हाल ही में तेलंगाना में हुई ऑनर किलिंग ने सबके होश उड़ा दिए। गर्भवती बेटी के पति को बीच सड़क पर जान से मरवाने वाले बाप के लिए सबके दिलों में नफरत जागी लेकिन इस नफरत ने क्या हमारे दिमाग भी खोले हैं? क्या इस घटना के बाद भी दूसरी जाति में प्रेम करने वाली बेटियों के बाप अब खुशी-खुशी रज़ामंदी दे देंगे।
हमारी सबसे बड़ी परेशानी तो यही है कि हम घटनाओं पर प्रतिक्रिया देने में ज़रा भी देरी नहीं करते लेकिन उनसे सीखते शून्य हैं। अंतरजातीय शादियों पर हमारी भौहें तुरंत तन जाती हैं। अभी भी लोग परेशानी में रिश्तेदार की मदद भले ही ना करें पर शादी ब्याह में अगर बिरादरी से बाहर निकले तो नाक-भौं ज़रूर चढ़ा लेंगे। जीजा-फूफा आने से मना कर देंगे। सबसे बड़ा मसला बन जाएगा पैर छूने का।
“लव मैरिज से हमें कोई परेशानी नहीं है लेकिन अपनी जाति बिरादरी में हो। हम नीच जाति की लड़की के हाथ छुआ कैसे खा लेगें।” ये कहना था 55 साल की अनीता शर्मा का, जो पेशे से एक शिक्षिका हैं और बच्चों को समानता व ऊंच नीच में भेदभाव ना करने का पाठ पढ़ाती हैं लेकिन खुद के घर में इस पाठ को अपनाना नहीं चाहती हैं।
सवर्ण वर्ग के ज़्यादातर परिवारों में आज भी विशेष जाति के व्यक्ति के आने पर उनको अलग बर्तन में चाय, पानी देने की परंपरा देखने को मिलती है। मुझे अच्छी तरह से याद है एक ट्रेनिंग के दौरान मैंने एक विशेष जाति की लड़की के साथ रूम शेयर करना तय किया था जिसपर कॉलेज के अन्य स्टूडेंट्स ने मेरे असली ब्राह्मण होने पर सवाल खड़े कर दिए थे कि कैसे मैं उस लड़की के ही बर्तन में खाना खा सकती हूं। हैरानी की बात ये है कि सवाल करने वाले लोग सीनियर सिटीज़न वर्ग के नहीं बल्कि मेरे ही हम उम्र युवा लोग थे।
एक तरफ आरक्षण के नाम पर हम झंडे ऊंचा करना शुरू कर देते हैं कि समानता का अधिकार होना चाहिए तो वहीं दूसरी तरफ हमारे व्यवहार में ही इतनी बड़ी असमानता है। दलित दूल्हे को घोड़ी पर ना चढ़ने देने, दलित सरपंच को आज़ादी दिवस पर तिरंगा ना फहराने देने और मिड डे मील के वक्त दलित स्टूडेंट्स को अलग बर्तन में भोजन देने जैसे नियम बनाकर हम उन्हें अपने समान होने का संदेश तो नहीं ही देते हैं।
मैं जिन्हें अपना बहुत अच्छा दोस्त समझता था वही लोग पीठ पीछे गालियां देकर मेरा मज़ाक बनाते थे क्याेंकि मैं ब्राह्मण या क्षत्रिय नहीं था। काॅलेज में मेरी फीस माफ हो जाने पर उन्हें गुस्सा आता था। कई बार जब वो एक साथ हो जाते थे तो मुझे इस बात का एहसास कराने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे वे श्रेष्ठ हैं और मैं दबा कुचला।
25 साल के प्रकाश ने अपना अनुभव शेयर करते हुए यह बताया।
इंडिया टुडे पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार हर 18 मिनट पर एक दलित के खिलाफ अपराध घटित होता है और औसतन हर रोज़ तीन दलित महिलाएं बलात्कार का शिकार होती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी के अनुसार 2015 में राज्य में अनुसूचित जाति के सदस्यों के खिलाफ हुए अपराध के 1800 से ज़्यादा मामले दर्ज किये गए जबकि अनुसूचित जनजाति के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या तब 483 थी।
महिला मुद्दों पर लंबे समय से काम कर रही एक सामाजिक कार्यकर्ता ताहिरा हसन के अनुसार,
हमारे पास रेप के ज़्यादातार केस दलित महिलाओं के आते हैं जो दूसरों के घरों या खेतों में मज़दूरी करती हैं। कई बार इनके एफआईआर तक दर्ज नहीं होते।
नाम ना बताने की शर्त पर एक सर्वाइवर ने बताया,
मैं जिनके घर काम करती थी उन्होंने मेरे साथ बलात्कार किया और पुलिस को बताने पर मेरे पति को जान से मार देने की धमकी दी। मैं और मेरे पति हिम्मत करके फिर भी थाने गए लेकिन पुलिस ने हमारी शिकायत नहीं सुनी।
ये कैसे ऊंचे कुल के लोग हैं जिन्हें निम्न जाति के हाथ से पानी पीना गंवारा नहीं है लेकिन उनके साथ शारीरिक संबंध बनाते वक्त कोई परेशानी नहीं होती। समानता का अधिकार चाहते हैं तो खुद के गिरेबान में भी झांकिए।