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दंगा

दंगा
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नाम रिक्शा वाला, धर्म पता नहीं, पता स्टेशन पर सड़ी हुई झोपड़ी। ये बायोडाटा था उस अधैड़ उम्र के व्यक्ति का। जो दिनभर रिक्शा पेलता, कभी कभी रात में भी झेलता और कुछ समय को जाकर उस झोंपड़ी में आराम कर लेता, जो भारत सरकार के सड़क किनारे उसने डाल दी थी। जगह सरकारी थी इसलिए झोपड़ी पड़ गई, नहीं तो गरीब की कालोनी देखी नहीं मैंने। रात को यहां इस चैराहे पर आकर खड़ा हो जाता और टुकर-टुकर चैराहे की रौनक देखता। सवारी भी टकरा जाती, इसीलिए चंद पैसों के लालच में चैराहे पर आकर बैठ जाता। यहां रिक्शा पर ही चढ़कर बैठता। बाजार और ग्राहक को देखकर खुश होता और अपने गम भूल जाता।  वो तो ज्यादा से ज्यादा इस हलवाई की दुकान पर चाय पी लेता। दाढ़ी खिंचड़ी थी उसकी, आधी से ज्यादा सफेद, चावल की तरह, आधी से कम काली काली दाल की तरह। बाल लम्बे-लम्बे। सफेद बादलों की तरह झूलते। हाथ पैरों की नसे उभरी हुई। मेहनतकश लोगों की निशानी होती है यह उभरी हुई नसे क्योंकि शरीर में फेट कम होता है। मेहनत की भट्टी चर्बी पिघलाई देती है, कुर्ता पजामा मैला था उसका, बस यही उसकी पहचान थी। जब वो यहा रहता था , तो रहता, जब झोपड़ी से बाहर रहता तो उसकी झोपड़ी पर कुत्तों का सम्राज्य होता। वो वहां राजा की तरह लौट मारते। पैरों में टूटे जुते, आमदनी उसकी कभी 100 रूपये तो कभी 150। उम्र के हिसाब से आमदनी भी कम हो जाती। बड़ा सीधा रिक्शा वाला था। अहिंसक प्रवृत्ति का। गाली के बदले गाली नहीं देता। पांच के दस कभी न मांगता। रोडवेज या टैम्पू स्टैण्ड पर कभी रिक्शा अडाकर खड़ी नहीं करता। सबसे आखिर में खड़ा रहता। सवारी की उम्मीद में, या शायद गांधी की उम्मीद में कि आयेंगे और उसका हाथ थाम लेंगे। चैराहे पर कोई उसे हिन्दू समझता तो कोई उसके मुसलमान होने की कहानी बताता। कोई सीख भी समझता। अपनी अपनी राय, अपने अपने धर्म। पर वो तो गरीब भारतीय था इससे ज्यादा कुछ नहीं। गुरबत का कोई धर्म नहीं होता। गुरबत खुद एक धर्म है।
शहर की हवा खराब थी, दो चार साल में हो ही जाती है। फिर धार्मिक उन्माद फैलाने की कोशिश थी। इसके पीछे कौन होता है, सब जानते हैं पर अंधे है बहरे हैं। शहर में अफवाहों का बाजार गर्म था, वाॅट्सअप चालू था। फेसबुकिंग हो रही थी। अफवाहें आग में महंगे पेट्रोल का काम कर रही थीं। आग में घी डाल रहे थे जुलूस, नारे और धर्म के लिए जान देने का और लेने का हम भारतीयों का जज्बा। एक सम्प्रदाय ने जुलूस निकाला, भारी भीड़ थी। नेता गद्गद् हो रहे थे कि एक आवाज पर लाखों इकट्ठा हो गये। नारे लगे, ज्ञापन दिया गया और फिर कुछ दिन बाद दूसरों का मौका था। इनका निकाला जुलूस तो हम भी निकालेंगे। लोकतंत्र है भले ही हमने पढ़ा नहीं, उन्होंने भी ताकत दिखाई। वहां भी गले साफ हुए। ज्ञापन दिये गये, धर्म खतरे में आ गया। अफवाहें फिर गर्म हो गई, बल्कि यूं कहिए कि भट्टी सी बन गई, जनता दंगे के लिए तैयार थी। प्रशासन मूकबधिर होकर मस्ती ले रहा था कि शहर को उजड़ने दो फिर बसा लेंगे। इसी माहौल में रिक्शा वाला अपनी रिक्शा ठेल रहा था। उसे क्या मतलब इन जुलूसों से नारों से और हिन्दू मुसलमान से वो तो एक इंसान था। लोगों को मंजिल तक पहुंचा देता था बस, वो भी कम पैसों में।
फिर एक दिन अहित हो ही गया, ये तो होना ही था। एक मुसलमान जूस वाले की बराबर के हिन्दू दुकानदार से किसी छोटी सी बात पर या यूं कहिए कि कोई बात ही न हो, कहासुनी हो गई और मामला हाथापाई पर आ पहुंचा। छोटी सी बात बहुत बड़ी हो गई इधर से हजारों आदमी, उधर से भी कम नहीं। मानो किसी जंग पर जा रहे हो या भारत पर कोई हमला हो गया हो और देश हित में जनता सड़क पर आ गई हो। इधर के नेता भी चीखे उधर के नेता भी दहाड़े और फिर बीच बचाव हो गया और थोड़ी शांति मिली। दो दिन बाद फिर पंगा, किसी ने छुरा चला दिया और आग भड़क उठी, दंगा भड़क गया। यहां एक लाश पड़ी थी, विभस रूप में क्या पता कौन था। हिन्दू था या मुसलमान। लेकिन बहाना अच्छा था। आनन-फानन में बलवाई सड़कों पर थे, पुलिस बल कम पड़ गये। जंग लगे हथियार उनके काम न आये। चीख पुकार, आगजनी हिन्दू को मौका मिला तो मुसलमान को मारता, मुसलमान मौके पर हिन्दू को मारता।  रिक्शा वाला हतप्रद वो अधैड़ था उसका घर दूर था, उसे वहां पहुंचना था।  पुलिस की सायन लगी गाड़ियों ने जीप कारों ने उसे डरा दिया था। चैराहे पर अफरा-तफरी थी। बलवाई आ गये थे। एक तरफ हिन्दू थे एक छोर पर मुसलमान थे। पथराव, गोलाबारी सब हो रही थी, बीच में फंसा था रिक्शा वाला। अरे क्यों निकल पड़ा था इस माहौल में। उसने सोचा पर क्या करता पानी तो फ्री मिल जाता है अभी, प्यास बुझ जाती है, गेहूं का दाम था इस देश में, उसके लिए पैसे चाहिए थे। यही रोजी रोटी निकालती है घर से बाहर गरीब को। एक तरफ को उसने रिक्शा भगाई, यहां मोड़ पर बलवाई थे वो रूका, सहम गया। नौजवान लड़के उसे घूर रहे थे। उनकी आंखों में क्रोध, नसों में उबाल था। वो नौजवान कुछ करना चाहते थे। किसी को मारना चाहते थे। जिससे उन्हें अवार्ड मिले, दंगों के काले इतिहास में उनका भी नाम दर्ज हो सुनहरे अक्षरों में, एक बोला तेरी तो साले और कहके रिक्शा वाले के छुरा घोंप दिया। वार ओच्छा था। रिक्शा छोड़ वो भागा भयभीत। सामने मौत नाच रही थी, डिस्कोडास की तरह। भागता रहा चाकू ओच्छा था पर रक्त निकल पड़ा था। तंगे का भोजन रक्त, जितना रक्त बहेगा, जितनी जाने जायेंगी, उतना दंगा कामयाब। रिक्शा वाले के पीछे लाठी-डंडे भी पड़ गये थे पर वो भागता रहा, दर्द के साथ, मौत उसके पीछे थी और जब मौत पीछा करती है तो आदमी उस एनबोल्ड हो जाता है। दंगईयों ने उसकी रिक्शा फंूक दी। किसी की रोजी रोटी धूं-धूंकर जल उठी। सामने फिर भीड़ थी। वाॅटसअप की अफवाहों ने अपना काम कर दिखाया था। स्लो सिंगनल पर भी वाटसअप चलता है। सामने असंख्या आदमी उनके हाथों में तलवारे , त्रिशूल, कट्टे, कुल्हाड़े। वो रूका अब भागने की शक्ति नहीं थी। पीछे मौत थी सामने भीड़। भीड़ आगे बढ़ रही थी। रिक्शा वाला घुटनों के बल हाथ जोड़कर बैठ गया। कमर से रक्त बह रहा था। इस भीड़ को उसका रक्त ही चाहिए था, तभी इन शुरवीरों की प्यास बुझेगी। वो गिड़गिड़ाया, उसके फिके होठ फड़फड़ाये जान की गुहार लगाई लरस्ते हाथों ने लड़खड़ाती दरखवास लगाई कि बख्स दो।  पर नहीं आज का दिन तो मर्दानगी दिखाने का था। आज तो बड़ा दिन था। आज का काबिल बनने का दिन था। दंगों में तो नौजवानों का पुरूषतत्व जाग जाता है वो सिर्फ अपने पुरूषतत्व का इस्तेमाल सिर्फ दो चीजों में करते है दनादन रैप करने में या दंगे के दिन गरीब, मजदूरों की, मजलूमों की जान लेने में। क्या धनवान कभी मरते है, धनवान अस्पतालों में मरते है। दंगों में गरीब मरता है जिसे रोटी नसीब नहीं। उसका मरना ही अच्छा है। दंगा का शिकार गरीब ही है। ये रिक्शावाला भी भीड़ का शिकार था, एक हिरन का तरह इस भीड़ के आगे मिमिया रहा था।  यह भीड़ आज शेर थी असली मर्द थी। नपुसंक मर्द को कभी कभी मौका मिलता है रैप करने का या किसी की जान लेने का। सालों साल यह नपुंसक समाज बना रहता है इसके अधिकारों का हनन होता है शोषण होता है इसका खुद, लेकिन यह भीड़ नेता और अधिकारी के समक्ष नत्मस्त होती है और भीख मांगती रहती है अपने जायज अधिकारों की जैसे आज यह रिक्शा वाला मांग रहा था उस भीड़ से अपने जीवन की भीख।  पर नहीं भीड़ में शामिल सैकड़ों बेरोजगारों को आज रोजगार हाथ आया था। किसी की हत्या करना एक रोजगार है। कल जब दंगे समाप्त होंगे, क्फर्यू हटेगा, तब यह हिन्दू-मुसलमान एक हो जायेंगे, रक्त का रंग एक हो जायेगा, पर आज नहीं आज दंगे का दिन है, आज जान लेने का दिन है। एक नव युवक ने देसी कट्टे से गोली चला दी थी, गोली सीने में लगी रिक्शा वाले के और हिन्दुस्तान के दिल में भी लगी। रिक्शा वाला वहीं लेट गया, फिर भीड़ उस मुर्दे पर जिसमें थोड़ी सांस होगी। गिद्दों की तरह टूट पड़ी, जिसके हाथ में तलवार थी, उसने तलवार मारी उस निर्जीव शरीर पर, जिसके हाथ में डंडा था उसने बेजान पड़ी हड्डी को तोड़ा शायद पुण्य कमाया। लात घुसे उन्माद कम हुआ तो एण्ड रिजल्ट आया। एक रक्त रंजित लाश रिक्शा वाले की, पहचान नहीं सकता था उस लाश को क्या वो हिन्दू है या मुसलमान। वो तो बस भेंट चढ़ा था दंगे की वहीं पड़ा रहा एक लाश बनकर। भीड़ नारे लगाते आगे बढ़ गई नया शिकार ढूंढने।
अली अकबर
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