संघ प्रमुख मोहन भागवत के आरक्षण के मुद्दों पर बदले विचारों को लेकर कुछ भी कह लीजिए लेकिन संघ के रुख में आया प्रगतिशील मोड़ शुभ संकेत है जिसका स्वागत होना चाहिए। हर देश और समाज परिवर्तन की प्रक्रिया से गुज़रता है। कई बार इन बदलावों को लेकर परंपरागत सांचे में मज़बूती से ढला समाज सहज नहीं रह पाता। खासतौर से समाज के शासक वर्गों को शुरुआत में परिवर्तन स्वीकारने में अपने अस्तित्व की समस्या नज़र आने लगती है।
आरक्षण के प्रावधान को जब लाया गया था उस समय देश का माहौल बेहद रूढ़िवादी था लेकिन इसके कारण किसी व्यापक विद्रोह की नौबत नहीं आई थी। भारतीय समाज की वर्ण व्यवस्था में जाटव समाज को अछूत की श्रेणी में रखा गया था। इन्हें संपत्ति और पद का अधिकार दिए जाने की कल्पना तक नहीं की जा सकती थी। राजनीति में जब सीटें आरक्षित होने लगी तब तथाकथित अछूत समाज या दलितों में से सांसद और विधायक बनना मजबूरी सा हो गया। राजनीतिक दलों में भी देखा जाने लगा कि सत्ता के दबाव की वजह से दीनहीनों को आगे करके वो कोटा पूरा कर लिया जाता था। ये वो लोग होते थे जो अपना मुंह तक खोलना नहीं जानते थे।
ऐसे में मुख्यमंत्री के तौर पर मायावती का उत्तर प्रदेश की सत्ता पर काबिज़ होना एक क्रांतिकारी संकेत था। पहली बार तो हो सकता है कि राजनीतिक परिस्थितियों के कारण संयोग से उन्हें यह मौका मिला हो लेकिन बाद में उनके नेतृत्व की सभी वर्गों में स्वीकार्यता की वजह से चौथी बार वो अपने दम पर मुख्यमंत्री बनी।
ऐसा होने से पहले जब मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू करके अनुसूचित जातियों और जनजातियों के अलावा अन्य पिछड़ों को आरक्षण की व्यवस्था की गई तब देश में एक बारगी गृह युद्ध जैसे हालात पैदा होने लगे थे। ऐसा लगा था कि सामाजिक परिवर्तन को लेकर देश का असल वर्ग सत्ता का धैर्य अब चुक गया है। बहरहाल, यह उफान भी क्षणिक सिद्ध हुआ। कुछ ही वर्षों में स्थिति ना केवल संभल गई बल्कि मायावती और मुलायम सिंह जैसे नेता उनकी जाति की सामाजिक स्थिति को भुलाकर देश की शक्तिशाली राजनीतिक शख्सियत के रूप में सर्वमान्य तौर पर मान्यता पा सके।
सदियों की वर्ण व्यवस्था पर आधारित भारतीय समाज की सभी रूढ़ियों की गांठे खुलने में अभी बेहद कसर बाकी है। भारतीय जनता पार्टी में तो अभी तक रिवाज़ है कि अनुसूचित जाति और जनजाति कोटे में उन्हीं को अवसर दिया जाता है जो विनीत या बेचारे हों। सूरज भान को भाजपा की सरकार के समय जब उत्तर प्रदेश का राज्यपाल बनाया गया, उस समय पार्टी का नेतृत्व उनके द्वारा स्वतंत्र निर्णय लेने की क्षमता दिखाने पर बौखला गया था, जबकि उनकी पृष्ठभूमि खांटी आरएसएस स्वयं सेवक की थी। विनीत आचरण की लक्ष्मण रेखा अपनी मुखरता से लांघने के कारण सूरज भान भाजपा में कुलद्रोही की तरह देखे जाने लगे थे और अंततोगत्वा उनको उत्तर प्रदेश से चलता कर दिया गया था। उदित राज और कौशल किशोर जैसे सांसद आयातित हैं, इसलिए उनपर तो वैसे भी भरोसा नहीं किया जा सकता।
वर्ण व्यवस्था में आस्था रखने वाली संगठन ‘आरएसएस’ के दिशा निर्देश पर ही भाजपा की राजनीति तय होती है, इसलिए भाजपा जब सरकार में आई तब सामाजिक परिवर्तनों की उल्टी गिनती देखी जाने लगी। संघ प्रमुख ने भी बिहार विधानसभा चुनाव के समय आरक्षण को हटाने के विचार की वकालत कर डाली थी। सोशल मीडिया पर आरक्षण के खिलाफ जाने कितने लश्कर भाजपा की सरकार बनने से प्रोत्साहित होकर टूट पड़े जो अभी तक जारी हैं।
इस दौर में दलितों को सबक सिखाने की घटनाओं में भी तेज़ी आ गई। दूसरी ओर बिहार विधानसभा में भाजपा की पराजय का कारण जब सामने आया तब उसे तमाम हलकों ने संघ प्रमुख के आरक्षण विरोधी बयान से जोड़ दिया। उस वक्त संघ को पहली बार अपनी विचारधारा को लेकर झटका महसूस हुआ। उत्तर प्रदेश में अथाह बहुमत हासिल करके सत्ता पर काबिज़ हुई भाजपा सरकार को नये-नवेलेपन के दौर में ही सपा-बसपा गठबंधन के कारण लगातार तीन महत्वपूर्ण लोकसभा उपचुनाव हारने पड़े, जिनमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ द्वारा खाली की गई गोरखपुर संसदीय सीट भी शामिल थी।
देश की मौजूदा स्थिति और वर्ण व्यवस्था की प्रासंगिकता को लेकर संघ को यह महसूस हुआ कि अब विचार करने की ज़रूरत है। जब संघ के लोगों के हाथो में सत्ता आई तब उसे पता चला कि ज़माना कितना बदल चुका है और व्यवस्था के संचालन के लिए पुरानी मान्यताएं और पैमाने कितने कामयाब रह गये हैं। संघ को समझ में आया कि यह जो लोकतंत्र है इसमें समानता और बंधुत्व की नीति का पालन किये बिना सर्वाइवल संभव नहीं है, इसलिए संघ प्रमुख को आरक्षण जैसे विचारों में नयापन लेकर उन्हें सामने आना पड़ा। उन्होंने आरक्षण को समर्थन देकर शासन और प्रशासन में सभी वर्गों की भागीदारी की नीति पर मुहर लगाई जो एकदम बाजिब है।
लेकिन यह नीति गृह युद्ध का अखाड़ा ना बन जाये इसलिए नये परिवर्तनों को सर्वानुमति से आत्मसात किया जाना भी वक्त की मांग है। संघ जाने-अनजाने में इसी पहल का माध्यम बना है। इसका प्रभाव पूरे सामाजिक सत्ता वर्ग पर होगा। चूंकि संघ उसका प्रतिनिधि संगठन है। यह भी महत्वपूर्ण हो जाता है कि एससी-एसटी एक्ट के बारे में सुप्रीम कोर्ट के फैसले में सरकार द्वारा किये गये संशोधन के खिलाफ जब सवर्ण रौद्र रूप दिखा रहे हैं, तब संघ ने आरक्षण की नीति की ताईद करने में संकोच नहीं किया। आरक्षण के प्रावधान के बारे में सवर्णों की गलतफहमी दूर करने के लिए कभी कोई होमवर्क नहीं हुआ इसलिए इस व्यवस्था के खिलाफ बसी घृणा मौका मिलते ही सतह पर विस्फोट की वहज बनने लगती है।
इसके निवारण का ज़िम्मा संघ को उठाना चाहिए। संघ को अभियान चलाना चाहिए जिसमें सवर्णों को समझाया जाये कि अगर आप बहुतायत समाज को अपनी ज़िद में अलग कर देगें तो आपकी शुद्ध जनसंख्या के अनुपात में नौकरी की संख्या उससे बहुत कम रह जाएगी जो अभी आपको हासिल है। दूसरी ओर आरक्षित वर्ग में भी एक चुनौती भरने की ज़रूरत है कि योग्यता किसी जाति, समुदाय या वर्ग की बंधक नहीं है। बाबा साहब अंबेडकर जब तक देश में पढ़े औसत से नीचे के विद्यार्थी रहे। क्योंकि यहां का माहौल उनके लिए दमनकारी था।
अमेरिका पहुंचने पर जब उन्हें खुला माहौल मिला तब उन्होंने सबसे आगे होने की ऐसी ललक दिखाई कि आज कोलंबिया विश्वविद्यालय में उनकी प्रतिमा विश्वविद्यालय के इतिहास के अभी तक के सबसे प्रतिभाशाली छात्र के रूप में स्थापित हुई है। जिससे योग्यता और श्रेष्ठता के लिए भारत में प्रचलित नस्लीय सिद्धांत को मुंहतोड़ जवाब मिला है। दलित दूल्हे को घोड़ी पर चढ़कर बारात निकालने से रोकने की कासगंज जैसी दुराग्रही घटनाओं के खिलाफ आज भी समाज का कोई वर्ग आगे नहीं आता। संघ को ऐसी घटनाएं होने पर भी तत्परता पूर्वक मोर्चा संभालनी चाहिए जिससे सामाजिक सौहार्द को मज़बूत करने का उद्देश्य भी फलीभूत हो।