गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर सर्वाधिक प्रासंगिक प्रश्न यह है कि भारत सहित दुनिया की तमाम युवा आबादी के लिए बापू की विरासत के क्या निहितार्थ हैं? क्या वे किताबें, इंटरनेट, सिनेमा और मौखिक आख्यानों में कैद ज्ञान हैं जिसकी सराहना की जाती है? या वे एक विचार हैं जो 21वीं सदी में प्रकाश स्तंभ की तरह खड़े हैं। इस स्तंभ की छाया में गांधी अपने प्रतीकों जैसे, चरखा, खादी, और ग्रामोद्योग की सामग्री के साथ भविष्य की ओर ताक रहे हैं। विडंबना देखिए कि वर्तमान उन्हें इतिहास की सामग्री मानकर केवल उनके राजनीतिक जीवन और सामाजिक सक्रियताओं को उभार रहा है। वहीं बौद्धिक जगत इसकी आलोचना और सराहना में व्यस्त है। इस तरह की बहस गांधी को वाद-विवाद की सामग्री बनाकर आमजन से वैसे ही दूर कर देते हैं जैसे कोई दुर्लभ मंत्र।
सवाल यह भी है कि भारत की युवा आबादी के लिए ‘गांधी’ के क्या मायने हैं? एक टेक्नोक्रेट युवा, कोई दक्ष किसान, स्व-उद्यमी युवक-युवतियां और युवा विद्यार्थियों के लिए गांधी की विरासत के क्या मायने हैं? क्या 21वीं सदी में गांधी किसी व्यक्ति के रोल मॉडल हो सकते हैं? आइए इन सवालों के सापेक्ष गांधी की विरासत को खंगालते हैं।
आजकल युवाओं में बढ़ती असहिष्णुता, अधीरता, मानसिक और वाचिक हिंसा, गलाकाट प्रतियोगिता और अशांत चित्त जैसी प्रवृत्तियों को पहचाना गया है। ये वो युवा हैं जिनमें सबकुछ पाने की होड़ है। उनमें देश की व्यवस्था के प्रति उत्तेजना है जो कई बार आक्रोश बन प्रकट हो रही है। युवाओं के इस समूह से गांधी की बात करना उनमें ओज या वीर रस का भाव नहीं छोड़ता। उनके लिए गांधी एक घिसा-पिटा मुहावरा है जिसे उन्होंने बचपन में स्कूल के निबंध के लिए याद किया था। आज की तारीख में यह युवा-समाज नायकत्व की तलाश में है। उसमें अपने होने को परिभाषित करने के लिए लालसा है। ऐसे युवा समाज के लिए गांधी एक संभावना हैं जो स्थापित करते हैं कि नायकत्व किसी एक ‘एक्ट‘ में नहीं पैदा होता है।
यह अचानक घटने वाली घटना नहीं बल्कि व्यवहार की समग्रता है जिसका केन्द्र आत्मबल से संचालित है, जिसकी परिधि समाज के आखिरी इंसान तक है। यह नायकत्व युद्ध या वीरता का परिणाम नहीं है बल्कि अहिंसा और सत्य के मार्ग का फल है। यह नायकत्व सत्ता से नहीं बंधता, वह तो सत्ता को सही और गलत का भेद बताता है। वह स्वतंत्र और समग्र है जिसे आत्मबल से अर्जित किया जा सकता है। इसमें पद या धन का फल नहीं बल्कि त्याग का उत्कर्ष है। यह नायकत्व किस भी स्वार्थ या गुटबंदी से परे है। यह ओज या वीर रस का भाव भले ना छोड़े लेकिन उसमें असीम शांति है।
हमारी युवा पीढ़ी के मन-मस्तिष्क पर गांधी की वृद्ध प्रतिमा प्रतिष्ठित है, जबकि सच यह है कि युवा गांधी की ऊर्जा, त्याग और संघर्ष ने गांधी को गांधी बनाया।
हमे यह समझना होगा कि युवा गांधी के सत्य प्रयोगों का परिणाम वृद्ध गांधी हैं। युवा गांधी के उस पक्ष को देखिए जहां उन्होंने वैयक्तिक लक्ष्य को खत्म करके मानवीय मूल्यों के लिए कार्य किया। यह फैसला लेना तो सरल है पर इस पर कायम रहना और इसका श्रेय ना लेना बड़ी बात है। गांधी का ‘मैं‘ उनके द्वारा प्रचारित नहीं किया गया बल्कि उसका प्रभा मंडल इतना विस्तृत था कि लोग उसमें स्वयं समाविष्ट हो गए। गांधी एक आदमी की कहानी है जिसने सत्य और अहिंसा को अपना आत्मबल बनाया। वे निरक्षर किसानों की पुकार सुनकर चंपारण पहुंचते हैं तो मिल मज़दूरों के लिए अहमदाबाद। वे साबरमती से दांडी जाकर नमक बनाते हैं तो सेवाग्राम पहुंच कर समाज की रचना में व्यस्त हो जाते हैं। इन सबमें उनका कोई व्यक्तिगत लाभ नहीं था, उनके ज़ेहन में विश्वास था कि साधारण तरीके से असाधारण कार्य किया जा सकता है।
गांधी का अनुकरण करने में संकट यह है कि हम उतने साधारण नहीं बने रह सकते जितना कि गांधी थे। गांधी साधारण को सौंदर्य में तब्दील करते हैं। सोने-जगने और उठने-बैठने में कहीं वे कोई चमत्कारिक व्यवहार नहीं करते। वे किसी संसाधन की मांग नहीं करते। वे बस वही करते हैं जो एक साधारण मनुष्य को करना चाहिए। निहितार्थ है कि गांधी राम और कृष्ण की तरह कोई दैवीय पात्र नहीं है और ना ही वे सन्यास मार्गी हैं। वे रोज़मर्रा की जिंदगी में कुछ मूल्यों को अपना लेने का न्योता देते हैं। संभव है इनके अपनाने पर तात्कालिक संकट पैदा हो। लेकिन विश्वास मानिएगा कि आत्मिक शांति का रास्ता भी खुलेगा। उदाहरण के लिए, जब-जब ऐशो-आराम की तलब जगे तो सोचिएगा कि कैसे गांधी ने एक ग्रामीण महिला के वस्त्रों के अभाव को जानने के बाद खुद कपड़ों को त्याग दिया था। जब किसी बॉस के उत्पीड़न का डर सताए तो विचारिए कि कैसे गांधी ने सविनय अवज्ञा और सत्याग्रह से अनगिनत ‘लॉर्डों‘ की नींदे उड़ा दी थी।
जब भावावेश या किसी अन्य परिस्थिति में हिंसक होने की संभावना अधिक हो जाएं तब गांधी के भजन की उस पंक्ति को याद कीजिए जिसमें वो कहते हैं, ‘वैष्णव जन तो तेने रे कहिए जे पीड़ पराई जाणे रे।’ जब जाति, धर्म और सभी वर्गों का अभिमान सिर उठाए तब याद रखिएगा कि गांधी ने अंतिम जन को हरिजन बनाकर प्रतिष्ठित कर दिया था। जब किसी काम के बड़े-छोटे होने की शंका मन में जागे तो मन को समझाइएगा कि गांधी स्वयं शौचालय की सफाई करते थे। जब यह विश्वास होने लगे कि असत्य के बिना आप कमज़ोर हो रहे हैं, तब सत्य के बंधन से बंधे गांधी को याद कीजिएगा जिनके लिए ‘सत्य’ जीवन से बढ़कर था। जब यह धारणा बने कि पद के बिना पहचान संभव नहीं है तो तुरंत याद कीजिएगा कि क्या अपने जीवन काल में गांधी किसी पद पर थे। हम युवाओं को मानना होगा कि गांधी का यह नायकत्व हमारा पथ प्रदर्शक है, जिसे केवल प्रतीको में ज़िंदा नहीं रखा जा सकता है। वे एक संदेश हैं, एक मूल्य हैं, जिसे जानना और अपनाना होगा। हर युवा के लिए गांधी कर्मक्षेत्र के ऐसे नायक हैं जो कमज़ोर से कमज़ोर व्यक्ति की ताकत बन सकते हैं।