नवरात्र आने वाला है, जो शक्ति पूजा का पर्व है। जिसके मद्देनज़र यह याद दिलाना प्रासंगिक है कि यह देश कमज़ोंरों पर पिल पड़ने वाला और शक्तिवान के आगे पूरी तरह साष्टांग हो जाने वाला देश है। बसपा सुप्रीमो मायावती की राजनीतिक बढ़ोतरी के पीछे कोई मिशन ना होकर इसी मंत्र का असर देखा जा सकता है। उनके हठधर्मी और मनमाने स्वभाव ने उन्हें ऐसी कामयाबी दिलाई कि दलितों को हेय भावना से देखने वाले घमंडी तीरंदाज़ भीगी बिल्ली बनकर उनकी कृपाकोर की याचना करने लगे।
ज़ाहिर है कि सफलता की इसी राह को पहचानने वाली मायावती के लिए अब एक मुकाम पर पहुंचने और उम्र पक जाने के बाद इसमें बदलाव लाना मुमकिन नहीं है। समूचा विपक्ष मोदी और भाजपा को बदलने के लिए आतुर होकर एकजुट हो रहा है। जिसका बहुत कुछ दारोमदार अभी तक मायावती के भरोसे था। तब मायावती ने अचानक पलटी मार दी। सोनिया और राहुल को बख्शते हुए भी उन्होंने ना केवल मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में काँग्रेस के साथ गठबंधन की संभावना को झटक दिया है बल्कि काँग्रेस पर बसपा को खत्म करने की साज़िश रचने जैसे क्या-क्या आरोप लगा डाले।
शत्रुता और घृणा के ज़बर्दस्त उदगारों के बाद उन्होनें एक तरह से लोकसभा चुनाव में भी काँग्रेस के साथ गठबंधन के दरवाज़े बंद कर डाले हैं। भले ही काँग्रेस अभी भी सौ-सौ जूते खाये, तमाशा घुसकर देख के अंदाज में बसपा के लिए लार टपका रही हो।
बेशक मायावती की बात सही है कि दलितों के मामले में भाजपा और काँग्रेस का वर्ग चरित्र एक जैसा है लेकिन मायावती दलितों को दलित बनाने वाली सामाजिक व्यवस्था बदलने के लिए कितनी ईमानदार है यह भी एक प्रश्न है। अगर वर्ग शत्रुता के सिद्धांत में उन्हें इतनी ही शिददत से यकीन है तो वे भाजपा के प्रति इस कदर अनुरक्त क्यों हो गई थीं कि गुजरात में उस समय धर्म निरपेक्षता के सबसे बड़े खलनायक घोषित किये जा रहे मोदी के लिए प्रचार करने चली गईं। सही बात तो यह है कि उन्होंने अपने टिकट पर घनघोर दलित विरोधियों को संसद, विधानसभा में पहुंचने का रास्ता हमवार करके दलितों को जलालत में धकेलने वाले जातिवाद को दूरगामी तौर पर नई ज़िंदगी दी थी।
भाजपा की बयार चलते ही उनसे राजनीतिक सशक्तिकरण की खुराक पाने वाले वे लोग आज अपनी असलियत पर आ चुके हैं। बहन जी ने तो देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार की सत्ता में अपने लिए सुरक्षित किला बना लिया है। लेकिन दलित तो अभी तक अरक्षित ही बने हुए हैं। जिनके लिए यह दौर दमन के एक नये चक्र को सामने लेकर आया है। मिशन को अप्रासंगिक रखने की सोच ही उन्हें हर उभरते हुए दलित नेता को खारिज करने के लिए प्रेरित करती है और जो शक्ति पूजा की लोगों की ग्रन्थि की वजह से उनके लिए आसानी से मुमकिन हो जाता है।
मायावती का कोई राजनीतिक विजन नहीं है, सामाजिक उद्देश्य नहीं है, सिवा खुद के वर्चस्व को मज़बूत करने के। परिवर्तन के मामले में उनकी जितनी भूमिका थी वह वे निभा चुकी हैं। अब उन्हें खुद बदलने की ज़रूरत है, वरना जिस मिशन के लिए बसपा को मूवमेंट शुरू हुआ था उसका अंधेरी गुफा में फंसकर उनके साथ ही अंत हो जायेगा।
उत्तर प्रदेश में बसपा द्वारा सपा को समर्थन देकर उपचुनावों में भाजपा की बाजी पलटने का जौहर देश की राजनीति के लिए एक बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइंट साबित हो रहा था। मोदी अपराजेय हैं, इस मिथक को उक्त सफलता ने बहुत कारगर तरीके से भेज दिया था। सरकार के काम में सिर्फ लफ्फाज़ी और दिशाहीनता की परतें उघड़ने से लोगों में हो रहे मोहभंग को इसके चलते भारी बल मिला था और कुछ महीने पहले तक परिवर्तन को लेकर निर्णायक स्थिति दिखने लगी थी। उत्तर भारत के तीन महत्वपूर्ण राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा के पैर उखड़ने के सूरतेहाल बन गये थे जो शायद उसके ताबूत में अंतिम कील साबित होने वाले थे। लेकिन मायावती ने जो किया उसे उनका नहीं, मोदी का करिश्मा माना जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजनीति के ऐसे फैंटम के रूप में अपना बिंब बनाया है जो हारते-हारते भी हर बाज़ी अंततोगत्वा जीत लेने की कुब्बत रखता है। मायावती के रुख से इस बिंब में आ रही दरकन अंतिम क्षणों में छूमंतर हो गई है। मायावती कुछ भी कहें लेकिन एक बड़ा वर्ग उनके मुकरने को लेकर काँग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के आकलन से सहमत नज़र आ रहा है।
मनमानी कार्यशैली की वजह से ही मायावती ने बहुजन का विश्वास अपने मुख्यमंत्रित्व काल में पिछड़ों की उपेक्षा करके तोड़ दिया था। सवर्णों को उनके सर्वजन हिताय के नारे के बजाय अस्तित्ववाद के तहत तात्कालिक स्वार्थ के लिए उनसे जुड़ना पड़ा था। जिसका जल्द ही छिटक जाना तय था। एससी-एसटी एक्ट में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को बेअसर करने के लिए मोदी सरकार द्वारा पारित कराये गये संशोधन के बाद तो उनमें दलितों के प्रति तल्खी का एक नया ज्वार आ गया है, जिसकी बानगी मध्य प्रदेश और राजस्थान में उनके द्वारा उग्र विद्रोह के प्रदर्शन में देखी जा चुकी है।
इस परिवेश के रहते हुए बहनजी अगर यह सोच रही हैं कि मध्य प्रदेश और राजस्थान में काँग्रेस व भाजपा से असंतुष्टों को टिकट देकर वे कोई मतलब साध पाएंगी तो वे गलतफहमी में हैं। इन राज्यों में सवर्ण, एंटी दलित तपिश में उबल रहा है, जिसका वोट पाने की उम्मीद बसपा को बिल्कुल भी नहीं करनी चाहिए। अलबत्ता उनके पलटीमार से काँग्रेस का चढ़ता ग्राफ स्थिर हो गया है और भाजपा अपने को बल्ले-बल्ले महसूस कर रही है।
मायावती हमेशा अपनी आंखों पर अहंकार की पट्टी बांधे रहती हैं। जिससे उन्हें राजनीति की सही राह नहीं सूझ पाती। अगर उन्होेंने ठीक स्टैण्ड लिया होता तो विपक्षी महागठबंधन की धुरी वही होने वाली थी। इसकी वजह यह है कि काँग्रेस अकेले दम पर बहुमत जुटाने की स्थिति में नही है, भाजपा को अपदस्थ करने में सबसे बड़ी भूमिका उत्तर प्रदेश की देखी जा रही है, जहा महागठबंधन में सपा-बसपा भारी सीटें बटोर सकती है। ऐसी स्थिति में काँग्रेस सरकार ना बना पाने पर मायावती को समर्थन देना पसंद करती है और अखिलेश भी इसके लिए तैयार हो जाते, इसके बहुत आसार थे।
राजनीतिक पंडित मायावती को भावी प्रधानमंत्री के रूप में दिखाने भी लगे थे। यथा स्थिति को बदलने में मायावती भले ही दिलचस्पी ना लें लेकिन उत्तर प्रदेश में अपनी सरकार के संचालन के तरीके से उन्होंने यह दिखाया है कि गर्वनेंस के लिए वे बेहतर विकल्प हैं। इस कारण जनमानस में भी इस पर स्वीकार्यता बढ़ रही थी। लेकिन लगता है बहन जी को अपने पैरों पर गिरने जा रही कुल्हाड़ी आंखों पर अहंकार की पट्टी बंधी होने की वजह से नहीं दिख रही है।