्तर में गया, जहां मेरी वह महिला मित्र कार्यरत हैं।
मेरी महिला मित्र से मिलने के बाद मुझे एहसास हुआ कि वो काफी उदास है। हाल समाचार पूछकर मैं आगे बढ़ ही रहा था कि उसने मुझसे कहा, एक मदद चाहिए थी, करोगे ? मैनें हामी भरते हुए बोला, हां ज़रूर करूंगा, बोलो। वो कहती हैं कि सॉरी मुझे तुमसे ऐसी बात नहीं करनी चाहिए लेकिन आज मेरी हालत बहुत खराब है। दोस्त हो, दोस्त की मदद तो कर ही सकते हो। प्लीज़ ‘सैनिटरी पैड’ ला दो। समय से पहले पीरियड शुरू हो गया, इसलिए मैं समझ नहीं पाई।
मुझे उसकी बातें अजीब ज़रूर लगी लेकिन कहीं ना कहीं फिल्म ‘पैडमैन’ देखने के बाद मेरे अंदर की झिझक खत्म हो गई थी। खैर, मैनें हम दोनों के एक म्यूचुअल फ्रेंड को कॉल किया और उसकी बाइक से जाकर पैड ला दी। अब समस्या यहां भी उत्पन्न होनी शुरू हुई कि उसे ये पैड दें तो कैसे? क्योंकि, यदि पैड देते किसी ने हमें देख लिया तो ना जाने क्या-क्या सोचेंगे।
ये सारी बातें मेरे ज़हन में चल रही थी और इसी बीच चुपचाप मैंने उसके हाथ में पैड पकड़ा दिया। मैंने कोई बहुत बड़ा काम भी नहीं किया लेकिन हां, मुझे काफी गर्व महसूस हुआ। उस रोज़ के बाद ना तो मैनें कभी अपनी महिला मित्र से मुझसे पैड मंगवाने वाली बात का ज़िक्र किया और ना ही उसने। लेकिन हां, हमारे रिश्ते और बेहतर हो गए।
इस दौरान एक चीज़ मुझे काफी परेशान कर रही थी। जब मैं अपनी महिला मित्र से बात कर रहा था तब दूर खड़े उसी के ऑफिस में काम करने वाले तमाम लड़के मुझे अजीब निगाहों से देख रहे थे। उन लड़कों को मैं पहचानता था मगर उनसे मेरी ज़्यादा बात नहीं होती थी। वे मेरी ओर इशारा करते हुए हमें अनकंफर्टेबल फिल करा रहे थे।
आलम यह हुआ कि मैं उस रोज़ के बाद जब भी ऑफिस जाता था, तब मेरे कुछ मित्र मुझे तंज कसते हुए कहा करते थे कि, “क्या रे मौगा, मौगी का सामान लाता है।” इस तरह के और भी अपमानजनक शब्दों के साथ मुझे ज़लील करने की काफी दिनों तक कोशिश की गई। यहां तक कि पूरे ऑफिस में आग की तरह यह खबर फैल गई कि मैंने अपने एक मित्र के साथ मिलकर अपनी महिला मित्र के लिए सैनिटरी पैड लाया है।
बहरहाल, कुछ दिनों के बाद मेरे तमाम दोस्त उन बातों को भूल गए और अब कोई ज़िक्र भी नहीं करता। मेरे लिए अच्छा भी है शायद, क्योंकि मुझे ज़लील नहीं होना पड़ता। मगर सवाल यहां पर मेरे ज़लील होने या ना होने से नहीं है, मसला है लोगों का इस फिल्म को गंभीरता से नहीं लेना। यदि वाकई में फिल्म “पैडमैन” बनने के बाद देश मे पीरियड्स, उससे जुड़ी समस्याएं और सैनिटरी नैपकीन को लेकर लोगों की सोच बदली है, तब आज भी मेडिकल या स्टेशनरी स्टोर से पैड खरीदते वक्त लोग इतने असहज क्यों दिखाई पड़ते हैं। धीमी सी आवाज़ में कहा जाता है कि काली पॉलिथीन में देना या तो पेपर में पैक कर के देना। इनमें वे लोग भी शामिल होते हैं जिन्होंने बड़े शान से सोशल मीडिया पर अपने हाथ में पैड पकड़कर सेल्फी खिंचावाई थी।
देश के औसत सरकारी कार्यालयों और कॉर्पोरेट जगत में कार्यरत महिलाएं जब माहवारी से गुज़रती हैं, तब उन्हें बार-बार क्यों ये पूछा जाता है कि आपको क्या हुआ है? आप आज सुस्त क्यों लग रही हैं। महिलाओं में माहवारी एक प्राकृतिक देन है जिसे इस समाज को स्वीकारना होगा।