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कविता: “सभी शहरों में मैंने बचपन को मरते देखा है”

भरी दुपहरी में मैंने बादल को घिरते देखा है

सभी शहरों में मैंने बचपन को मरते देखा है,

मैंने किताब वाले कोमल हाथों को काम करते देखा है

भूख के नाम पर बचपन को पानी से काम चलाते देखा है।

 

खेलने की इस उम्र में दिमाग उसका कोई खिलौना नहीं जानता है

उसके लिए ये फुटपाथ बहुत बड़ी है वो आराम के लिए कोई बिछौना नहीं जानता है,

अपनी बेबसी को छिपाता, सिसकियों का साथ बड़े अच्छे से निभाता है

वो भोला इतना है कि राह पर चलने वाले हर एक को अपना बताता है।

 

उन कोमल कंधों पर बैग के बदले ईंट धरते देखा है

अनजाने में ही मैंने उसे एक सपने का भारत बुनते देखा है

धर्म संप्रदाय का उसे कुछ अता-पता नहीं

पर उसे हिन्दू के लिए हिन्दू और मुस्लिम के लिए मुस्लिम बनते देखा है।

 

किसको वो अच्छा कहे किसको वो बुरा कहे, नहीं उसे किसी का नाम लेते देखा है

मैंने इसी बचपन में से अब्दुल कलाम को निकलते देखा है।

 

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