‘तब’ क्यों नहीं बताया. पुलिस/ कोर्ट में केस क्यों नहीं किया?
— हा तो बताओ, तब क्यों नहीं कहा, जब तुम 18/21 साल की थी. ग्रेजुएशन करके पहली जॉब के लिए पागलों की तरह घूम रही थी, किसी को एजुकेशन लोन चुकाना था, किसी के पास पॉकेट मनी के पैसे नहीं थे, किसी को घर में पेरेंट्स की हेल्प करनी थी, किसी को छोटी बहन/ भाई की फीस देनी थी, किसी को सपने पूरे करने थे अपने एक अच्छी जगह नौकरी करने के….. बहुत कुछ था, सबकुछ शब्दों में समा जाए, संभव तो नहीं.
उस समय क्यों नहीं कहा?
तुम्हें नौकरी नहीं मिलती, तो नहीं मिलती, ये सब अधूरा रह जाता तो रह जाता, पुलिस कोर्ट में चल रहे केसों के कारण शादी नहीं होती तो ना होती, अड़ोस पड़ोस वाले कहते कि इसके साथ ही क्यों हुआ- कहते तो कहते. दूसरी कंपनी वाले भी जॉब नहीं देते ये सोचकर कि पता नहीं हमारे यहां भी यही आरोप लगादे आकर, (जोकि 2018 में मेरी एक फ्रेंड के साथ हुआ, और उसने 2018 में ही कह भी दिया), सोशल मीडिया नहीं था तो गले में ढोल डालकर कह देती,
कुछ भी होता, तुम्हे तब ही बोलना चाहिए था.
(तब बोले से न्याय मिल जाता ये कहां लिखा है. मुंबई की वो रिपोर्टर गुमनाम है जिसके साथ ऑन रिपोर्टिंग बलात्कार हुआ था, तुम्हारे समाज ने उसे अंधेरी गलियों में धकेल दिया, वर्षों से वो अंधेरे में है. काश! वो छुपा रहता और आज वो सो कॉल्ड इज्जत के चलते किसी अच्छी जगह पर कैरियर बना रही होती.)
तुम्हारे हाथ में नौकरी थी, इंटरव्यू लेते थे. मेरे हाथ में मेरी पढ़ाई. मेरी डिग्री रखी वो फोल्डर वाली फ़ाइल तुम्हें सुहाती नहीं थी, जिससे मैं तुम्हारी घूरती आंखों से मेरे स्तन ढंकने की कोशिश करती रही थी. उस पल ही तुम खरीद लेना चाहते थे जिस्म को मेरे उस नौकरी के बदले.
कभी मैंने बेचा जिस्म को वो डिग्री और सर्टिफिकेट का फोल्डर साइड में रखकर, तो कभी मैं ना भी कह पाई तुम्हें.
हर लड़की के हालात अलग थे, हर लड़की #metoo भी ना कह पाई.
#Against_sexual_harassment_At_Workplace