हमारे शहर में, जब भी कोई धार्मिक रथयात्रा निकलती है, मसलन जन्माष्टमी पर हिंदू रथ यात्रा, ईद के मौके पर इस्लामिक रथ यात्रा और गुरु नानक देव जी के जन्मदिवस के उपलक्ष्य में निकाली गई सिख धार्मिक रथ यात्रा, इन सभी जगहों पर एक दृश्य आम होता है, सरकारी तंत्र की मुस्तैदी।
मसलन पुलिस का बहुत ही भारी बंदोबस्त, जहां पुलिस कर्मचारियों के साथ-साथ होमगार्ड के पास भी भारी भरकम हथियार देखे जा सकते हैं। इसी तरह चुनाव हो, राजनीतिक रैली हो या कोई भी प्रसंग हो जहां बहुत भारी भीड़ जुटने का अंदेशा हो, वहां इसी तरह के सरकारी इतंज़ाम देखे जा सकते हैं।
जहां तक मेरा मानना है अमूमन यह हर शहर और प्रांत का दृश्य होता है। यहां इतना भारी सरकारी तंत्र, बहुत बड़े हथियारों के साथ हर तरह से मुस्तैद, किस तरह के संकेत हमें देता है? निश्चित तौर पर हमारे लिए यह एक आश्वासन है कि सरकारी तंत्र हमारी सुरक्षा में मुस्तैद है लेकिन इसके दूसरे पहलू पर हम कभी ध्यान नहीं देते हैं, जो बहुत ज़रूरी है। हमें, एक आम नागरिक को किससे खतरा है? हम किससे असुरक्षित हैं? क्या कोई विदेशी हमले या साजिश का शक है? अगर है तो हमारा खुफिया तंत्र क्या कर रहा है?
आमतौर पर यहां यह संदेश है कि हमें हमारे ही लोगों से खतरा है। सुनने में यह अजीब लगेगा लेकिन अगर हम किसी चौराहे पर खड़े दो आम व्यक्तियों की बात पर भी गौर करें तो यकीनन हमारे देश में हिंदू को मुसलमान से और मुसलमान को हिंदू से खतरा है और इसकी भूमिका बहुत ज़मीनी स्तर पर बनाई गई है। राम जन्मभूमि, कश्मीर, पाकिस्तान, इस्लामिक आतंकवाद इत्यादि ऐसे शब्द हैं, जो समुदायों के आंतरिक कलह को और उग्र बना देते हैं।
अब इसी स्तर पर अगर हम राष्ट्रवाद, देशप्रेम के साथ-साथ राष्ट्रद्रोही, देशद्रोही की रूपरेखा को समझे और फिर निश्चित रूप से पुलिस एनकाउंटर को समझने की कोशिश करें तो बहुत ही सरलता से इसे समझा जा सकता है।
सितंबर 2018 को लखनऊ का विवादित पुलिस एनकाउंटर हुआ, जहां एक निर्दोष नागरिक विवेक तिवारी की हत्या, एक पुलिस कॉन्स्टेबल ने गोली मारकर कर दी। यहां यह समझना ज़रूरी है कि पुलिस कॉन्स्टेबल उस समय अपनी सरकारी नौकरी पर था और अपने पूरे होशोहवास में भी। उसे इस बात का पता था कि पुलिस एक आम नागरिक की हिफाज़त के लिए है ना कि एक आम नागरिक को बीच सड़क पर गोली मारने के लिये।
जिस तरह मीडिया में बयान आ रहे हैं कि पुलिस कॉन्स्टेबल ने पहले विवेक की गाड़ी का पीछा अपनी मोटरसाइकिल पर किया और बाद में अपनी मोटरसाइकिल विवेक की गाड़ी के आगे लगाकर उसे गोली मार दी। यहां पुलिस कॉन्स्टेबल अपनी मोटरसाइकिल को विवेक की चार पहिया एस यू वी से आगे निकालने में सक्षम रहा, मसलन विवेक की गाड़ी एक नियमित स्पीड पर थी जो कतई तेज़ नहीं थी फिर पुलिस कॉन्स्टेबल को किसी भी तरह से चोट भी नहीं आई। यह आसानी से समझा जा सकता है कि विवेक ने किसी भी तरह से पुलिस कॉन्स्टेबल पर हमला नहीं किया।
सबसे बड़ा सवाल यह है कि पुलिस कॉन्स्टेबल को अगर यहां कोई खतरा लग रहा था तो उसने आगे किसी और पुलिस सेवा के लिए मदद क्यों नहीं मांगी। अगर उसे इतना ही खतरा था तो वो हवा में फायर कर सकता था, गाड़ी के टायर में या किसी और तरह गाड़ी को क्षतिग्रस्त करके गाड़ी को रुकवा सकता था लेकिन यहां उसने गोली मारना ही क्यों जायज़ समझा?
अब यहां मेरा व्यक्तिगत सवाल है कि क्या पुलिस कॉन्स्टेबल को अगर यह पता होता कि गाड़ी एक ऐसा शख्स चला रहा है, जो हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ है तब भी वह गोली चलाने में इतनी तेज़ी दिखाता?
यकीनन मेरा सवाल इस तरह का है जो बहुत जायज़ नहीं है लेकिन अगर हम पिछले एक साल के उत्तर प्रदेश पुलिस के एनकाउंटर्स देखेंगे तो यकीनन यह पता चलेगा कि आज आमतौर पर एक मुसलमान को ही एनकाउंटर का शिकार बनाया जा रहा है। योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने के बाद सैकड़ों की तादाद में एनकाउंटर के नाम पर लोग मारे गये हैं और ज़ख्मी भी हुए हैं, शायद यही वजह थी कि विवेक पर गोली चलाने से पहले पुलिस कॉन्स्टेबल के हाथ हिचकिचाये नहीं।
विवेक की हत्या से मैं निश्चित रूप से दुखी हूं और उनके परिवार के प्रति मेरी पूरी तरह से सहानुभूति है और इस बात की उम्मीद भी है कि विवेक को न्याय मिलेगा।
लेकिन जिस तरह से हमारे सरकारी मीडिया ने विवेक के एनकाउंटर के बाद सक्रियता दिखाई है और योगी सरकार को जनता के कठघरे में इस तरह खड़ा कर दिया है कि सरकार इस हत्या के बाद बहुत ही तेज़ी से विवेक को न्याय दिलाने की बात कह रही है। निश्चित रूप से इस तरह का हंगामा हमारा मीडिया उस हर एनकाउंटर पर नहीं करता जहां हमारा ही नागरिक हमारी ही पुलिस की गोली से मारा जाता है। आखिर, विवेक के एनकाउंटर के बाद मीडिया की इतनी मुस्तैदी क्यों?
क्या इसलिये कि विवेक हिंदू होने के साथ-साथ एक उच्च जाति से ताल्लुख रखता था? क्या इसलिए कि हमारे देश में एक हिंदू कभी भी आंतकवादी और देशद्रोही नहीं हो सकता? क्योंकि जब एक सिख या एक मुसलमान पुलिस एनकाउंटर में मारे जाते हैं, तब हमारा मीडिया और सरकारी तंत्र आतंकवाद का राग इस तरह अलाप रहा होता है कि एक सरकारी मौत आम जनता की नज़रों में जायज़ ठहरा दी जाती है।
पंजाब के काले दौर में पुलिस के नाम से भयभीत लोगों को मैंने अपनी आंखों से देखा है। हज़ारों की तादाद में पुलिस की गोली से मारे गये लोग आज भी गवाह हैं लेकिन हमारा मीडिया और सरकारी तंत्र, उनकी आवाज़ को स्वीकार नहीं करता है। इसके विपरीत पुलिस एनकाउंटर में शामिल पुलिस अफसरों को नियमित रूप से तरक्की मिलती आई है।
ऐसे ही एक गुमनाम एनकाउंटर के चश्मदीदों पर बनी एक डॉक्यूमेंट्री का लिंक यहां दे रहा हूं, जहां एक मासूम बच्चे पर भी पुलिस ने गोली दागी थी जो आज बड़ा हो गया है लेकिन उसके चेहरे के निशान सरकारी गोली की हामी आज भी भरते हैं। इसके साथ ही एक परिवार जिसे पुलिस ने मौत की नींद सुला दिया था, उस परिवार की सबसे बुज़ुर्ग महिला को भी पुलिस ने बहुत यातनाओं के बाद मौत दी थी। ये सरकारी हत्या, सरकारी एनकाउंटर, विवेक तिवारी के एनकाउंटर की तरह कभी सुर्खियों में नहीं आए और ना कभी आएंगे। शायद इसलिए कि यहां उन लोगों को मारा गया जो हिंदू नहीं थे।
________________________________________________________________________________नोट- फोटो प्रतीकात्मक है।