Site icon Youth Ki Awaaz

टेस्ट क्रिकेट में मानसिक मज़बूती की कमी से जूझते फटाफट क्रिकेट के धुरंधर

एशिया कप शुरू हो रहा है। अभी चंद दिनों पहले ही भारत और इंग्लैंड के बीच की टेस्ट श्रृंखला भी भारत की हार के साथ संपन्न हो गई। दिमाग अभी लाल गेंद के खेल से बाहर निकला नहीं था कि फटाफट क्रिकेट का दौर फटाफट से शुरू हो गया। एक दर्शक के तौर पर देखें, तो जब हमको ही खेल के एक फॉर्मेट से दूसरे फॉर्मेट में स्विच करने में थोड़ा समय लग जाता है, तो एक खिलाड़ी के लिए यह कितना चुनौतीपूर्ण होता होगा?

यही तो आपका प्रोफेशनल होना है और यही किसी पेशेवर से आशा भी की जाती है कि वह खुद को किसी भी परिस्थिति में ढालकर अपने काम को अंज़ाम दे। यानी क्रिकेट के तेज़ी से स्विच करते इस दौर में एक क्रिकेटर को भी उतनी ही तेज़ी से स्विच करना होगा? कहीं इस सवाल के जवाब में ही तो आज के बल्लेबाज़ों की विदेशी पिचों पर होने वाली दुर्गति का राज तो नहीं छिपा है, आइए देखते हैं।

हाल में सम्पन्न हुई इंग्लैंड टेस्ट सीरीज़ में हमको बल्लेबाजों ने हरवाया, इसमें कोई शक नहीं। हालांकि विपक्षी टीम के पुछल्ले बल्लेबाज़ों को जल्द आउट ना करने पर गेंदबाज़ भी निशाने पर हैं लेकिन भारतीय बल्लेबाज़ नाज़ुक मौकों पर रन बनाकर इसकी भरपाई कर सकते थे। यही हाल पिछले दक्षिण अफ्रीकी दौरे पर था। कहना गलत नहीं होगा कि इंग्लैंड दौरे पर भारतीय टीम को इतिहास रचने का बेहद सुनहरा अवसर मिला था, जो हाथ से जा चुका।

सवाल ये है कि जब भारतीय तेज़ गेंदबाज़ी पहले के मुकाबले लगातार बेहतर होती जा रही है, तो बल्लेबाजों को क्या हो गया है? विराट कोहली को छोड़कर बाकी बल्लेबाज़ क्यों विश्वसनीय नहीं लगते? इसके कारणों की तह में जाने के लिए हमको क्रिकेट के फॉर्मेट में तेज़ी से आए बदलावों को जानना होगा।

क्रिकेट एक ऐसा खेल है जिसमें शारीरिक फिटनेस से कहीं ज़्यादा मानसिक फिटनेस की दरकार होती है। जबकि T-20 क्रिकेट के बाद खेल में आए तेज़ बदलावों ने खिलाड़ी के मानसिक स्तर पर ही सबसे ज़्यादा छेड़छाड़ की है। आज का ज़्यादातर पैसा और समय विभिन्न तरह की T-20 लीग में ही लगा हुआ है। पेशेवर खिलाड़ियों के लिए ये बहुत ज़रूरी है कि खुद को बदलते हुए माहौल के हिसाब से ढाल सके। ऐसे में बल्लेबाज़ अपना ज़्यादातर समय नेट पर बड़े-बड़े शॉट्स इज़ाद करने में लगा रहे हैं।

बल्लेबाज़ अब अॉफ स्टंप से बाहर आती गेंदों को छोड़ने की जगह उसको बाउंड्री के बाहर भेजने की जुगत में ज़्यादा लगे रहते हैं। वह डॉट्स बॉल खेलना नहीं चाहते लेकिन जब टेस्ट क्रिकेट में ऐसा करना पड़ता है, तब बल्लेबाज़ को अपनी इस मानसिक स्थिति को बदलना होता है।

बल्लेबाज़ की सेट मानसिक स्थिति उसको गेंद के साथ छेड़छाड़ करने को कहती है लेकिन परिस्थितियां हैं कि गेंद को छोड़कर खेलने के लिए कहती हैं। जब तक आप अपनी मानसिक स्थिति और परिस्थिति के बीच संतुलन बनाकर चलते हो तब तक क्रीज पर टिके रहते हो, वरना खेल खत्म।

समस्या ये है कि आज किसी खिलाड़ी की टेस्ट मैच के अनुसार माइंडसेट करने की मजबूरी नहीं रही। एक समय था जब बल्लेबाज़ों का मकसद ही केवल टेस्ट क्रिकेट में धाक जमाना होता था। शायद यही कारण था कि तब हमने मानसिक और तकनीकी रूप से बेहद ही मज़बूत बल्लेबाज़ देखें। आज भी किसी खिलाड़ी की क्लास को उसके टेस्ट रिकॉर्ड ही तय करते हैं लेकिन खेल के दो महत्वपूर्ण हिस्से पैसा और दर्शक कहीं और चले गए है और समय बदल गया है।

अब खिलाड़ियों की मजबूरी है कि वह भी उस ओर चले जिस तरफ हवा का रूख है। आजकल हवा T-20 की है, इससे कौन इंकार कर सकता है। ऐसे में लंबे समय से जल्दी-जल्दी होते T-20 और वनडे क्रिकेट के हिसाब से अपने माइंडसेट को पूरी तरह ढाल चुके बल्लेबाज़ों के लिए व्यस्त कार्यक्रमों के बीच, तुरंत अपने गेम को चेंज करना इतना आसान नहीं रह जाता, जितना की एक्सपर्ट लोगों का यह कहना है कि प्रोफेशनल क्रिकेटरों को हर तरह के कंडिशन में खेलने का आदी होना चाहिए।

मानसिक रूप से एक बार बल्लेबाज़ जिस तरह से खेलने का आदी हो जाता है, वैसी ही उसकी मानसिक भाषा बन जाती है। अलग-अलग तरह के क्रिकेट के इस दौर में बल्लेबाज़ों को कई बार यह निश्चित ही नहीं हो पाता कि उसका नैचुरल गेम कौन सा है, क्योंकि सभी का माइंडसेट तो स्ट्रोक प्लेयर वाला है।

यही माइंडसेट टेस्ट मैचों की चुनौतीपूर्ण पिचों पर ‘तू चल, मैं आया’ वाली कहानी के पीछे का सबसे बड़ा कारण है। बल्लेबाज़ प्राकृतिक डिफेंस करने में सहज नहीं रहते, बाहर जाती गेंद से छेड़छाड़ करना भी उनके मन में रहता है। यह उन मुख्य कारणों में से एक कारण है जिसके कारण आज बल्लेबाज़ों को पहले की तुलना में कहीं ज़्यादा मानसिक मज़बूती दिखाने की ज़रूरत है।

केवल परिस्थितियों के हिसाब से तैयारियां करने से भी मामला नहीं बदलता क्योंकि ऐसी तैयारियां तो लगातार पेशेवर खिलाड़ी कर ही रहे हैं। कुछ दिन की नेट प्रैक्टिस से खिलाड़ी की शारीरिक भाषा भी ढंग से नहीं बदल पाती, मानसिक भाषा की तो बात ही छोड़ दीजिए। दरअसल, आज के समय में सारा खेल माइंडसेट का ही है। भारतीय कप्तान कोहली से बेहतर उदाहरण इस मामले में और कौन हो सकता है, जिनकी बतौर खिलाड़ी मेंटल टफनेस ने उनको आज के दौर के महान खिलाड़ियों की लिस्ट में शुमार कर दिया है।

Exit mobile version