जब तक अत्याचार उत्पीड़न की आग हमारी चौखट तक नहीं पहुंचती है, हमें समाज में व्यापक तौर पर फैली नाइंसाफी का तनिक भी आभास नहीं होता है। ठीक उसी प्रकार जैसे पतीले में दूध के उबलने का एहसास तब होता है, जब दूध उबलकर पतीले के शीर्ष पर पहुंचकर उससे बाहर निकलने को अग्रसर ना हो। हम अगर पतीले के भीतर ही दूध के उबलने को देख लें तो दूध के उबलकर गिरने की परिस्थितियों को रोका जा सकता है।
क्या हमारा समाज भी उसी आंच पर रखे पतीले में तब्दील होकर एक नैतिक पतन को प्राप्त हो रहा है। क्यों हम स्वयं से पृथक सामाजिक और आर्थिक परिवेश के व्यक्ति के साथ हो रहे अत्याचारों की मुखालफत नहीं करते।
बात कोई बहुत पुरानी नहीं है, मैं पिछले ही दिनों में घटी दो घटनाओं का ज़िक्र यहां पर करना चाहूंगा। बीते शानिवार को उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में एक एप्पल के कर्मचारी की पुलिस के द्वारा गोली मारकर निर्मम हत्या कर दी गई। ये उत्तर प्रदेश में कोई पहली वारदात नहीं है। सूबे में फर्ज़ी मुठभेड़ की कई घटनाएं सामने आ चुकी हैं।
लखनऊ की सड़कों पर कई पोस्टर्स पर लिखा हुआ दिखता है, “मुस्कुराइये आप लखनऊ में हैं”। क्या सच में लखनऊ और सूबे में मुस्कुराने के हालात मौजूद हैं।
ये कैसी विरोधाभासी स्थिति हमारे सामने प्रकट हुई है, एक तरफ प्रदेश में पुलिस की निरंकुशता का खौफ और एक तरफ मुस्कुराने की अपील करते ये पोस्टर्स। ध्यान देने वाली बात यह है कि इससे पहले किसी भी घटना पर तमाम रिपोर्ट आने के बावजूद हमारा ध्यान उस ओर आकर्षित क्यों नहीं हुआ। ना ही किसी संचार तंत्र में ये मामले इससे पहले बहस में अपनी जगह बना पाएं।
ये विचाराधीन बात है कि इससे पहले जितनी भी हत्याएं हुई हैं, उनमें अधिकतर संख्या अल्पसंख्यक समुदाय (दलित एवं मुस्लिम) की है, जिनमें से कइयों के खिलाफ अब तक प्राथमिक सूचना रिपोर्ट तक मौजूदा नहीं है। ये स्पष्ट है कि उनकी हत्याएं फर्ज़ी मुठभेड़ में हुई हैं, जिसको वैधता और प्रोत्साहन सूबे में काबिज़ सत्ताधारियों से मिल रहा है।
सवाल यह खड़ा होता है जब एनकाउंटर से ही कानून का राज कायम होगा तो इसे लोकतंत्र क्यों कहें? इसे राजतंत्र कहने में क्या गुरेज़ है? ऐसी स्थिति राजतंत्र में ही मौजूद होती है, जहांं किसी की हत्या को उसका अपराधीकरण करके जायज ठहराया जाता है। ये आंखे मूंदकर हमें मान लेना चाहिए, पुलिस जिस दिशा में गोलियां दागेगी, किसी अपराधी की ही मौत होगी। अब न्यायालय और जेल किस काम के, उनकी प्रासंगिकता मौजूदा स्थिति में समाप्त हो चली है। समय का यही तकाज़ा है, हमें ऐसी परिस्थितियों में लोकतंत्र को तिलांजलि देकर राजतंत्र को सहज भाव से स्वीकार कर लेना चाहिए।
अगर ऐसा नहीं है तो हम अब तक क्यों मुस्काते आए थे, हमने क्यों अपनी एकता उन फर्ज़ी मुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजनों के साथ नहीं दिखाई। हमारी संवेदना तब ही क्यों जागती है, जब आग की लपटें हमारे चौखट तक पहुंचती है। लोकतंत्र में सभी बराबर हैं और हर हिंसक हत्या उतनी ही निंदनीय है जितनी बाकी। परंतु हमारे अल्पसंख्यक समुदाय के साथ पक्षपात पूर्ण रवैये ने स्वयं हमारी संवेदनशीलता पर प्रश्न चिन्ह लगाने का काम किया है।
पिछले दिनों दिल्ली के एक रिहायशी इलाके में सीवेज सफाई के लिए गट्टर में मजबूरन उतारे गए हाउस कीपिंग कर्मचारी की मौत गैस से दम घुटने की वजह से हो गई। इस घटना ने तमाम संचार तंत्र और नागरिक समाज का ध्यान अपनी तरफ खिंचा। कुछ तथ्यात्मक बातों की तरफ हम ज़रा अपना रुख करते हैं।
मैनुअल स्कैवेंजिंग को समाप्त करने का पहला कानून देश में 1993 में पारित हुआ था। वहीं पूरे देश का आंकड़ा देखें तो हाल ही में 11 मौतें हुई हैं। पिछले 5-6 सालों में देशभर में 1,876 लोगों की जान गई लेकिन कब हम इस अमानवीय कृत्य के खिलाफ गोलबंद होकर अपना विरोध एक प्रगतिशील समाज के तौर पर दर्ज करा पाए।
ये बातें भी देखने योग्य है कि मैनुअल स्कैवेंजिंग का अमानवीय एवं प्राणघाती काम हमारा समाज दलितों से मजबूरन करवाता आया है। समाज केवल दलितों पर इस काम को पारंपरिक रूप से आरक्षित करते आया है। आज भी हमारी दृष्टि कब पड़ी इस मुद्दे पर ये सोचने वाली बात है।
हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें ऐसी हृदय विदारक घटनाएं प्रायः घटित होती ही रहती हैं परंतु हम अपनी संवेदना भी अपने समुदाय के लिए आरक्षित करके रखते हैं। हमारा ये दोहरा मापदण्ड किसी दिन ऐसे दोराहे पर ला खड़ा करेगा, जहां कोई दूसरा हमारी नाइंसाफियों के खिलाफ हमारे साथ खड़ा नहीं दिखाई देगा। हमें जर्मन कवि मार्टिन नीलोमर की कालजयी कविता याद रखनी चाहिए जिसका हिंदी तर्जुमा है-
पहले वे कम्युनिस्टों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं कम्युनिस्ट नहीं था।
फिर वे आए ट्रेड यूनियन वालों के लिए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं ट्रेड यूनियन में नहीं था।
फिर वे यहूदियों के लिए आए
और मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं यहूदी नहीं था।
फिर वे मेरे लिए आए
और तब तक कोई नहीं बचा था
जो मेरे लिए बोलता।