मेरे गांव के कुछ मज़दूर वापस आ चुके हैं, वे अपनी आपबीती बता रहे हैं । इस अफरा-तफरी की वजह पर तो उनमें भारी गुस्सा है ही, साथ ही इससे किसको क्या मिला, किसको कितनी भरपाई करनी पड़ी, इसपर भी बात कर रहे हैं। बता रहे हैं कि हालत बड़ी नाज़ुक है। ट्रेन पर हमें बिना पानी के ही सफर करना पड़ा, खाने की छोड़िये। सबको पानी दाने से कहीं अधिक चिंता ट्रेन में जगह की थी, कोई टस से मस होने को तैयार नहीं था, होने की जगह भी न थी। ट्रेन की लेटलतीफी का आलम तो जानते ही हैं, दो दिन- दो रात कैसे एक टांग पर बीती है, याद करते भी डर लगता है।
मो. दानिश (सिविल इंजी.) बताने लगा कि, कभी कोई यूपी वाला बिहारीयों को गरियाता रहा, तो कभी कोई बिहार वाला यूपी वाले को, भूखे प्यासे पूरी रात बलात्कार पर कोरी बहस होती रही है, निष्कर्ष कुछ नहीं निकला तो मां-बहन कर बैठे। दोपहरी फिर कोई छेड़ दिया कि क्या पता अब निष्कर्ष निकल आये, लेकिन चर्चा भटक कर गालीगलौच व मारपीट की तरफ आ जाती थी। उसी में कोई यूपी वाला भोजपुरी (अश्लील) गाना बजा दिया, तो यूपी वाले ही उसपर चढ़ बैठे कि, साले बिहारी यही सब सुन-सुन के कैरेक्टरलेस हो गये हैं। नियत इन्हीं गानों से खराब हो रही है, इसपर कोई कहता कि भाई यह गाना बजाने वाला यूपी का है, तो बिहारी, यूपी वालोंं पर चढ़ जाते कि यूपी के रेपिस्ट तो तिरंगा लेकर रेप करने लगे हैं।
बहरहाल, अब मुख्य बात पर आते हैं। इतनी जद्दोजहद के बाद जो लोग घर वापस आ गये हैं वे बार-बार कान पकड़ते नहीं थक रहे कि भैया कुच्छौ हो दुबारा गुजरात नहिये जायेंगे, चाहे बच्चन अमिताभ जितनी बार कहें – “एक बार आइए तो सही”। बेचू दिहाड़ी मज़दूर हैं उकाईं पावर प्लांट (सोनगढ़ व्यारा) में 230 रूपया दिहाड़ी+ओवर टाइम पर 12 घंटे काम करता था, 15 हज़ार पगार बाकी है। पिछले महिने का भी हिसाब पक्का नहीं हुआ है, ठेकेदार ने एक रुपया नहीं दिया, बस जान बचाकर भाग आया है। घरवाले उसकी स्थिति से वाकिफ हैं, इसलिए उसकी औरत ने पैसे नहीं मांगे, उसकी 9 साल की बच्ची है जो खुद ही बेचू की खाट पर बीड़ी का बंडल लाकर रख देती है।
बेचू मेहनताने का गम भुलाने के लिए बीड़ी पीने लग जाता है। बेचू आगे कहता है- “भइया किसी का आठ, किसी का दस, किसी का पंद्रह तो किसी का बीस हज़ार तक हिसाब था, जो नहीं हुआ है, अब होगा भी नहीं। अगर अगस्त महीना पूरा काम हुआ है, तो उसका पेमेंट 20 सितंबर से होते-होते अक्टूबर में 10 से 15 तारीख हो जाता है। साहब लोग का भी पगार जल्दी नहीं मिलता है, पहले बड़े बाबू अफसरान लोगन का मिलेगा उसके बाद हमलोग को मिलता है। अब हम तो अनपढ़ आदमी हैं अंगूठा टेक, आप पढ़े- लिखे हैं हिसाब लगा लीजिये 10-15 हज़ार के एवरेज से 50-60 हज़ार लोग जो वहां से भागा है, कितना पैसा हुआ?”
बेचू पैसे की बात कहते- कहते अपनी हथेली फैला देता देता है, कटे-फटे हाथ की लकीरें उसकी बात की सच्चाई बयान कर देती हैं । खाता नं देके सब आ गया है तो क्या ठेकेदार खाते में पगार भेज देगा? ऐसा भी होता है जी? ईमानदारी करना होता तो ठेकेदार काहे बनता? रही हमारी बात तो अल्लामियां का दिया हाथ सलामत है, फिर कहीं चला जायेगा कमाने, कहते हुए बेचू बीड़ी का एक कश लगाकर खांसते हुए आसमान की तरफ मुंह कर के धुआं छोड़ता है। बेचन अली के धुंए छोड़ने की इस्टाईल और चिमनी के धुंए में खासा फर्क नहीं है। बेचन, दानिश और जोखना के अलावा बाकी सभीं मजदूरों के अपने किस्से हैं, जो अब बड़े मौज से सुने जा रहे हैं, जिसमें तकलीफ है, गुस्सा है, ठगा होने का दर्द है तो वहीं घर वापसी की खुशी भी है।
पर उनकी कहानी से यह बात साफ है कि बलात्कार की घटना गैर गुजरातियोंं के प्रति गुजरातियों के अंदर सुलग रही भारी असंंतोष की चिंगारी भर है। असली कहानी तो यहांं की चौपट होती अर्थव्यवस्था में औधोगिक तालेबंदी, कर्मचारियों की छटनी, तथा मध्यम और लघु तबके के व्यवसायों का कंंपटीशन से बाहर हो जाना है। कहीं ना कहीं विकास माॅडल की ढोल ज़रूर फट चुकी है जिसको पिछले डेढ़ दशक से लगातार मोदी सरकार पीटती रही है। उसका नतीजा ही है यह खदेड़ो अभियान जो आजकल चल रहा है। अपने बनाम बाहरी का तो है, पर वास्तव में बलात्कार और यौन हिंसा का नहीं है। बल्कि साफ शब्दों में कहें तो रोज़गार छिन जाने के उस भयावह डर का है, जो अपनी गिरफ्त में लेने के लिए सामने खड़ा है। सरकारी संसाधनों के दुरपयोग और कॉरपोरेटरी लूट ने ऐसी स्थितियों को जन्म दे दिया है, जिससे रोज़गार का सवाल खड़ा हो गया है। वजह यही है कि विकास के नाम पर केवल चंद कॉरपोरेट मितरों के हित साधे गये। अतः इस गंभीर मसले पर सरकार भी सिर्फ अपना बचाव करने की ही हालत में है।