#MeToo अंग्रेज़ी का यह दो शब्द एक विशाल क्रांति का प्रतीक बन गया है। महिला यौन हिंसा के खिलाफ बोलने का यह जानदार तरीका है। इसकी जीत यही है कि महिलाएं अपने साथ हुए शोषण के बारे में खुलेआम बोल रही हैं वो भी बिना किसी डर-भय के, सशक्त रूप से।
इस कैंपेन के ज़रिए फिल्म उद्योग और पत्रकारिता की मशहूर हस्तियों के नाम सामने आये और उनका चेहरा बेनकाब हुआ। कईयों ने माफी मांगी तो कई अब भी आरोप-प्रत्यारोप में लगे हुए हैं। इस मुद्दे में बड़े नाम सामने आने की वजह से तमाम मीडिया की दिलचस्पी इस ओर दिख रही है।
यौन हिंसा और शोषण हर जगह है, शहरों से लेकर गांव और कस्बों तक। उदाहरण दूं तो हाल में ही बिहार के अलग-अलग हिस्सों से कई वीडियो वायरल हुए जिनमें लड़कियों के साथ दुर्व्यवहार होते देखे जा रहे हैं। यह हाल बिहार का ही नहीं है बल्कि देश के सभी राज्यों में यही स्थिति है।
खेतों में काम पर आयी औरत हो, घर पर काम कर रही वर्कर हो या शौच के लिए बाहर निकली औरत हो सभी इसका शिकार हो रही हैं। झारखण्ड में आदिवासी महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और यौन हिंसा की घटनाएं बड़े स्तर पर देखने और सुनने को मिलती हैं।
गांव में महिला आयोग की पहुंच ना के बराबर है। घरेलू हिंसा भी गांवों में रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का हिस्सा बन गयी है। औरतें अपनी आवाज़ को समाज, इज्ज़त और पारिवारिक संबंधों के डर से दबा देती हैं। कुछ आवाज़ों को धमकी देकर चुप करा दिया जाता है और फिर शोषण को ही अपनी किस्मत मानकर औरतें इस अन्याय को अपना लेती हैं। पुरुषवादी समाज में औरतों की आवाज़ दबना कुछ खास अचंभित नहीं करता।
आदिवासी, दलित, पिछड़ा वर्ग, मध्यम-वर्ग, गांव के सुदूर इलाकों की महिलाओं की आवाज़ भी सामने आने की ज़रूरत है। आवाज़ शहर की सड़क, बस, होटल, ऑफिस से लेकर गांव के खेत, पहाड़ और पगडंडियों से भी निकालनी होगी।
#MeToo की क्रांति समाज में एक बदलाव का माद्दा रखती है। अगर इसकी पहुंच हर घर तक कर दी जाए तो यौन हिंसा सिर्फ बॉलीवुड और बड़ी हस्तियों तक ही सीमित नहीं है। इसके दायरे को बढ़ाए जाने की ज़रूरत है ताकि गांव और छोटे शहर की भी चीत्कार आम लोगों तक पहुंच पाए।
ये आवाज़ें तभी बाहर आ पाएंगी अगर प्रशासन खुद पर लोगों का विश्वास बना सके और मीडिया भी हाई-प्रोफाइल के साथ-साथ इन घटनाओं को भी उतनी ही तवज्ज़ो दे।