महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर इस देश में जब भी बहस शुरू होती है तब उनके लिए कई सारी बंदिशें, नियम और कानून बना दिए जाते हैं। जब भी कोई महिला अपने ख़्वाब को हकीकत के आईने से देखने की कोशिश करती भी हैं, तब समाज के कुछ नुमांईंदे उनपर तंज कसकर उन्हें इस बात का एहसास दिलाते हैं कि तुम नारी हो और तुम बस खामोश बैठो।
पुरुषवादी समाज की रेस में एक महिला के लिए अपने हित में फैसले लेना और फिर उन्हें अमलीजामा पहनाना बेहद मुश्किल हो जाता है। दहजे प्रथा, बाल विवाह, यौन शोषण और बलात्कार जैसे मुद्दों पर बड़ी लंबी बहस चली है, लेकिन महिलाओं से जुड़े कुछ ऐसे भी मुद्दे हैं जिनके बारे में चर्चा करने से लोग परहेज करते हैं। उन्हीं मुद्दों में से एक है “गर्भपात” जो भारतीय कानून के हिसाब से वैध होते हुए भी कभी महिलाओं का अधिकार नहीं बन पाया।
हमारे समाज में जहां पुरुषों को अपने हक के हर फैसले लेने का अधिकार प्राप्त है, वहीं महिलाओं के लिए गर्भपात को किसी पाप से कम नहीं समझा जाता है।
उल्लेखनीय है कि Medical Termination of Pregnancy (MTP) Act 1971 के तहत 12 सप्ताह से पूर्व की आयु तक के गर्भ को गिराने के लिए एक पंजीकृत चिकित्सक की अनुमति लेना आवश्यक है। यदि गर्भ 12 सप्ताह से अधिक और 20 सप्ताह से कम हो, तो ऐसे में 2 चिकित्सकों की अनुमति की जरूरत है। MTP Act के अनुसार एक औरत नहीं चुन सकती कि वो मां बनना चाहती है या नहीं।
इन सबके बीच खासतौर पर एक लड़की के लिए मुश्किल हालात तब उत्पन्न हो जाते हैं जब वह अपने माता-पिता के साथ नहीं बल्कि अकेले किसी चिकित्सक के पास गर्भपात कराने पहुंच जाती हैं। घर की चौखट से बाहर निकलने और डॉक्टर के चेंबर की दहलीज़ तक पहुंचने के क्रम में एक लड़की को समाज की तंग मानसिकताओं का सामना करना पड़ता है। असल लड़ाई तो तब शुरु होती है जब वह लड़की अकेले डॉक्टर के चेंबर तक पहुंच जाती है। वहां मौजूद तमाम मरीज़ और कम्पाउंडर पहले तो जी भर के अकेली लड़की को देखकर उनके हौसले की रफ्तार धिमी कर देते हैं। अब फिर जो भी कॉन्फिडेंस बच जाता है, उसकी गति डॉक्टर पूरी कर देते हैं।
तुम्हारे पेरेन्ट्स कहां हैं ? वो क्यों नहीं आए हैं? तुम्हें नहीं पता कि ये सब गलत है। ठीक है, चलो कंपाउंडर से बात कर लो। अब वहीं वाला सीन होता है कि कुछ अधिक पैसे ले दे कर और बदले में थोड़ा ज़लील भी करके लड़की का गर्भपात कर दिया जाता है। यहां डॉक्टर को कमाई तो करनी ही थी, मगर सभ्य समाज के आगे अच्छाई का चोला भी पहनना ज़रुरी था।
यह सच है कि शारीरिक बनावट की वजह से पुरूष के शरीर में गर्भ नहीं ठहर सकता, परन्तु अपनी बॉडी में यदि कोई परेशानी है, इसके लिए बेहतर चिकित्सा लेने के लिए वे स्वतंत्र हैं। फिर जब लड़कियों की बात आती है, तब दोहरी मानसिकता क्यों अपनाई जाती है?
गर्भपात कराने में जहां कुंवारी लड़कियों को सामाजिक बंदिशों का सामना करना पड़ता है, वहीं खासतौर पर ग्रामीण इलाकों में गुजर-बसर कर रहीं एक महिला के लिए उस वक्त परिस्थिति और भी विकट हो जाती है, जब लड़का पैदा करने की चाहत में घरवाले बार-बार लड़की का गर्भपात करा देते हैं। बार-बार सर्जरी या किसी भी तरह का ऑपरेशन इंसान के शरीर के लिए ठीक नहीं होता। फिर महिलाएं भी तो इंसान की श्रेणी में ही आती हैं।
इससे इतर ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को गर्भनिरोधक गोलियां खाने की भी इजाज़त नहीं होती। अनचाही प्रेग्नेंसी से निज़ाद पाने के लिए एक महिला जब अपने पति से गुहार लगाती है, तब पति ये कहकर टाल देता है कि ये फैसला तो मां के ही हाथ में है। और जब गलती से महिला अपनी सास से गर्भनिरोधक गोलियों के खाने की बात रखती है, तब निजी स्वार्थ के आड़ में फिक्र दिखाई जाती है। ये कहा जाता है कि ये गोलियां खाने से बिटिया के शरीर में साइड इफेक्ट्स होंगे ब्ला-ब्ला।
फिर तो ये दोगली मानसिकता ही है जहां गर्भपात तो दूर की बात, एक महिला को अपनी मर्ज़ी से गर्भनिरोधक गोलियां तक खाने की इजाज़त नहीं होती। लेकिन जब एक बार बच्चे का जन्म हो जाता है, फिर घर में किसी को इस बात की चिंता नहीं होती कि अब जो बिटिया की सेहत खराब होगी उसका क्या।
हिन्दुस्तान में माहौल ऐसा बन चुका है जहां लोग किसी मुद्दे को लेकर तभी संवेदनशील होते दिखाई पड़ते हैं, जब किसी निर्देशक ने उस विषय पर फिल्म बनाई हो। तब सोशल मीडिया पर सेल्फी व्गैरह लेकर कुछ दिनों में ही मामले को रफा-दफा कर दिया जाता है। फिल्म के सब्जेक्ट पर दर्शकों का ध्यान कम और गंभीर विषय पर बनी फिल्म को मसालेदार तरीके से दिखाए गए कॉन्टेन्ट पर अधिक ध्यान होता है। यदि इस दौर में हर गंभीर विषय पर पहले फिल्म बनानी होगी और तब ही हमारे अंदर की इंसानियत जागेगी, फिर तो इससे बड़ी शर्मनाक चीज़ कुछ और हो ही नहीं सकती है।
गर्भपात को लेकर इस देश की महिलाओं को आपकी सहानुभूति नहीं चाहिए, बस उनके दर्द और तकलीफों को एक बार अपनी आंखों में समा कर तो देखिए, फिर पुरुषवादी समाज का चोला अपने आप ही उठ जाएगा।
नोट – फोटो प्रतीकात्मक है