इस विषय पर लिखते हुए मैं थोड़ा डर रहा हूं, मुझे पता है मुझे धमकाया जा सकता है, गालियों भरा कॉल आ सकता है या मुझे पीटा भी जा सकता है। खैर, मैसेंजर पर गालियों का आदी तो मैं हूं ही। मैं लिख रहा हूं क्योंकि मुझे लगता है कि इस विषय पर लिखा जाना चाहिए और मैं लिखने में विश्वास करता हूं।
मुझे लगता है आज से ठीक दो साल पूर्व जब मैं स्नातक प्रथम वर्ष का विद्यार्थी हुआ करता था, तो मैं काफी बेवकूफ था। भारतीय विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के एक कोने में ‘छात्रसंघ-भवन’ का बैनर देखकर मेरी बांछें खिल जाती थीं। मुझे लगता था कि इतिहासकारों का मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल और हड़प्पा तक के स्नानागारों को खोजने का कुल जतन इसी दो नामों की संज्ञा से सुशोभित बिल्डिंग में आकर रच-बस गया है। यही वो भवन है जो विश्वविद्यालय की बंद कक्षाओं को संचालित करवाता है, गंदे शौचालयों को साफ करवाता है और पानी की खराब व्यवस्था को प्रबंधित करवाता है।
छात्रसंघ जैसे जिन्न को भारतीय विश्वविद्यालयों में जगह देने के पीछे का मनोविज्ञान जहां तक मुझे समझ में आता है कि जिस प्रकार देश की प्रशासनिक व्यवस्था के समुचित प्रबंधन के लिए संघ और राज्य लोक सेवा आयोगों द्वारा हर वर्ष योग्य और सक्षम सिविल सेवकों के चयन की प्रक्रिया है, ठीक उसी तर्ज़ पर लोकसभा, राज्यसभा और प्रत्येक राज्यों की विधानसभाओं में छात्रसंघ की पाठशाला का अनुभव हो।
राजनेता महज़ फीता काटने और दारू के ठेके/बंदूक का लाइसेंस पास कराने के अलावा छात्रसंघ की तथाकथित पाठशालाओं से गुज़रकर एक स्वच्छ राजनीति की अटल परिभाषा को स्थापित करने के स्वप्न को सही आयाम दे सकें।
अब छात्रसंघ की स्थापना के पीछे के इस मनोविज्ञान की असफलता को स्वीकार करने में मुझे कतई संशय नहीं होगा। इस बात से भी मैं पूरी तरह इत्तेफाक रखता हूं कि आज के समय में छात्रसंघ राजनीति के अटल पुरोधाओं की जन्मभूमि बनने के बरक्स भविष्य के गुंडे, माफिया और बेरोज़गारों की एक लंबी भीड़ पैदा कर रही है।
पूर्वांचल के किसी गाँव/देहात का लड़का जब साइकिल को दस किमी रौंदकर ‘जनता इंटर कॉलेज’ से इंटर करके इलाहाबाद विश्वविद्यालय में प्रवेश लेता है तो छात्रसंघ की राजनीति उसे लोरी सुनाती है। अगस्त से ही ‘फलाना ज़िंदाबाद’, ‘धरती-धरती डोल रही है’ और ‘जय फलाना, तय फलाना’ चीखने के बदले केवल भावी अध्यक्ष/उपाध्यक्ष/महामंत्री की कारों में बैठने, चार स्टूडेंट्स द्वारा पैरवी करवा लेना, किसी कोचिंग संस्थान में हज़ार रुपया फीस कम करवा देना उसे मोहता है।
उसपर भी अगर शाम को किसी हॉस्टल में मुर्गा/मछली और दारू का जुगाड़ हो जाए तो सोने पर सुहागा। इन्हें लगता है कि अंगद का गोड़ उखाड़ने की क्षमता इनके अलावा दुनिया के किसी बंदे/बंदी में नहीं है। इन्हें लगता है कि धरती के सबसे बड़े देवता यही हैं मगर इन्हें भविष्य में भहराने का ज़रा भी भ्रम नहीं होता है।
कुछ समय बाद जब इनकी जवानी का जोश उतरता है, बाल पकने और झड़ने शुरू होते हैं, हर महीना गेहूं/चाउर बेचकर पांच हज़ार भेजने वाले बाबूजी हिसाब मांगते हैं और इनके सभी तथाकथित सुदामा इनसे पलायन करना चाहते हैं तब इन्हें तुलसीदास ही सज्जन आदमी लगते हैं।
मैं उन छात्रों की कल्पना करते वक्त सहम जाता हूं जो नामांकन के दिन विश्वविद्यालय के काफी दूर से बारी-बारी से नामांकनकर्ताओं को अपने कंधों पर ढोते हैं! क्या इन्हें भी विवाहों में रथ के गोलार्ध लाइटों की झड़ी ढोने वाली कुपोषित, पीड़ित और असहाय महिलाओं जैसा माना जाए?
आज इस बात को मैं यकीन के साथ स्वीकार करता हूं कि छात्रसंघ की अस्मिता अब धूमिल हो चुकी है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के रहनुमाओं को अगर अब भी ‘ऑक्सफोर्ड ऑफ ईस्ट’ और ‘आईएएस फैक्ट्री’ कहने में शर्म का एहसास नहीं होता है, तो इन्हें शर्म पैदा करने वाली दवा खानी चाहिए। छात्रसंघ के भावी पदाधिकारियों को यदि दक्षता भाषण के निर्धारित अंतराल पांच मिनट में से दो मिनट ज़िंदाबाद/मुर्दाबाद और तीन मिनट माला पहनने और धन्यवाद ज्ञापन के अलावा कुछ समय मिले तो वे बता सकते हैं कि उन्हें क्यों चुना जाए?
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नोट- यह लेख इलाहाबाद विश्वविद्यालय के विशेष परिप्रेक्ष्य में लिखा गया है।
(फोटो प्रतीकात्मक है।)