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लखनऊ पुस्तक मेले में किताबें ऊंची किमतों पर क्यों मिलती है?

लखनऊ बुक फेयर

लखनऊ बुक फेयर

जब आपका कोई मित्र आपसे आग्रह करके कोई बात कहे तब उसे टालने का तो मन बिल्कुल नहीं होता। ऐसा ही मेरे साथ हुआ जब मेरे एक मित्र ने ‘मोती महल पार्क’ में लगे पुस्तक मेले में जाने के लिए कहा। हमलोग मोटर साइकिल से वहां गए जहां हर वर्ष की तरह इस बार भी पुस्तक मेला लगा हुआ था।

अंदर प्रवेश करते ही दाहिनी तरफ एक मंच दिखाई दे रहा था और  वहां से माइक की काभी तेज़ आवाज़ें आ रही थीं। कुछ दूर चल कर देखा तब पता चला कि कवियों का सम्मान समारोह हो रहा है। संचालक महोदय लोगों से पूछ रहे हैं कि अगला अवॉर्ड किसको मिलेगा, ज़रा अनुमान लगाईए। महोदय की ओर से कहा गया कि देखो-देखो जिनको अभी तक नहीं मिला है वह चिन्तित हैं और जिनको पहले मिल चुका है वे सोच रहे हैं कि हमें तो मिल गया है। संचालक महोदय की अंतर दृष्टि को अभिनन्दन और कवियों की लालसा को प्रणाम करते हुए हम लोग आगे बढ़ गए।

आगे हमें अग्रेज़ी के कुछ उपन्यास दिखे, जिनकी किमत 20 से 30 रुपये तक थे और लोग उसमें भी जूझ रहे थे, मगर हमसे ना हो पाया। दूसरे पंडाल पर ईसाई धर्म की पुस्तकें रखी हुई थीं, मैंने एक बुक उठाई और सामने से आवाज़ आई, “यह बिलकुल मुफ्त है , घर ले जाइये और पढ़िए मन को शांति मिलेगी।” मैं उनका जवाब देते हुए जैसे ही आगे बढ़ रहा था वैसे ही उनको कहना पड़ा कि आजकल के लड़के बुक ले तो लेते हैं लेकिन किसी कोने में डाल देते।

‘मैंने सोचा बात तो सही ही कहा जा रहा है। खैर, कई बार मैंने भी ऐसा किया है तो स्वीकृति में सिर हिला दिया। फिर अचानक उनसे पूछ बैठा, हज़रतगंज में जो चर्च है, क्या आप वहीं से हो ? जवाब प्रतिशोध से भरा था। बोले कि हम उन लोगों से अलग हैं, वह मैडम मरियम को गॉड मानते हैं, और हम लोग जीसस क्राइस्ट को, जो हमारे पापों के बदले खुद सूली पर चढ़ गया। मैंने बोला फिर समस्या क्या है? वे बोले, ‘मैडम मैरी गॉड नहीं है।’ उन्होंने जवाब देने के साथ ही साथ अपना विजिटिंग कार्ड देकर इंदिरा नगर वाली चर्च में आने का निमंत्रण भी दे दिया।

अब मैंने सोचा चलो अब इनसे आगे बढ़ते हैं। गायत्री परिवार, आर्य समाज, उर्दू अकादमी इत्यादि ने भी अपनी वैचारिक पुस्तकों का स्टॉल लगा रखा था। कोई बोल रहा था कि इसको पढ़ो ईश्वर का मूल रूप पता चलेगा तो वहीं पर कोई उर्दू  भी सिखा रहा था। लोग इस समागम का पूरा आनंद ले रहे थे। यह गंगा-जमुनी तहज़ीब की एक झांकी सा प्रतीत हो रहा था। मुझसे रहा ना गया और मैंने भी एक पुस्तक उठाई, “गृहस्थ एक तपोवन” बीच का एक पन्ना पलटा तो लिखा हुआ था, “अधिक सुन्दर स्त्री घर में कलह का कारण बन सकती है।” तब से गृहस्थ जीवन को लेकर मेरे विचार शून्य हो चुके हैं।

घड़ी की तरफ जब नज़र गई तब लगा कि अब जाने का समय हो रहा है। मैं सोचने लगा कि मुंशी प्रेमचंद, कृष्णचन्दर व परसाई जी की कुछ कृतियां उचित दामों में मिल जाती तो मज़ा आ जाता। एक स्टॉल वाले से पूछा कि भैया ये मानसरोवर का पूरा सेट दे दो, उन्होंने पहले ही बता दिया कि ना एक रुपया कम होगा और ना एक रुपया ज़्यादा। मुझे दाम उचित नहीं लग रहे थे तब मैंने सोचा कि ऑनलाइन ही चेक कर लूंगा। क्या बताऊं भाईसाहब, 40 से 50 प्रतिशत का अंतर आ गया। आगे वाले से पूछा, उनका भी वही रेट था। मतलब अब मुझे पुस्तक मेले के मायूस होने का कारण पता चल रहा था।

दोस्त बोला, यहां आना कुछ सफल नहीं हुआ चलो भुट्टा ही खाते हैं। भुट्टे वाले के बैनर में बड़े शब्दों में लिखा हुआ था, ‘अमेरिकन भुट्टा’। दोस्त ने पूछा भैया ये कहां से इम्पोर्ट करते हो? कुछ देर मुस्कुराने के बाद जवाब आया अरे भैया आप 10 रुपये कम दे देना। मैंने पूछा है कितने का? बोले 50 रूपया। मतलब हद है नव-साम्राज्यवाद की, वैसे बुक स्टॉल्स की तुलना में इनका बिज़नेस मेथड काफी काबिल-ए-तारीफ था।

खैर, इतना कुछ होने के बाद निराश मन को समझाते हुए कहा रहा था कि कोई बात नहीं, ऑनलाइन ही ऑर्डर कर लेंगे। इस दौरान अब हम निकास द्वार की तरफ बढ़ रहे थे जहां डायरियों से भरा एक स्टॉल दिखा। जब हम पास गए तब वहां एक सुन्दर युवती खड़ी थी और ऐसा लग रहा था कि वह भी डायरी खरीदने के लिए बेताब है। मैंने देखा कि हाथ में प्लास्टर होने की वजह से वो ज़्यादा खोज-बीन नहीं कर पा रही है। मैंने नीचे से एक बंडल उठाया और पीछे से आवाज़ आई, हां-हां, यहीं वाली मैं भी ढूंढ रही थी मुझे भी एक लेनी है। मैंने कहा, जी बिल्कुल पहले आप ले लो। जल्दी से उन्होंने पर्पल कलर वाली डायरी ले ली। फिर मंद मुस्कान से प्रतिउत्तर दिया कि यह डायरी मात्र 100 रुपये की है और अगर आप बाहर से लोगे तब 300 रूपये की पड़ेगी।

मैंने और मेरे दोस्त ने दो-दो डायरी खरीदी, मन गद-गद हो रहा था। गेट से बाहर निकलते वक्त विचार आया मानो इस वर्ष का पुस्तक मेला इस उपहार स्वरुप डायरी के माध्यम से अपना अंतिम आशीर्वाद देते हुए कह रहा हो कि जाओ बेटा खुश रहो, इन स्मृतियों को अक्षरों में परिवर्तित करो। इसलिए यह लेख मैं इस वर्ष के पुस्तक मेले को समर्पित कर रहा हूं।

Pic Credit- Facebook

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