अग्रेज़ी के महान लेखक ‘शेक्सपीयर’ का नाम भला किसने नहीं सुना होगा। उन्हीं का कहना है कि “व्हाट इज़ इन ए नेम।” यानी नाम में क्या रखा है। अगर गुलाब का नाम बदल देंगे तो क्या उसकी खुशबू बदल जाएगी। भारत में सरकारों द्वारा नाम बदलने का चलन पुराना रहा है। सरकार बदलने के साथ कई शहरों व जगहों के नाम बदल दिए जाते हैं। सरकार द्वारा ऐसा अपना वर्चस्व दिखाने के लिए किया जाता है। सरकार में बैठी राजनीतिक पार्टी का झुकाव जिस तरफ होता है उसी के अनुरुप नामों की घोषणा की जाती है।
वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश का प्रसिद्ध शहर इलाहाबाद सुर्खियों में है। ऐसा इसलिए ,क्योंकि इलाहाबाद का नाम बदलकर अब ‘प्रयागराज’ कर दिया गया है। कैबिनेट से इसकी मंजुरी भी मिल गई है।
भारत के प्रमुख इतिहासकारों की माने तो प्रयागराज ही इलाहाबाद का पुराना नाम था लेकिन लगभग 400 वर्षों पहले जब अकबर का वहां पर शासन था तब उसने प्रयागराज का नाम बदलकर कर इलाहाबाद कर दिया था। अकबर ने प्रयागराज का नाम अपने प्रसिद्ध धार्मिक ग्रंथ ‘दीन-ए-इलाही’ से प्रेरित होकर इलाहाबाद रखा था। आज़ादी के बाद और आज़ादी के पहले इलाहाबाद ने ऐसे कई मुकाम हासिल किए जिन्हें भुलाया नहीं जा सकता है।
नाम बदलने से क्या पूरब के ‘ऑक्सफोर्ड इलाहाबाद विश्वविद्यालय’ के योगदान को भुलाया जा सकता है? नाम बदलने से इलाहाबाद हाईकोर्ट के योगदान को भुलाया जा सकता है? नाम बदलने से क्या ‘इलाहाबादी अख्खड़पन’ को भुलाया जा सकेगा? नाम बदलने से क्या ‘इलाहाबादी व्यंजनों’ व ‘प्रसिद्ध अमरुदों’ की मिठास कम होगी? इन सभी सवालों का जवाब अगर ना में हो तो कोई हैरानी नहीं होगी, क्योंकि धर्म और आस्था का नाम ही प्रयागराज तीर्थकर है जो विश्वभर में प्रख्यात है।
सरकारों को नाम बदलने के खेल से बाहर आना चाहिए क्योंकि नाम बदलने से सरकारी अधिकारियों पर कामों का बोझ बढ़ता है और उससे हांसिल कुछ नहीं होता है।
नाम बदलने की राजनीति के बजाए सरकारों को विकास की राजनीति करनी चाहिए। अगर बात उत्तर प्रदेश की करें तो वहां पर जितने भी शहरों के नामों की अदला-बदली की गई उससे कुछ हासिल नहीं हुआ है। चाहे वो वर्तमान में ‘संत रविदास नगर’ हो या फिर ‘ज्योतिबा फुले नगर’ (अमरोहा)। भदोही का नाम बदल कर संत रविदास नगर कर तो दिया गया लेकिन वहां के कालीन उद्योग पर सरकार ने कभी ध्यान नहीं दिया यही कारण है कि आज कालीन उद्योग बंद होने के कगार पर है।