उत्तर भारत में त्योहारों के बड़े मौसम अपने साथ परिवर्तन का संकेत लेकर आते हैं जिसका आगाज़ दशहरे के साथ ही हो जाता है। दशहरे को सर्दियों का दरवाज़ा माना जा सकता है जहां से गुजरकर वे हमारे घरों में सुबह -शाम अपनी मौजूदगी का हल्का अहसास करवाने लगती हैं। यही दशहरा पंजाब के अमृतसर में कई निर्दोष लोगों के लिए तब मौत का दरवाज़ा बन गया जब रावण जलने के ठीक कुछ सेंकेड बाद ही तेज़ी से आती हुई ट्रेन ने ट्रैक पर खड़े लोगों को बेदर्दी से कुचल डाला।
जानकारी के मुताबिक 61 लोगों की मौत हो चुकी है और तफ्तीश अब भी जारी है। घायलों की संख्या 74 बताई जा रही है। ये हादसा इसलिए हुआ क्योंकि रेलवे ट्रैक से सटे मैदान में रावण दहन का आयोजन हो रहा था और इस अवसर पर चमक-धमक में ट्रैक पर खड़े लोग ना तो तेज़ रफ्तार से आती रेल की रोशनी को पहचान सके और ना ही उसके शोर को सुन पाए।
इस घटना के बाद आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो चुका है। एक तरफ जहां रेलवे द्वारा स्थानीय प्रशासन पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं वहीं दूसरी ओर ट्रेन की तेज़ रफ्तार भी वहां के लोगों की नाराज़गी का करण बन रहा है।
दोष और बचाव का यह सिलसिला कुछ दिनों तक सुर्खियों में रहेगा और फिर जीवन भारतीय ढर्रों पर चलना शुरू हो जाएगा। बहुत मुमकिन है कि आने वाली दीवाली के पटाखों में इस दुर्घटना की मार्मिक चीखें भी दब जाएं।
भारत में अनेक छोटे-बड़े अवसरों पर ऐसे भंयकर हादसे होते रहे हैं जिनका देश की चेतना से सीधा संबंध है। यह एक ऐसी चेतना है जिसमें लौ तो पूरी दिखती है लेकिन इसमें तपिश नहीं है। ऐसी झूठी चेतना बड़े हादसों का इंतज़ार करती है और फिर दोबारा ठंडी पड़ जाती है।
हम देश में होने वाले हादसों को बखूबी एक शक्ल दे देते हैं और फिर उस शक्ल के रिश्तेदारों को ढूंढने लग जाते हैं, जो या तो उन हादसों के ज़िम्मेदार हैं या उन हादसों के भोगी। इस तलाश में हम खुद से भी कभी यह पूछने की ज़हमत नहीं उठाते कि क्या इन हादसों से हमारा कोई सीधा संबंध है या नहीं, जबकि सच यह है कि देश का हर बड़ा हादसा बहुत गहराई से पूरे समाज के साथ जुड़ा हुआ है। हमको यह नहीं भूलना चाहिए कि हादसे में पीड़ित और दोषी दोनों ही समाज के अभिन्न हिस्सा होते हैं।
हमारी चेतना पीड़ित को हमेशा सही और हादसे के दोषियों को गलत पेश करने की होती है। अमृसर वाली घटना के बाद जिस प्रकार की राजनीति शुरू हुई उससे हम इस चीज़ को समझ सकते हैं। स्थानीय से लेकर केंद्रीय नेतृत्व तक के राजनेता देश के लोगों की चेतना तय करने की कोशिश करते हैं और फिर इस चक्कर में हम इन हादसों से वास्तविक सबक लेने का मर्म तो भूल ही जाते हैं। हम बस कोई चेहरा ढूंढ लेते है जो या तो अच्छा है या बुरा और उसको हर्जाने और मुआवजे में बांधकर अपने कर्तव्यों की पूर्ति कर लेते हैं।
कोई भी बड़ा हादसा संवेदनाओं को झकझोर जाता है और फिर हर कोई इन संवेदनाओं को अपने पक्ष में करने की जुगत में लग जाता है। अमृतसर रेल हादसे में भी हमें कुछ चेहरे मिलने शुरू हो गए हैं जो मोटे तौर पर स्थानीय प्रशासन, मेला समिति और रेलवे के रूप में हैं। अभी हमको इन लोगों से बहुत सवाल पूछने हैं और फिर इन लोगों को अपना फंदा दूसरे के गले में डालने का खेल शूरू करना है।
इस बीच जो मर गया वो वापिस नहीं आने वाला है और ना ही समाज में व्यापक स्तर पर यह चेतना जगने वाली है कि क्यों रेलवे ट्रैक के पास जान को जोखिम में डालकर रावण दहन जैसे कार्यक्रम की ज़रूरत है। यह तर्क गले नहीं उतरेगा कि ऐसा काम तो सालों से किया जा रहा है। ना ही ट्रेन की चपेट में आने से पहले सेल्फी लेने वालों के बहाने कोई यह बताने का कष्ट करेगा कि त्यौहारों को मनाने का हमारा स्वरूप किस हद तक भौतिकवादी होता जा रहा है।
हम अपने त्यौहारों के मनाएं जाने के कारण जानने से ज़्यादा उनको मनाएं जाने के तरीकों में उलझ गए हैं। हम हादसे होने के पीछे की सही वजहों से ज्यादा हादसे होने के तकनीकी पक्षों में ज़्यादा उलझ गए हैं। हमें लगता है कि ट्रेन की स्पीड कम होती तो ज्यादा बेहतर होता, कभी लगता है ट्रैक के पास पुलिस और समिति के लोग होते तो और भी बेहतर होता, जबकि रेलवे को लगता है कि अगर उसको बता दिया गया होता तो सबसे बेहतर होता।
हमें सवाल करना होगा कि क्यों हम प्रशासन से रेलवे ट्रैक के पास रावण दहन मनाने की इजाज़त मांग रहे हैं। हमको सवाल करना होगा कि क्यों प्रशासन के ‘काबिल’ लोग हमको ऐसी इजाज़त दे रहे हैं और आखिर क्यों अब हर हर त्योहार अपनी मूल भावनाओं से हटकर मौज-मस्ती का साधन ज़्यादा बनता जा रहा है। कहीं हम नकल में इतने अभ्यस्त तो नहीं हो गए कि अपनी मौलिक संस्कृति की आसान बातें भी हमने याद नहीं की। कई ऐसे सवाल हैं जो हमे खुद से करने की ज़रूरत है।