मैं समंदर के बीचो बीच जाकर कुछ मोती चुनकर तुम्हारे गले के लिए मोतियों की एक माला बनाना चाहता हूं…. मैं तुम्हारी झील सी गहरी आंखों पर काजल का किनारा खींच देना चाहता हूं…. तुम्हारे होंठों पर सुर्ख लाल रंग को बिखेर देना चाहता हूं… मैं तुम्हारे पांवों में एक पतली सी चांदी की पायल बांध देना चाहता हूं… मैं तुम्हारे हाथों में चूड़ियां डाल देना चाहता हूं… मैं तुम्हारे बंधे हुए बालों को आजाद कर देना चाहता हूं… मैं तुम्हें बाइक की पिछली सीट पर बिठाकर बर्फीले रास्तों की सैर कराना चाहता हूं… वहीं किसी नदी के किनारे बैठकर जब दिन ढलने को हो.. और चांद आकाश में आने को बेताब हो… उसी झीनी झीनी सी चांदनी की रोशनी में मैं तुम्हारे चेहरे को देखते रहना चाहता हूं… इन पलों को मैं रोक लेना चाहता हूं… ना जाने कितनी बातें हैं… जो मैं तुमसे इसी वक्त करना चाहता हूं… सही-गलत से परे, सारी गलतफहमियों से अलग हटकर, एक दूसरे की गलतियों को भुलाकर, मैं तुम्हारे हाथों में अपने हाथों से मेंहदी लगाना चाहता हूं… तुम्हारी हथेलियों पर मैं अपने नाम का पहला अक्षर उकेर देना चाहता हूं… मैं नहीं जानता कि मेंहदी रचेगी या नहीं.. सच कहूं तो मैं जानता ही नहीं कि मेंहदी कैसे रचती है… मैं किसी छप्पर वाली दुकान की चाय पीते हुए तुमसे गुफ्तगू करना चाहता हूं… मैं आज अपनी कहना नहीं चाहता… बल्कि तुम्हारी सुनना चाहता हूं… मैं तुमको गाते हुए सुनना चाहता हूं… तुमको चहचहाते हुए देखना चाहता हूं… खुलकर हंसते हुए देखना चाहता हूं…मैं जानना चाहता हूं कि तुम्हारे दिन कैसे कटते हैं… क्या क्या करती रहती हो इनदिनों अपने घर में अक्सर… क्या अकेले में कभी सोचती हो मेरे बारे में… और सोचती हो तो आखिर क्या…. मेरी कौन सी बात तुम्हें सबसे ज्यादा याद आती है.. मेरी कौन सी बात याद करके तुम ठहाका लगाकर हंस पड़ती हो… कौन सी बात ऐसी है जिसे याद करके तुम्हारा चेहरा गुस्से से लाल हो जाता है… और ये भी कि तुम क्या अब भी डायरी लिखती हो जैसे पहले लिखा करती थी… क्या अब भी गिलास भर के चाय पीने की आदत है तुम्हारी… क्या अब भी रातों में तकिए से लिपट कर सोने की आदत है क्या ?… क्या अब भी तुम कभी कभी दो चोटियां कर लेती हो क्या जैसे पहले किया करती थी… क्या अब भी वो लाल रंग वाले दुपट्टे वाला सफेद सूट फेवरेट है तुम्हारा ? क्या अब भी तुम अपने मोहल्ले के बच्चों के साथ खेलती हो… क्या पहले की तरह ही अब भी तुम शाम के वक्त अपनी मम्मी के साथ टहलने के लिए निकलती हो क्या… जैसे पहले जाया करती थी… क्या अब भी चाय के प्याले को हाथों में लेकर कोहनी को छज्जे की दीवारों पर टिकाकर… कुछ सोचा करती हो क्या… क्या तेज हवाओं में छत पर आकर खुली जुल्फों को हवा से बचाने की नाकाम कोशिश करती हो क्या जैसे पहले करती थी तुम…. गर तुम इन सारे सवालों का जवाब ना देना चाहो तो बस एक छोटे से सवाल का जवाब दे दो…….. क्या अब भी याद आती है मेरी ?
उन्नाव वाले चन्द्रकान्त