इतिहास ऐसी हत्याओं और उनके प्रति क्रूरताओं से भरा पड़ा है, जिसने मानवता व आज़ादी के लिए आवाज़ उठाने की ज़हमत की। तथाकथित पोंगा-पंडित लोग उन्हें समाज से अलग करने में कोई कसर नहीं छोड़ते, परन्तु क्या हुआ? व्यक्ति मारे गए मगर विचार सदा के लिए अमर रह गए। आगे चलकर ऐसे विचार और अधिक क्रांति का वाहक बनता है। चिंता की बात यह है कि आज हम किस तरह के आज़ाद देश में रह रहे हैं। लोकतंत्र में कार्यपालिका हमेशा दमनकारी भूमिका में रहा है, जो लोकतन्त्र के पाखंड को बनाए रखता है। फिर तो ये कहना गलत नहीं होगा कि ये कैसा लोकतंत्र है जहां अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है।
ऐसी स्थिति में न्यायपालिका, विधायिका और मीडिया ऐसे स्तंभ हैं जिनसे न्याय की उम्मीद की जा सकती है। अभिव्यक्ति की आज़ादी व्यक्तिगत नहीं होती, उसका फैलाव सामुदायिक होता है। तब उसके लिए लड़ना भला व्यक्तिगत कैसे हो सकता है। हमारे समाज या देश में लोग ऐसी कल्पना करते हैं कि आग तो पड़ोसी के यहां लगी है, जब मेरे यहां लगेगी तब देखेंगे। ये तो वही बात हो गई कि भगत सिंह हमारे यहां नहीं पड़ोसी के यहां पैदा हो।
आजकल दो प्रकार की चुप्पी इन बोलने और लिखने वालों के साथ समानान्तर चल रही है। एक तो सत्ताधारी जो बोलने व लिखने वालों के खिलाफ कुछ न कुछ बोलते व लिखते रहते हैं और दूसरी उन यथास्थितिवादियों से डरे हुए लोगों की चुप्पी है।
कारण चाहे कुछ भी हो मगर चुप्पी हमेशा उसी तरफ खड़ी होती है जिधर दबाव, सत्ता का लोभ, विश्वासघात और नाइंसाफी होती है। इसलिए चुप रहना भी किसी बड़े अपराध से कम नहीं है। लोगों के पक्ष में खड़े होने वाले मानस हमेशा से मौजूद थे, परंतु जनपक्ष में खड़े होने वालों के विरुद्ध दमन की भयावहता आज जिस तरह दिखाई दे रही है, वह भयभीत करने वाली राजनीति का कुरूप चेहरा है।
आज समाज व राजनीति की स्थिति नागनाथ व सांपनाथ जैसी हो गई है। जिधर भी जाइए दोनों तरफ वही मिलेंगे। चाहे वामपंथ हो या दक्षिणपंथ। यदि अभिव्यक्ति की आज़ादी के बजाए भयपूर्ण माहौल बनाने की राजनीति हो रही हो, तब वहां लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। आज के समय में यह चिंता का विषय है कि वे कौन से कारण हैं जिनकी वजह से हम भयपूर्ण माहौल में जीने को मजबूर हैं।
खैर, इतिहास इस बात का गवाह है कि हमेशा कुछ संवेदनशील, ईमानदार और निर्भीक लोगों के जीवन की शर्तों पर ही आज़ादी के लिए मानवता के संघर्ष चलते रहे हैं। ग्रामीण अंचल का कोई छात्र जब किसी मुद्दे व समस्या पर अपनी राय ज़ाहिर करता है, तब उसके सामने कई तरह की परेशानियां आती हैं। सोशल मीडिया के ज़रिए ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि कोई भी व्यक्ति अपनी बात ना रख पाए। इंटरनेट और सोशल मीडिया ने हर व्यक्ति को बोलने का अवसर और अधिकार दे दिया है। हर नागरिक को जानने व अपनी बात कहने का मौका मिल गया है। इन सबके बीच आज जिस तरह से निष्पक्ष व स्वतंत्र विचार रखने वाले लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों, छात्रों व शोधार्थियों को अलग-अलग ढंग से निशाना बनाया जा रहा है, ये शर्मनाक है।
युवाओं को रोज़गार और शिक्षा जैसे मुद्दों से भटकाकर एक अलग किस्म की विचारधारा की ओर मोड़ा जा रहा है। इसी बीच शिक्षा के विभिन्न संस्थानों में एक नए प्रकार की बहस हमारे सामने दिखाई दे रही है। इसे हम शैक्षिक राष्ट्रवाद का नाम दें तो गलत नहीं होगा।
पिछले कई वर्षों में विश्वविद्यालय व अन्य शैक्षिक संस्थानों में इसकी चर्चा व उसका असर देखने को मिल रहा है। आज शैक्षिक संस्थानों में राजनीतिक व समकालीन मुद्दों को लेकर परिचर्चाएं आयोजित की जा रही हैं। किसी ने तो यह भी कह दिया कि आज विश्वविद्यालय के छात्र सरकार के साथ विपक्ष की भूमिका निभा रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में हिन्दी पत्रकारिता का भी महत्वपूर्ण योगदान है। पत्रकारिता अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम होता है।
हम अतीत में जाकर देखें तो पत्रकारिता का असर व्यापक तौर पर दिखाई पड़ता है। सभी बड़े क्रांतिकारियों ने अपने-अपने पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से समाज में क्रांति लाने का काम किया है। लेकिन आज के इस भयपूर्ण माहौल में रवीश कुमार जैसे निर्भीक पत्रकार को जब ये कहना पड़े कि हम ज़िदा होते हुए भी मुर्दे के समान जी रहे हैं, तब समझ लीजिये कि देश का माहौल कैसा है। संविधान जब किसी मनुष्य को अलग-अलग नहीं देखता तो ये कुछ यथास्थितिवादी लोग क्यों मनुष्य और उनके बीच खाई बनाने में तुले हुए हैं। आज के समय में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर सबसे अधिक हमले हो रहे हैं।
वर्तमान दौर में एक प्रकार से आघोषित आपातकाल चल रहा है, जहां युवाओं में डर का माहौल पैदा किया जा रहा है। सरकार की उदासीनता इसे और मज़बूती प्रदान कर रही है। आश्चर्य होता है कि हम किस प्रकार के भारत के भविष्य का निर्माण कर रहे हैं। अंत में आलम खुर्शीद के शब्दों में कहना चाहूंगा कि, “दरवाज़े पर दस्तक देते डर लगता है। सहमा-सहमा सा अब मेरा घर लगता है, साज़िश होती रहती है दीवार-ओ-दर में। घर से अच्छा अब मुझको बाहर लगता है.”