आरक्षण, ये शब्द और इस पर होने वाली बहस काफी पोलराइज़िंग है। कुछ महीनों पहले तक मैं भी इस बहस में काफी उत्साह के साथ हिस्सा लिया करता था और उम्मीद करता था कि लोग मेरे तर्कों को उसकी गुणवत्ता के आधार पर निष्पक्ष होकर सुनने और समझने की कोशिश करेंगे। लेकिन या तो वो आमने सामने की बहस हो या फेसबुक और कोरा जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर होने वाली बहस हो, इन सब में मैंने पाया कि जब मुद्दा आरक्षण का आता है तो लोग इसे काफी व्यक्तिगत तौर पर लेते हैं।
हम अभी भी देश या समाज के तौर पर आरक्षण पर कोई प्रगतिशील विचारधारा अपनाने को तैयार नहीं हैं। चाहे वो आरक्षण समर्थक हो या आरक्षण विरोधी, उनका इस विषय के प्रति नज़रिया इतना अडिग है कि उनको सही या गलत होने से फर्क नहीं पड़ता। वो विपरीत विचारों को सुनना ही नहीं चाहते। आज जब मैं ये लिख रहा हूं तो मैं ये जानता हूं कि इसे पढ़ने के बाद अधिकतर लोगों के विचार वही रहेंगे जो पहले थे।
बहरहाल, मैं इस आर्टिकल की शुरुआत में ही ये साफ कर देना चाहता हूं कि मैं आरक्षण का समर्थक हूं और मेरी नज़र में दुनिया में कहीं भी वंचित वर्गों को उचित मौका दिलाने की इससे ज़्यादा कारगर व्यवस्था फिलहाल तो नहीं है।
सबसे शुरुआत में मैं आरक्षण से जुड़ी भ्रांतियों को दूर करना चाहूंगा।
पहली भ्रांति: डॉ. अम्बेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था सिर्फ 10 वर्षों के लिए रखी थी।
यह वो तर्क है जो आरक्षण विरोधी धड़ा सबसे ज़्यादा इस्तेमाल करता है और इसका मकसद होता है कि वो दलितों और शोषितों के सबसे बड़े पैरोकार डॉ. अम्बेडकर को अपने पक्ष में कर ले। लेकिन ये तर्क एक सोच समझ कर फैलाई गई भ्रांति है। अम्बेडकर ने कभी ऐसा नहीं कहा कि हर तरह के आरक्षण को 10 साल में खत्म हो जाना चाहिए। हां, लोकसभा और विधानसभा की सीटों पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को मिलने वाले आरक्षण को 10 साल तक जारी रखने की बात ज़रूर की गई है लेकिन वो बात इस उम्मीद के साथ की गई थी कि 10 सालों में भारत जातिवाद और जाति-प्रथा से मुक्त हो जाएगा। आज़ादी के दस साल बाद के भारत को अगर देखें तो साफ हो जाएगा कि जाति प्रथा तब भी जारी थी और इसके साथ साथ दलितों का दमन भी। तो दस साल होने पर इस व्यवस्था को खत्म करने का सवाल ही नहीं उठता है। इसके अलावा शिक्षा और रोज़गार में मिलने वाले आरक्षण पर ऐसी कोई पाबंदी नहीं लगाई गई थी।
दूसरी भ्रांति: जाति-प्रथा आरक्षण की वजह से है।
ये कुतर्क कथित ऊंची जातियों के लोगों की जातिवाद के प्रति असंवेदनशीलता को दर्शाता है। उनका यह मानना कि आरक्षण की वजह से हमारे समाज में जातिवाद है, उनकी अज्ञानता है। हमारे देश में जातियों का इतिहास हज़ारों साल पुराना है। निचली जातियों पर ऊंची जातियों द्वारा किये जाने वाले अत्याचार का सिलसिला भी इतना ही पुराना है। इन हज़ारों सालों में ऊंची जातियों के लोग जाति-प्रथा से खुश थे क्योंकि उस व्यवस्था में वो सबसे ताकतवर थे। लेकिन जैसे ही आरक्षण को इस जाति-प्रथा के शिकार हुए दलितों के लिए लाया गया वो उल्टे इसी व्यवस्था को जातिवाद की वजह मानने लगे।
तीसरी भ्रांति: आरक्षण की वजह से नौकरी पाने वाले लोगों की क्षमता कम होती है और यही भारत के विकास ना करने की वजह है
इस तर्क को देते हुए आरक्षण विरोधी लोगों ने दलितों के प्रति अस्पृश्यता को बरकरार रखा है। जब ये लोग कहते हैं कि आरक्षण से मिली सीट से बने डॉक्टर या इंजीनियर अपने पेशे में खराब होते हैं तो वो एक खास जाति समूह के लोगों को अछूत मानने की ही वकालत कर रहे होते हैं। एक दलित डॉक्टर हो या इंजीनियर वो भी अपने कॉलेज में वही पढ़ाई पढ़ता है और वही इम्तिहान पास करता है जो उसका सवर्ण सहपाठी करता है। ये मानना कि एक ही पढ़ाई कर के कोई इंसान बस अपनी जाति की वजह से कुशल नहीं हो सकता ये उसी सोच का हिस्सा है जिसने जन्म से ही एक तबके को अछूत और अपने से निम्न मान के समाज मे जाति-प्रथा का ज़हर घोला है।
और रही बात भारत की प्रगति की तो ये तर्क देने वालों को ये नहीं भूलना चाहिए कि हर सरकारी विभाग में अभी भी ऊंची जाति के लोग ही अधिकतर पदों पर हैं और प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण न होने की वजह से उनका ही वर्चस्व है। तो असक्षम तंत्र के लिए वो ज़्यादा ज़िम्मेदार हैं ना कि दलित। ऐसा आरोप लगाने वाले लोग मज़दूरों, किसानों, सफाई कर्मियों और कारीगरों जैसे पेशों, जिनमें दलित सबसे ज़्यादा एम्प्लॉयड होते हैं, उनका देश की प्रगति में ग्रास रूट लेवल पर होने वाले योगदान को भी नज़रअंदाज कर देते हैं।
चौथी भ्रांति: दलितों का दमन पुरानी पीढ़ी के लोग करते थे तो इसकी सज़ा अभी की पीढ़ी क्यों मिलती है
सबसे पहली बात कि आरक्षण को किसी तबके की सज़ा के तौर पर नहीं लाया गया था। आरक्षण का मकसद किसी का हक मारना नहीं बल्कि वंचितों को उनका हक दिलाना है। ऐसा नहीं है कि सरकार सवर्णों के हिस्से की चीज़ दलितों को दे रही है। दलित भी इसी देश के नागरिक हैं और जो उन्हें मिल रहा है वो उनका हक है। आरक्षण कोई बैसाखी या खैरात नहीं बल्कि इस देश का अपने नागरिकों के प्रति ज़िम्मेदारी है। इसके साथ-साथ ऐसा भी नहीं है कि दलितों का दमन कोई गुज़रे ज़माने की चीज़ है। आज बस हमें नज़र फिरा के देखने की ज़रूरत है और दलितों पर अत्याचार के मामले हर जगह नज़र आएंगे। अभी भी दलितों को समाज में दोयम दर्जे का नागरिक समझा जाता है, अभी भी उनकी समस्याओं को अहमियत नहीं दी जाती है और अभी भी दलित दूसरों की गंदगी साफ करने के लिए बाध्य किये जाते हैं। दलितों का दमन रुका नहीं है बस आपका उस पर ध्यान नहीं है।
हमारा समाज अभी भी जातियों के आधार पर बंटा हुआ है। हमारे यहां अभी भी जाति आधारित मुहल्ले, गांव और कस्बे हैं। अभी भी जाति आधारित पेशे हैं। शादियां अभी भी जाति के आधार पर की जाती है। जब जाति आधारित भेदभाव अभी तक जारी है तो दमन भी जाति आधारित ही है और जाति आधारित दमन से लड़ने के लिए हमें जाति के आधार पर दबाये गए लोगों की पहचान कर उन्हें ऊपर उठाने का मौका देना होगा। और आरक्षण ये काम करता है।
जाति से समाज पर पड़ने वाला असर आर्थिक से ज़्यादा सामाजिक है। तो इसलिए जब कुछ लोग आरक्षण को आर्थिक आधार पर करने की बात करते हैं तो वो इस बात को जानबूझ कर नज़रअंदाज कर देते हैं कि हमारे समाज में अभी भी एक गरीब सवर्ण और एक गरीब दलित की सामाजिक हैसियत एक सी नहीं है। यहां तक कि अगर कोई दलित इस देश की सबसे प्रतिष्ठीत सेवा IAS में भी स्थापित हो जाता है तो उसे उतना सम्मान नहीं मिलता जितना कि एक ऊंची जाति के IAS को मिलता है। दफ्तरों में हो या शैक्षणिक संस्थानों में, हर जगह जातिवाद की वजह से दलितों को मुश्किल हालातों का सामना करना पड़ता है।
आरक्षण कोई आदर्श व्यवस्था नहीं है। एक सभ्य समाज में किसी ऐसी व्यवस्था की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए जो किसी इंसान के जन्म से ही निम्न माने जाने की धारणा की वजह से अस्तित्व में आया हो। मैं भी तहे दिल से ऐसा हिंदुस्तान चाहता हूं जहां आरक्षण की ज़रूरत ना पड़े लेकिन उसके लिए पहले जाति-व्यवस्था को हिंदुस्तान से जाना होगा। लेकिन वो देश जहां लोग अभी भी जाति आधारित उपनाम और जनेऊ से जकड़े पड़े हैं उसके लिए आरक्षण के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। देश की हालातों को देखते हुए लगता है कि आरक्षण भी कम पड़ रहा है।
अभी भी जिस हालात में दलित हैं, जैसे उन्हें आज प्यार करने के लिए, सिर्फ मूंछ रखने के लिए, बारात में घोड़ी पर चढ़ने के लिए, सवर्णों का पानी पीने के लिए मार दिया जा रहा है। शहरों के सीवर में दलितों को अभी भी दूसरों की गंदगी अपने हाथ से साफ करने के क्रम ने अपनी जान गंवानी पड़ रही है। अदालतों, शैक्षणिक संस्थानों, ऊंचे सरकारी पदों पर दलितों की जितनी कमी बरकरार है। इन सबको ध्यान में रखते हुए आरक्षण के अलावा दलितों की जान की रक्षा और उनके उत्थान के लिए और उचित अफ्फर्मेटिव एक्शन लिए जाने की ज़रूरत है।